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चैत मास का विशेष गीत चैती
शांति जैन
चैत की सुहानी
संध्या, शुभ्र चाँदनी और कोकिला के मादक स्वर का वर्णन
करते हुए महाकवि कालिदास 'ऋतुसंहार' में कहते हैं,
'चैत्र मास की वासंतिक सुषमा से परिपूर्ण लुभावनी
शामें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन,
मतवाले भौरों का गुंजार और रात में आसवपान- ये शृंगार
भाव को जगाए रखनेवाले रसायन ही हैं।'
वसंत का अवसान काल
चैत की रातों के साथ होता है, इसलिए शृंगार का सम्मोहन
बढ़ जाता है। यही कारण है कि चैत मास को 'मधुमास' की
सार्थक संज्ञा दी गई है।
संयोगियों के लिए चैत मास जितना सुखद है उतना ही दुखद
है विरह-व्याकुल प्राणियों के लिए।
चैत माह का महत्व
देखते हुए ही इस माह के लिए भारतीय लोक में एक विशेष
संगीत रचना हुई है जिसे चैती कहते हैं। चैती में
शृंगारिक रचनाओं को गाया जाता है। चैती के गीतों में संयोग एवं विप्रलंभ
दोनों भावों की सुंदर योजना मिलती हैं। यह महीना श्री
राम के जन्म का भी है। इसलिए चैती की हर पंक्ति के अंत
में रामा कहने की प्रथा है।
यह तो स्पष्ट है
कि वसंत में शृंगार भाव का प्राबल्य होने के कारण चैत
का महीना विरहिणियों के लिए बड़ा कठिन होता है। ऐसे
में अगर प्रिय की पाती भी आ जाए तो उसे थोड़ा चैन
मिले, क्यों कि चैत ऐसा उत्पाती महीना है जो
प्रिय-वियोग की पीड़ा को और भी बढ़ा देता है-
आयल चैत उतपतिया हो रामा,
ना भेजे पतिया।
कोई नायिका खेत में बैंगन तोड़ने जाती है और उसकी छाती
में काँटा गड़ जाता है-
बैगन तोड़े गैलों ओहो बैंगन बरिया,
गड़ि गेल छतिया में काँट हो राम।
इस गीत में काँटा गड़ जाने का तात्पर्य विरह व्यथा की
तीव्रता ही है।
कोई किशोरी वधू
देखते-देखते युवावस्था में प्रवेश कर जाती है, किंतु
चैत के महीने में उसका प्रिय नहीं लौटता, यह उसे बड़ा
क्लेश देता है-
चइत मास जोवना फुलायल हो रामा,
कि सैंयाँ नहिं आयल। प्रेमी जनों के लिए
उपद्रवी चैत के मादक महीने में प्रियतम नहीं आए तो बाद
में आना किस काम का? वस्तुतः यह मधुमास ही तो मिलन का
महीना है-
चैत बीति जयतइ हो रामा,
तब पिया की करे अयतई। विरहिणी अपने प्रियतम
को संदेश भेजती है- चैत मास में वन में टेसू फूल गए
हैं। भौंरें उसका रस ले रहे हैं। तुम मुझे यह दुःख
क्यों दे रहे हो. क्यों कि तुम्हारी प्रतीक्षा
करते-करते वियोगजनित दुःख से रोते हुए मैंने अपनी
आँखें गँवा दी हैं।
चैती गीतों में प्रेम
के विविध रूपों की व्यंजना हुई है। इनमें संयोग शृंगार
की कहानी भी रागों में लिखी हुई है। कहीं आलसी पति को
सूर्योदय के बाद सोने से जगाने का वर्णन है तो कहीं
पति-पत्नी के प्रणय-कलह की झाँकी देखने को मिलती है।
कहीं ननद और भावज के पनघट पर पानी भरते समय किसी
दुश्चरित्र पुरुष द्वारा छेड़खानी का उल्लेख है तो
कहीं सिर पर मटका रखकर दही बेचनेवाली ग्वालिनों से
कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। कहीं
