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बस्तर और
छत्तीसगढ़ की होली
-अनुराग शुक्ला
व योगेंद्र ठाकुर-
बसंत
पंचमी के दिन डंडारी नाच के साथ जगदलपुर के आदिवासियों
में वसंतोत्सव प्रारंभ हो जाता है और होली तक हर रोज
होली दहन और नाचा नृत्य जारी रहता है।
बस्तर के दशहरे की तरह यहाँ की होली भी अपनी
अनूठी परंपराओं को समेटे हुए है। जगदलपुर संभाग
मुख्यालय से दस किलोमीटर दूर स्थित माड़पाल गाँव में आज
भी राज-परिवार का ही कोई सदस्य (ग्रामीणों का राजा)
होलिका दहन करता है। राजा के दर्शनार्थ आसपास के कई
गाँवों के लोग एकत्र होते हैं लेकिन शहर से मात्र सात
किलोमीटर दूर बसे कलचा गाँव में होली की रात न तो
होलिका दहन होता और न ही रंग-गुलाल खेला जाता
है। वहाँ रंगपंचमी की पूर्व संध्या पर होलिका
दहन होता है और
अगले दिन होली खेली जाती है। बस्तर के होलिकोत्सव में
'नाट' आकर्षण का केंद्र होता है।
होली पर मौजूदा दौर में आधुनिकता का रंग चढ़ गया है।
रंग, गुलाल, पिचकारी, टोपी यहाँ तक कि होलिका की
मूर्तियों में भी खास बदलाव आया है। कहीं होलिका
मोबाइल लिए हुए किसी आधुनिका के रूप में पेश की जाती
है तो कहीं उसे कम वस्त्रों में फैशन की पराकाष्ठा
लाँघ चुकी नारी का रूप दिया जाता है। होली जलाने व
मनाने के तौर-तरीके भी तेजी से
बदलते जा रहे हैं। भंग-तरंग तथा पारंपरिक व्यंजन में
भी तब्दीली आई है लेकिन आधुनिकता की इस चकाचौंध में भी
बस्तर स्थित माड़पाल की होली अपनी प्राचीन और गौरवशाली
परंपरा को कायम रखे हुए है। राजतंत्र गुजरे वक्त की
कहानी हो गया लेकिन यहाँ आज भी राजा का अति सम्मान है।
होली की रात जगदलपुर राजमहल से राजा या राजवंश का कोई
सदस्य पहुँचता है। ग्रामीण उसे अति सम्मान व उत्साह के
साथ खुद के बनाए गए काष्ठ रथ पर सवार करके पारंपरिक
ढंग से होलिका-दहन स्थल तक ले जाते हैं। मावली मंदिर
के समीप ही होली खोदरा में राजा होलिका दहन करता है।
इसके बाद नाट का आनंद लिया जाता है। आसपास के
दर्जनों गाँवों से बड़ी
संख्या में ग्रामीण जुटते हैं और सुबह ही अपने-अपने
गाँव के लिए प्रस्थान करते हैं। यह खास बात है कि
ग्रामीण माड़पाल गाँव में होली खेलने के मकसद से नहीं
बल्कि राजा को देखने और नाट का आनंद लेने ही आते हैं।
राज-परिवार की सहभागिता की
कहानी
बस्तर
के महाराजा पुरुषोत्तम देव भगवान जगन्नाथ के परम भक्त
थे। बुजुर्ग बताते हैं कि सन १४२० के आसपास राजा को
भगवान जगन्नाथ के श्रेष्ठ सेवक के रूप में रथपति का
वरदान मिला। सौभाग्य प्राप्त कर लौटते वक्त वे होली की
रात माड़पाल गाँव पहुँचे और वहीं रुके तथा उन्होंने
होलिका दहन भी किया। तब से यह परंपरा लगातार चली आ रही
है।
काष्ठ का रथ ग्रामीणों द्वारा तैयार किया जाता है।
रथ-निर्माण व होलिका दहन में काकड़ापसार के जंगल की
लकड़ी का उपयोग किया जाता है। पहले तेंदू की लकड़ी उपयोग
