समकालीन कहानियों में
इस माह
प्रस्तुत है- भारत
से
शुभदा मिश्र की
कहानी
आ ही गयो री फागुन त्यौहार
चारों
ओर ढोल ढमाके...नगाड़ों की ध्वनियाँ सुनाई देने लगी थीं। बाजार
तरह तरह के रंगों, गुलालों, पिचकारियों, टोपियों, मुखौटों से
सजने लगे थे। दुकानो के सामने टँगी आकर्षक पोशाकें लोगों को
लुभा रही थीं। घर घर बन रहे परंपरागत व्यंजनों की खुशबू बच्चे
बूढ़े, जवान सबको मस्त कर रही थी। फिजा में रह रह कर उभरती
सरगोशियाँ, खिल खिल करती दबी.दबी हँसी, चमकती आँखे और शरारत
भरी मुस्कुराहटें बता रही थीं कि ननद-भाभी, देवर-भौजाई,
सखि-सहेलियाँ, यार-दोस्त इस बार जमकर छकाने वाले हैं एक दूसरे
को। सारी फिजा में मानो शरारतों भरी हवाएँ मचल रही थीं। दिलों
में शोख अरमानों के वलवले उठाता मस्ती भरा फागुन त्योहार चला आ
रहा था...
मगर वह मन ही मन आशंकाओं में डूब उतरा रही थी...कहीं इस बार की
होली भी इस घर की मनहूसियत के आगे मात न खा जाए। कंकड़बाग चलोगे
क्या जी?...उसने डरते डरते पति से पूछा। कंकड़बाग यानी उसकी
ससुराल। उसके पति का घर। मात्र वही जगह है, जहाँ जाकर उसके पति
के कठुआए, पथराए, जिस्म में जीवन संचार होता था। ... आगे-
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