कृष्ण-राधा के प्रेम-प्रसंग हैं तो कहीं राम-सीता का
आदर्श दांपत्य प्रेम है। कहीं दशरथनंदन के जन्म का
आनंदोत्सव है तो कहीं राम और उनके भाइयों का नैसर्गिक
प्रेम। कहीं स्वकीया तथा कहीं परकीया नायिका के प्रेम
के विविध रूप दिखाए गए हैं। तात्पर्य यह कि चैती गीतों
में विभिन्न कथानकों का समावेश पाया जाता है। इन गीतों
में वसंत की मस्ती एवं इंद्रधनुषी भावनाओं का अनोखा
सौंदर्य है। इनके भावों से छलकती रसमयता लोगों को
मंत्रमुग्ध कर देती है।
एक मुग्धा नायिका बाग
में फूल चुनने की कल्पना में विभोर है। वर एक ही फूल
के रंग में अपनी चुनरी और प्रिय की पगड़ी रंगाकर दोनों
के बीच एकरूपता लाना चाहती है-
कुसुमी लोढ़न हम जाएब हो रामा
राजा केर बगिया,
मोर चुनरिया सैंयाँ तोर पगड़िया
एकहि रंग रँगायब हो रामा।
यहाँ फूल कोमल भावों
के प्रतीक हैं। इसी प्रकार प्रियतम के साथ अखंड प्रेम
में डूबी एक स्त्री कोयल का स्वर सुनकर बहेलिए से
प्रार्थना करती है कि मेरी सुखनिद्रा में विघ्न
पहुँचानेवाली इस कोयल को मार डालो-
आहो रामा, गोड़ तोर लागेली बाबा के बहेलिया हो रामा,
बिरही कोइलिया मारि ले आऊ हो रामा।
एक चैती गीत में ननद
के आचरण पर आशंका व्यक्त करनेवाली भाभी की उक्ति है-
आहो रामा, हम तोसे
पूछेलीं ननदी सुलोचनी हो रामा
तोहरे पिठिया धूरिया कइसे लागल हो रामा
तोहरे पिठिया...
आहो रामा, बाबा के दुअरवा नाचेला नेटुअवा हो रामा
भितिया सटल धूरिया लागल हो रामा,
भितिया सटल।
आलसी पति को
जगाते-जगाते एक स्त्री जब हार जाती है तो वह ननद से
उसे जगाने की प्रार्थना करती है। ननद के अस्वीकार करने
पर वह कहती है कि तुम्हारे लिए तो भाई सो रहा है, पर
मेरे लिए उसका सो जाना सूरज-चाँद के अस्त हो जाने जैसा
है-
रामा तोरा लेखे ननदो भइया अलसइले हो रामा,
मोरा लेखे चान-सुरुज छपित भइले हो रामा,
मोरा लेखे।
चैत मास की हवा शरीर
को मीठे आलस्य से भर देती है। नींद और स्वप्न में डूबी
हुई एक नायिका सखी के जगाने पर खीझ उठती है-
सुतला में काहेला जगैलऽ हो रामा,
भोरे हो भोरे
रस के सपनमा में हलइ अँखियाँ डूबल,
अंग ही अंग अलसाए हो रामा,
भोरे ही भोरे।
एक चैती गीत में
पति-पत्नी के कलह का चित्रण है। पति रूठकर योगी हो
जाता है, तब पत्नी व्यग्र होकर आने-जानेवाले बटोहियों
से प्रियतम का पता पूछती है।
एक गीत में संयोग शृंगार का अप्रत्यक्ष वर्णन है-
एहि ठइयाँ झुलनी हेरानी हो रामा
एहि ठइयाँ
घरवा में खोजलीं, दुअरा पे खोजली
खोजि अइलीं सैंयाँ के सेजरिया हो रामा,
खोजि अइलीं।
कुछ चैती गीतों में
गहरी करुणा व्यंजित हुई है। राम को वन भेजे जाने के
कारण सारी अयोध्या नगरी कैकेयी को उपालंभ देती है-
रामजी के वनमा पेठौलऽ हो रामा,
कठिन तोरा जियरा।
मरियो न गेलइ केकइया निरदइया,
जारे मुख कठिन वचनमा हो रामा,
कठिन तोरा जियरा।
बंगाल प्रदेश
तंत्र-मंत्र के लिए प्रसिद्ध है। एक गीत के अनुसार,
आलसी पति को नींद से जगाने के लिए वह बंगालिन से मंत्र
देने को कहती है। बदले में वह उसे डलिया भर सोना देने