में लाई जाती थी। बुजुर्ग बताते हैं कि माड़पाल की होली
की आग से शहर में होली जलती थी। रात बारह बजे एक
घुड़सवार माड़पाल से आग को एक हाँडी में लेकर जगदलपुर
राजमहल जाता था। मावली मंदिर का पुजारी पहले राजमहल के
पास होली जलाता था। इसके बाद शहर के अन्य जगहों में
होलिका दहन होता
था।
कलचा की होली
जगदलपुर संभागीय
मुख्यालय से सात किलोमीटर दूर कलचा गाँव में होलिका
दहन रंगपंचमी की पूर्व संध्या पर होता है। होली की रात
वहाँ कोई रौनक नहीं रहती। न तो होलिका दहन होता और न
ही रंग-गुलाल खेला जाता। वहाँ रंगपंचमी के दिन
रंग-गुलाल खेला जाता है।
इसके पीछे की कहानी में भी राजपरिवार जुड़ा है। माड़पाल
की होली में राजा के पहुँचने से कलचा में दूसरे दिन
होलिका दहन होता था। क्योंकि उस गाँव के भी लोग माड़पाल
होली के उत्सव में शामिल हुआ करते थे। अगले दिन कलचा
गाँव में होलिका दहन का कार्यक्रम फीका रहता था।
इसीलिए बाद में लोगों ने रंगपंचमी की पूर्व संध्या पर
होलिका दहन करने का निश्चय किया, तब से यह परंपरा
लगातार चलती आ रही है। पंचमी के दिन रंगोत्सव मनाया
जाता है।
पंचमी के दिन ही
देवस्थानों में जात्रा की शुरुआत की गई। यहाँ के सरपंच
गोविंद कश्यप ने बताया- 'माता गुड़ी में पूजा-अर्चना के
बाद चारपहिया वाले रथ में देवी का छत्र रखकर पुजारी,
गाँव के पटेल और ग्रामीण जुलूस के रूप में मावली गुड़ी
पहुँचते हैं। देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना के बाद
होलिका दहन होता है। पंचमी के दिन जात्रा करके होली
खेलने की परंपरा है।'
होलिकोत्सव में नाट लोगों के आकर्षण का केंद्र होते
हैं। यह एक नाट्य विधा है। इसमें महाभारत व रामायण के
विभिन्न प्रसंगों की जीवंत प्रस्तुति पारंपरिक वेशभूषा
और वाद्ययंत्रों के साथ की जाती है। नाट में कलाकार
केवल भावभंगिमा प्रस्तुत करते हैं, जबकि नाट गुरु परदे
के पीछे से कहानी बताता है और संवाद भी बोलता है।
संवाद की भाषा हलबी, भतरी और उड़िया होती है। हिंदी
नाटकों की तरह नाट में भी एक से ज्यादा विदूषक होते
हैं, जो अपनी भावभंगिमाओं से दर्शकों को बाँधे रखते
हैं।
नानगुर में नाट
का विशेष आयोजन होता है। यहाँ दर्शकों से ज्यादा
उत्साह नाट्य कलाकारों में होता है। वे भी तल्लीनता के
साथ नाट प्रस्तुत कर खुद को स्थापित और श्रेष्ठ साबित
करते हैं। यहाँ बेहतर प्रस्तुति के लिए जिले सहित
उड़ीसा से आए नाट दलों को ग्राम पंचायत की ओर से
पुरस्कार दिया जाता है। इन्हें देखने-सुनने के लिए
दर्जनों गाँव के लोग शाम से ही नानगुर में जुटते हैं।
ये दर्शक होली के रंगों से पहले नृत्य नाटकों के रंगों
से सराबोर हो जाते हैं। नाट देखने के लिए लोग पैदल,
बैलगाड़ी और अन्य वाहनों से आते हैं। छोटे से छोटे गाँव
में एक ही रात में चालीस से ज्यादा नाट होते हैं।
सुदृढ़ नाट परंपरा को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि
