होली कब है,
कब है होली
- दीपक
गोस्वामी
मोबाईल पर मैसेज आया। “होली
कब है, कब है होली?” और साथ में स्माइली वाला गब्बर सिंग
जैसा कार्टून। कासिम मियाँ का मैसेज था।
मैंने जवाब दिया "आठ मार्च को" और जाम टकराने का स्माइली
जोड़ दिया।
"महफ़िल भी जमेगी ना?" कासिम मियाँ ने पूछा।
"ये भी कोई पूछने की बात है?"
"लेकिन, क्या ठीक रहेगा आपका आना?' प्रश्न असामान्य और
चिंता से भरा था।
कितना कुछ बदल गया था। ऐसा सवाल उठेगा ये कभी सोचा भी नहीं
था।
अभी पिछले साल ही की तो बात है। नेपथ्य में एक गाना गूँज
रहा था - होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल
जाते हैं, गिले शिकवे भूल के दोस्तों दुश्मन भी गले मिल
जाते हैं...
"हैंड्स अप" अचानक दस वर्षीय मगनभाई छगनभाई ने ललकारा।
नन्हे बालक के हाथ में रंगों की बौछार करती हुई मशीनगन
नुमा पिचकारी थी।
कासिम मियाँ ने दिल पर हाथ रखते हुए मरने की एक्टिंग का
फूहड़ प्रयास किया।
"क्या भाई, होली है या किसी महायुद्ध की तैयारी?" मैंने
मगन के पिता छगन पर तंज कसा।
"मशीनगन, स्टेनगन, रॉकेट लॉंचर, तोप… आजकल हर तरह की
डिज़ाइन वाली पिचकारियों से मार्किट भरा है। अच्छा है, खेल
खेल में बच्चों में देश प्रेम की भावना बढ़ेगी" छगन ने
समझाया।
"मेड इन चाइना" मैंने पिचकारी पर लिखा हुआ पढ़ा। "देखो अब
तो देश प्रेम भी चीन से इम्पोर्ट होता है" मैं मुस्कुराया।
"भाई, आप तो बात बात में राजनीती ढूँढ लेते हैं। होली में
क्या मशीन गन और क्या चाइना?' कासिम मियाँ ने बीच बचाव
करना चाहा।
"होली वृंदावन कान्हा वाली ही रहने देते। होली प्यार और
भाईचारे का त्यौहार है, इसमें हथियारों को क्यों घुसा
दिया? जैसे जय सीता राम अब जय श्री राम हो गया है?' तल्खी
मेरे चेहरे पर गहराती हुई दिख रही थी।
कासिम भाई चेहरे से रंग पोंछते हुए बोले "भाभी ने गुझिये
बनाये हैं, मगन को गुजिये बहुत पसंद हैं, चलो बाकी महफ़िल
वहीं जमाते हैं।"
न्यौता इतने प्यार से दिया गया था कि ना नुकर की कोई
गुंजाईश ही नहीं थी। हम सब हर साल कासिम मियाँ के घर पर ही
महफ़िल जमाते हैं और होली का धमाल करते हैं।
इस बार कासिम भाई का न्यौता रु-बरु नहीं मोबाइल पर था,
जिसमें उनकी चिंता स्पष्ट झलक रही थी। छगन, कासिम और मैं,
हम तीनों आर्ट्स कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं। छगन भाई
मध्यकालीन इतिहास में शानदार पकड़ रखते हैं और गाहे बगाहे
हम सब की गलतफहमियाँ दूर करते रहते हैं। फेक न्यूज़ के
ज़माने में वो ही हमेशा हमारे ज्ञान चक्षु खोलते हैं।
मैं फिर पिछले साल के होली मिलन की यादों में खो गया। होली
का हुड़दंग थमा। गपशप चालू हुई। सर्फ एक्सेल और इरफ़ान खान
के विज्ञापन की चर्चा हुई। प्यार मोहब्बत के इस त्यौहार
में नफरत कब और कैसे आ गई, पता ही नहीं चला? बात बात में
बाराबंकी देवा दरगाह में होली खेलने की एहमियत को कासिम ने
समझाया। इस दरगाह की नींव एक हिन्दू ने रखी थी। बड़े अदब के
साथ दरगाह के गेट के पास हर साल हिन्दू और मुसलमान ज़ायरीन
दुआ मांगते हैं और गुलाल उड़ा कर जश्न मनाते हैं। बाबा का
संदेश "जो रब है वही राम" सब तक पहुँचता है।
"रब और राम" मैं चौंका!!!