को तैयार है।
चैती गीतों में कहीं-कहीं भावनाओं का इतना प्रभावशाली
चित्रण हुआ है जो ह्रदय को छू जाता है। नदी के उस पार
कोई योनी धूनी रमाए है और इस पार कोई स्त्री सूर्य को
अर्घ्य दे रही है। दोनों की एक-दूसरे पर दृष्टि पड़ती
है तो जन्म-जन्म की प्रीति उमड़ आती है। वह योगी उस
स्त्री का पति ही था-
रामा ओही पार जोगिया धुनिया रमावे हो रामा,
एहि पारे, साँवरि सुरुज मनावे हो रामा,
एहि पारे।
रामा जोगिया के टूटेला जोगवा हो रामा,
साँवरो के जूटेला जनम सनेहिया हो रामा,
साँवरो के।
इन गीतों में दैनिक
जीवन के शाश्वत क्रियाकलापों का चित्रण है। साथ ही
इनमें चित्र-विचित्र कथा-प्रसंगों एवं भावों के
अतिरिक्त सामाजिक जीवन की कुरीतियाँ भी चित्रित हुई
हैं। एक चैती गीत में बाल-विवाह की विडंबना चित्रित
है-
राम छोटका बलमुआ बड़ा नीक लागे हो रामा
अँचरा ओढ़ाई सुलाइबि भरि कोरवा हो रामा
अँचरा ओढ़ाई।
रामा करवा फेरत पछुअवा गड़ि गइले हो रामा
सुसुकि-सुसुकि रोवे सिरहनवा हो रामा।
छोटी उम्र में कन्या
का विवाह और उधर व्यापार के लिए पति का विदेश गमन।
कन्या युवती हो गई, किंतु परदेशी प्रियतम नहीं लौटा।
देवर अबोध है। अपने मन का दर्द वह किसे बताए?
एक पत्नी के मना करने
पर भी पति बंगाल चला गया। संभवतः वहाँ किसी बंगालिन के
जादू में फँस गया। बारह वर्ष बीत गए। वह न लौटा, न कोई
संदेश भेजा। नायिका के साथ की सारी सखियाँ पुत्रवती हो
गईं, पर उसकी गोद सूनी है और इधर आ गया चंचल चैत। कैसे
दिन काटेगी वह?
रामा पूरुब देसवा में बसे बंगलिनिया हो रामा
हरि लीन्हे तोर मन सुरति देखाइ हो रामा,
रामा बारहो बरिस पर चिठियो न भेजे हो रामा
कइसे काटबि चइत दिन चंचल हो रामा।
एक चैती गीत में एक
कंजूस पति का उल्लेख है। नायिका नील के रंग में चुनरी
रंग रही है, ऐसे में उसे पसीना छूट गया। वह धीरे-धीरे
पंखा झलने लगी तो बाँह मुरक गई। वह अपने पति से
प्रार्थना करती है कि मेरे लिए पटना से वैद्य बुला दो।
साठ रुपए खर्च होने के डर से पति वैद्य को नहीं बुलाना
चाहता और पत्नी को मुसीबत समझने लगता है। पारंपारिक चैती गीतों
में शृंगार एवं देवता संबंधी पद मिलते हैं। कुछ नए
गीतकारों ने चैती में इन्हीं रसों का आश्रय लिया है,
किंतु उनका वर्ण्य विषय कहीं-कहीं भिन्न है। एक कवि ने
एक चैती गीत में नायिका के स्वप्न का वर्णन किया है-
वह सपना देखती है कि उसके पति आए हैं। उनके लिए वह
जलपान लाती है, बातचीत करती है, फिर पान खिलाती है।
प्रियतम उसके लिए साड़ी और कंगन लाए हैं और उसे ज्यों
ही गले लगाना चाहते हैं, उसकी नींद टूट जाती है-
सपना देखीला बलखनवाँ हो रामा,
कि सैंयाँ के अवनवाँ
पहिल ओहिल सैंयाँ अइले अंगनवाँ,
हम ले जाई जलपनवाँ हो रामा,
कि सैंयाँ के अवनवाँ।
एक अन्य गीत में सौत
के कष्ट से कुढ़नेवाली नायिका का चित्र मिलता है।
प्रियतम की झूठी प्रीत से निराश हो वह जोगिन बन जाना
चाहती है, प्राण दे देना चाहता है। एक गीत में ऐसा