रेडियो, टीवी और फिल्म अभी सालों इस विधा को नहीं छू
पाएँगे।
दंतेवाड़ा
की होली
दंतेवाड़ा
स्थित शक्तिपीठ में होलिकोत्सव दस दिन तक मनाया जाता
है। लोगों की मान्यता है कि यहाँ होली में अंचल के सभी
देवी-देवता शामिल होते हैं। दस दिनों की फागुन मड़ई में
प्रतिदिन अलग-अलग रस्म अदा की जाती है। यहाँ मड़ई की
शुरुआत डोबरा मैदान में कलश स्थापना से होती है।
सशस्त्र सलामी के बाद माई की पालकी निकाली जाती है।
पालकी नारायण मंदिर जाती है और शाम को वापस आती है।
मंदिर का पुजारी ताड़ के पत्तों को धोकर ताड़पालनी रस्म
अदा करता है। नौवें दिन आँवरा मार रस्म के बाद होलिका
दहन होता है। वहाँ ताड़पालना रस्म के पत्तों को जलाया
जाता है। इस दौरान भी माईजी की पालकी को सशस्त्र सलामी
दी जाती है।
छत्तीसगढ़ में होली
छत्तीसगढ़ में
होली को होरी के नाम से जाना जाता है और इस पर्व पर
लोकगीतों की अद्भुत परंपरा है। ऋतुराज बसंत के आते ही
छत्तीसगढ़ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा
कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस
फूटने लगते हैं। बसंत पंचमी को गाँव के बईगा(गाँव का
मांत्रिक जो देवी मंदिर में पूजा करता है) द्वारा
होलवार (वह स्थारन होली जहां जलती है) में कुकरी
(मुर्गी) के अंडे को पूज कर कुंआरी बबूल (बबूल का नया
छोटा पेड़) की लकड़ी में झंडा बाँधकर गडाने से शुरू
फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ प्रारंभ
होता है।
किसानों के घरों
में नियमित रूप से हर दिन पकवान बनने की परंपरा शुरू
हो जाती है, जिसे तेलई चढना कहते हैं। अईरसा (अनरसे),
देहरौरी (एक पकवान) व भजिया (पकौड़े) नित नये पकवान,
बनने लगते हैं। छत्तीसगढ में लड़कियां विवाह के बाद
पहली होली अपने माता पिता के गाँव में ही मनाती है एवं
होली के बाद अपने पति के गाँव में जाती है इसके कारण
होली के समय गाँव में नवविवाहित युवतियों की भीड़ रहती
है। सरररा... रे भाई सुनले मोर कबीर ... के साथ चढाव
में बजते मादर (मादल या मृदंग) में कुछ पलो के लिए
खामोशी छा जाती है गायक-वादक के साथ ही श्रोताओं का
ध्यान कबीर पढने वाले पर केन्द्रित हो जाती है। वह एक
दो लाईन का पद सुरीले व तीव्र स्वर में गाता है। यह
कबीर या साखी फाग के बीच में फाग के उत्साह को बढाने
के लिए किसी एक व्यीक्ति के द्वारा गाया जाता है एवं
बाकी लोग पद के अंतिम शव्दों को दुहराते हुए साथ देते
है। इसके साथ ही कबीर के दोहे या अन्य प्रचलित दोहे,
छंद की समाप्ति के बाद पढे जाते है पुन: वही फाग अपने
पूरे उर्जा के साथ अपने चरमोत्कर्ष पर पहुच जाता है।
गाँव के चौक-चौपाल में फाग के गीत होली के दिन सुबह से
देर शाम तक निरंतर चलते हैं। रंग भरी पिचकारियों से
बरसते रंगों एवं उडते गुलाल में मदमस्त छत्तीसगढ अपने
फागुन महराज को अगले वर्ष फिर से आने की न्यौता देता
है। |