समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है
भारत से
आशुतोष कुमार झा की कहानी
अविजित
जून
का महीना। तपती दोपहर। गर्मी का यह आलम था कि सड़क का अलकतरा पिघल गया
था। पैदल चलने वाले लोग पूर्णिया शहर को बीचो-बीच बाँटने वाले राष्ट्रीय
राजमार्ग से उतर कर किनारे-किनारे चल रहे थे ताकि उनके पैर पिघले अलकतरे
पर न पड़ें।
सड़क पर गुड़कते रिक्शा एवं साइकिल के पहिए
पिघले सड़क से चिपक रहे थे। तेज़ी से गुज़रते ट्रक एवं बस जैसे
बड़े वाहन अजीब-सी गंभीर आवाज़ कर रहे थे। चार पहिये वाली छोटी तथा बड़ी
सवारियों के अलावा इक्के-दुक्के रिक्शे, ऑटो-रिक्शे तथा धूप में झुलसते
साइकिल सवार नज़र आ जाते थे। सिवाय उनके मानो पूरा शहर वीरान पड़ा था।
चूँकि लाइन बाज़ार में जिला अस्पताल स्थित है तथा यहाँ
पूर्वोत्तर बिहार के अधिकांश नामी-गिरामी डॉक्टरों के क्लीनिक
भी हैं यहाँ बड़ी संख्या में मरीज़ एवं उनकी तीमारदारी
करनेवालों का तांता लगा ही रहता है। इस तेज़ गर्मी एवं
चिलचिलाती धूप से बचने के लिए ये लोग सड़क के किनारे, पेड़ों
के नीचे या फिर जहाँ-तहाँ दुकानों एवं क्लीनिकों के बरामदों
पर... आगे...
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सुभाष नीरव की
लघुकथा- धूप
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कल्पना रामानी की कलम से
''पंख
बिखरे रेत पर''
: धूप की विभिन्न छवियाँ
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डॉ. मृदुल शर्मा का निबंध
दहकती धूप की काव्य
छवियाँ
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घर परिवार में घर सुंदर
बनाने के
सुझाव- धूप से निखरे रूप |