वर्णन है कि कोई कन्या अपने पिता से प्रार्थना करती है
कि मुझे धान उपजानेवाले मुल्क में मत ब्याहना, क्यों कि
धान उबालते, सुखाते और गीला मांड-भात खाते मैं परेशान
हो जाऊँगी। कुछ चैती गीतों में
बड़ी कोमल कल्पनाएँ हैं। जूही का फूल हाथ पर रखते ही
कुम्हला जाता है-
हथवा धरत कुम्हला गइले रामा,
जूही के फुलवा
सब फूल फूलेला आधी-आधी रतिया,
जुहिया फूलेला आधी रतिया हो रामा,
जूही के फुलवा।
चैत की चाँदनी का
उल्लेख तो अनेक कवियों ने किया है। चैती गीत भी इसके
अपवाद नहीं हैं-
चाँदनी चितवा चुरावे हो रामा,
चैत के रतिया
मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोलै,
मधुर पवन अलसावे हो रामा,
चैत के रतिया।
कोई नायिका फूलों के
रंग में अपनी चुनरी रंगाना चाहती है, इसीलिए वह पति से
फूल रोपने का अनुरोध करती है-
सैंया मोरा रे कुसुमी बोअईहऽ हो रामा,
चंपा लगइह, चमेली लगइह,
खेतवनि कुसुम होअइह हो रामा।
चैत का महीना बहुत से
धार्मिक पर्वों एवं भावनाओं से जुड़ा है। रामनवमी के
दिन चैता गाने का एक विशेष उत्साह होता है, जो रामजन्म
एवं उनके जीवन की अन्य घटनाओं से संबद्ध रहता है। चैती
धुन में बोल लगाकर रामायण गाने की प्रथा भी इस अवसर पर
देखी जाती है-
रामा चढ़ले चइतवा राम जनमलें हो रामा,
घरे-घरे बाजेला अनंद बधइया हो रामा,
रामा दसरथ लुटावे अनधन-सोनवा हो रामा,
कैकयी लुटावे सोने के मुनरिया हो रामा।
कहीं-कहीं चैता गाने
के पूर्व उस स्थान के देवी-देवताओं का स्मरण किया जाता
है। फिर पृथ्वी को स्मरण करके कहा जाता है कि इसी
स्थान पर आज हम चैती गाएँगे-
राम सुमिरीले ठुइयाँ, सुमिरि मति भुइयाँ हो रामा
एही ठैंया, आजु चइति हम गाइबि हो रामा,
एहि ठैंया।
एक अन्य विनय संबंधी
चैता में आदि भवानी पार्वती से कंठ में मधुर स्वर देने
की प्रार्थना की गई है-
रामा पहिले मैं सुमिरों आदि भवानी हो रामा
कंठे सुरवा, होरवऽ होरवऽना सहइया हो रामा.
कंठे सुरवा।
राजा जनक ने कठिन
प्रण किया है कि जो शिव के धनुष को तोड़ेगा, उसी से वे
अपनी बेटी जानकी का विवाह करेंगे-
रामा राजा जनकजी कठिन प्रन ठाने हो रामा,
देसे-देसे लिखि-लिखि पतिया पठावे हो रामा।
किसी चैती गीत में
भगवान शंकर एवं पार्वती का सुंदर संवाद चित्रित है तो
कहीं शिवजी के तांडव नृत्य का वर्णन है-
भोला बाबा हे डमरू बजावे रामा
कि भोला बाबा हे,
भूत-पिशाच संग सब खेले
तांडव नाच दिखावे हे रामा।
कैसी चैती गीत में
भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप चित्रित हुआ है-
कान्हा चरावे धेनु गइया हो रामा,
जमुना किनरवा। चैती गीतों की रसमयता
ने संत कवियों को भी लुभाया है। इसीलिए कबीरदास जैसे
संतों ने भी चैती शैली में निर्गुण पदों की रचना की-
पिया से मिलन हम जाएब हो रामा,
अतलस लहंगा कुसुम रंग सारी
पहिर-पहिर गुन गाएब हो रामा।
इस तरह इन चैती गीतों
में लोक-मानस का समग्र रूप चित्रित हुआ है। जीवन के
हर्ष-विषाद, शृंगार-वियोग, भक्ति-आस्था आदि से इन
गीतों का सृजन हुआ है।
३१
मार्च २००८ |