"बाबा का फरमान था कि मोहब्बत में हर धर्म एक है, रंगों का
कोई मज़हब नहीं होता। वाज़िद अली शाह, अकबर और जहांगीर के
होली खेलने के तमाम जिक्र मिलते हैं।" कासिम भाई ने फिर एक
किस्सा सुनाया जब नवाब आसफ़ुद्दौला मुहर्रम का ताज़िया दफन
कर वापस आये और उसी दिन होली थी तो ग़मी भूल कर होली के रंग
में रम गए।
रुबीना भाभी यानि कासिम मियाँ की बीबी सूफी संगीत का बहुत
शौक़ रखती हैं। बोलीं "होली तो सूफ़ी संत हों या नवाब, सबका
प्रिय त्यौहार है। आबिदा परवीन का गाया - होली होय रही
अहमद जियो के द्वारा - मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। सीडी
प्लेयर पर सुनो मज़ा आ जायेगा।"
सबने अपनी आँखे मूँद कर सूफी संगीत का लुत्फ़ उठाया।
"वाकई, बहुत खूबसूरत है" छगन भाई ने अपनी सूफी गायकी की
समझ को बघारने की पूरी कोशिश की।
अब छगन भाई ने कमान संभाल ली। भारत के मध्य युगीन काल की
बात हो और छगन भाई को श्रोता मिल जाएँ तो ये ठीक वैसे ही
है जैसे कि किसी नवोदित कवि को कवि सम्मेलन में कविता पढ़ने
का मौका मिल जाये। बोले "तुज़ुकी-ए-जहाँगीर में लिखा है कि
हर गली कूचे में होली जलाई जाती है। दिन में एक दूसरे के
सिर और चेहरे पर अबीर लगाते हैं और इसके बाद नहाते हैं, नए
कपड़े पहनते हैं। लाल किले के पीछे यमुना के किनारे मेला
लगता है। ढप, झाँझ बजती है। मसखरे बादशाह, बेगमों और
शहज़ादे, शहज़ादियों की नकल उतारते हैं। कोई बुरा नहीं मानता
बल्कि बेगमें झरोखों से इस सबका मज़ा लेती हैं और बादशाह
इनाम देते हैं।"
रुबीना भाभी ने हाथ का बना माइक छीन लिया और मुस्कुराते
हुए बोली "सूफी शायरी की कुछ बात हो जाये। तो पहले सुनो
गौहर जान की सीडी - मेरे हज़रत ने मदीने में मनाई होली…।"
"वाह भाई मज़ा आ गया" सबने एक स्वर में सीडी ख़त्म होने पर
भाव विभोर होकर कहा।
"लेकिन हज़रत? मदीना? होली?" मैंने फिर कुरेदा।
रुबीना भाभी ने बिना रुके अपनी सूफी शायरी की लय में अपनी
बात जारी रखी "बादशाह कम और शायर ज्यादा बहादुर शाह ज़फर ने
होरिया फाग में क्या खूब कहा - क्यों मोपे मारी रंग की
पिचकारी, देख कुंवर जी दूँगी गारी।"
अब हम सबको रुबीना भाभी के होली और सूफी के मिलाप में मज़ा
आने लगा था।
"अभी और सुनो जो इब्राहिम रसखान ने कहा।"
आज होरी रे मोहन होरी
कल हमरे आँगन गारी दे आयो सो कोरी
अब क्यों दूर बैठे मैय्या ढिंग, निकसो कुञ्ज बिहारी...
"तो फिर नौबत गारी से गोली तक कब आ पहुँची? देश के
गद्दारों को - गारी मारो ...." मैंने फिर अपनी छेड़छाड़ जारी
रखी।
"और रसखान ने कुञ्ज बिहारी को ऐसे ललकारा जैसे राम लीला
में बोलते हैं - बाली बाहर निकल..."
मैंने जैसे ही राम लीला की स्टाइल में डायलॉग बोला, एक जोर
का ठहाका गूँज उठा।
रुबीना भाभी ने मुस्कुरा कर अपनी बात आगे बढ़ाई "नज़ीर
अकबराबादी की - जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली
की, परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की,
मेहबूब नशे में धकते हों तब देख बहारें होली की...."
"और मीर तकी मीर ने फ़रमाया था - होली खेले आसफ़ुद्दौला
वज़ीर…"
"अभी तो बुल्ले शाह को सुनो"
नाम नबी का रतन चढ़ी
बून्द पड़ी अल्लाह अल्लाह…
"बून्द पड़ी अल्लाह अल्लाह? ये फिर होली मेंअल्लाह अल्लाह आ
गया?" मैंने सवालों की झड़ी लगा दी...
"ये कट्टरता तो हाल ही की उपज है। अतीत में सूफी और भक्ति
में दोनों समुदायों के बीच में हमेशा एका और मेलजोल रहा
है।" छगन भाई के चेहरे पर निराशा के भाव दिखाई दे रहे थे।
रुबीना ने आगे कहा "अमीर खुसरो का नाम तो भूल ही गई..."
खेलूंगी होली, ख्वाजा घर आए
धन धन भाग हमारे सजनी
ख्वाजा आए आँगन मेरे…
"आज रंग है री मन रंग है, अपने मेहबूब के घर रंग है री… -
अमीर खुसरो का ये कलाम भी सुनो।" एक बार हम सभी फिर इस
सूफी मधुर संगीत में खो गए।
कासिम भाई ने भी सुर में सुर मिलाया...
"भद्रा, अहमदाबाद ख़्वाजा अब्दुल समद रहमतुल्ला की मज़ार पर
लिखा है..."
ला-इलाहा की भरके पिचकारी
ख़्वाजा पिया ने मुँह पै मारी
श्याम की मैं तो गई बलिहारी
कैसा है मेरा पिया सुभान अल्लाह
होली खेलें पढ़ के बिस्मिल्लाह
ला-इलाहा-इल्लिल्लाह...
"अइसन का? – होली और बिस्मिल्लाह, ला-इलाहा-इल्लिल्लाह?"
मैंने फिर चुटकी ली।
नन्हा बालक मगन सब कुछ बहुत ध्यान से सुन रहा था। अचानक
उठा और अपनी मशीन गन वाली पिचकारी को फर्श पर जोर जोर से
पटक कर तोड़ने लगा। फिर हाथों में लाल पीला गुलाल उठा कर
जोर से हम सब पर फेंका और जोर से बोला "होली है..."
हम सब हतप्रभ रह गए लेकिन तुरंत सम्भले और मगन को पकड़ कर
सबने बहुत प्यार से गुलाल से रंग डाला।
लेकिन कहीं एक आशा की किरण जगी थी। शायद आने वाले समय में
कुछ और नन्हे मगन उठ खड़े होंगे। शायद इस देश में फिर से वो
ही सूफियाना दौर आएगा।
फिर एक लम्बी चुप्पी। हम सब गुमसुम थे। शायद मौन स्वीकृति।
भारी कदमों से हम अपने घरों को लौट चले।
फिर से कासिम मियाँ का जाम टकराने वाला मैसेज आया।
मैंने एक अंगूठे वाली स्माईली से जवाब भेजा "यक़ीनन"
फिर दोबारा लिखा। "यक़ीनन"
"खस्ता कचोरी मेरे जिम्मे"
"और हाँ भूल न जाना रुबीना भाभी के हाथ के गुझिये!!!"... |