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निबंध

दहकती धूप की काव्य-छवियाँ
डॉ. मृदुल शर्मा

 


ऋतुएँ हमारे जीवन को बहुत गहराई से प्रभावित करती हैं। अतः ऋतु-विषयक काव्य सृजन स्वाभाविक ही है। यहाँ उल्लेख हे कि षट्-ऋतुओं में बसंत, पावस और शरद ऋतु विषयक काव्य हमारे साहित्य में बहुतायत में मिलता है शिशिर, हेमंत और ग्रीष्म पर अपेक्षाकृत कम काव्य-सृजन हुआ है। यों भी वसंत सर्वाधिक मादक और मनभावन ऋतु है। इसके सापेक्ष पावस, शरद, शिशिर, ग्रीष्म और हेमंत ऋतुएँ क्रमवार मानव-मन को आकृष्ट करने की क्षमता से परिपूर्ण प्रतीत होती है। हमारे प्राचीन कवियों ने षड-ऋतु वर्णन और बारहमासा लिखकर कविता प्रेमियों को अपने-अपने ढंग से रसाभिसिक्त किया है। विभिन्न ऋतुओं पर अलग-अलग भी काव्य-सृजन बहुतायत में हुआ है और अद्यतन हो रहा है। वसंत-वर्णन में तो कवि की लेखनी स्वयमेव गतिमान दिखाई देती है। पावस पर भी हिंदी काव्य में अत्यंत सरस रचनाओं का सृजन हुआ है। शरद की चाँदनी और शिशिर की भोर के कहने ही क्या? इन विषयों पर बड़ी जानदार और रससिक्त रचनायें हमारे साहित्य-सागर में उपलब्ध हैं।

संभवत हेमंत और ग्रीष्म दो ऐसी ऋतुएँ हैं जिनमें अन्य ऋतुओं की अपेक्षा कम काव्य-सृष्टि हुई है। किंतु इन ऋतुओं पर भी प्रातिभ कवियों ने बड़े मनोहारी काव्य-दृश्य उपस्थित किए हैं-
कहलाने एकत बसत अहि-मयूर, मृग-वाघ।
जगत तपोवन सो कियो, दीरघ दाघ निदाघ।। - बिहारी

गर्मी की भयावहता का भरपूर वर्णन और वह भी इतने कम शब्दों में विरल ही है। ऐसा मनमोहक और प्रभातपूर्ण वर्णन बिहारी जैसे महाकवि द्वारा ही संभव है। रीतिकाल के ही एक अन्य सिद्ध कवि ने गर्मी की भीषणता का वर्णन करते हुए हवा के न चलने का अद्भुत कारण अपनी कल्पना शक्ति से खोज निकाला है-
मैरी जान मौनी सीरी ठौर को पकरि कौनौ
घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवति है।। - सेनापति

ऐसी कड़ी धूप, जिसे पवन भी बर्दाश्त न कर सके और कहीं छाया में बैठ धूप के जाने की प्रतीक्षा करे, उसका ताप किसे बेहाल नहीं कर देगा? प्राचीन काल के कवियों के समान ही वर्तमान काल के कवियों ने भी अपने-अपने ढंग से ग्रीष्म की विभीषिका का चित्रण किया है-
चाबूक लू लपटों की चला रहा ग्रीष्म थपेडों के मारता कोड़े।
सोख लिए नद-नाले सभी, गढ़ई-गढ़े पोखर-ताल न छोड़े।। - सरस कपूर

तथा

ताप का उत्ताप नख-शिख व्याप्त होता जब,
चिंतन-विचार क्रम भग्न कर देता है।
मौत से भी अधिक भयावह ये आतप जो,
जीवन उमंग से विपन्न कर देता है।। - कृष्ण मुरारी 'विकल'

दाह के कटाह में निमग्न इस भीषण ग्रीष्म में संपूर्ण पृथ्वी तप्त तवे के समान प्रतीत होती है
उठत लपाके खूब झोंकन बयारि डोले,
विहग समाज बन बीच में पियासो है।
दुपहर बीच मारतंड की प्रचंडता सों
देखो 'हरि' भूतल ये तपत तवा सो है।। - हरनारायण दीक्षित 'हरि'

कुछ इसी प्रकार ग्रीष्म-चित्रण बद्री प्रसाद पाल जी ने भी किया है-
आँवा सी अवनी तैसै लावा सो बिछौना भयो,
चंदन उसीर घनसार ताप ताए देत।
शेष फुफकार लौ लगत बात, जारै गात,
वारि परै मानौ तप्त तेल ढरकाए देत।। - बद्री प्रसाद 'पाल'

श्री अशोक कुमार पांडेय 'अशोक' की अभिनव कल्पना भी दृष्टव्य है-
मृग-मृगराज हाँफते है सिमटी है छाँव,
चूनर तरंगिणी की तार-तार हो गई।
भस्म हुआ देख ऋतुनायक सहायक को
कूद अग्नि कुंड में बहार क्षार हो गई।।

उफ! यह गर्मी तो स्नेह-संबंधों पर भी भारी पड़ रही है-
'शेखर' कहाँ लौ कहौ करनी कठिन तेरी,
मोह को, भया को महा प्रेम-तार तूरी तै।
कीन्हो है बिलग माँ सों पूत, पतिनी सों पति,
नीरस निठुर ऐसो ग्रीषम गरूरी तै।। - शेखर भट्टाचार्य

अब गर्मी को जो कवि जैसे अनुभव करेगा वैसे ही तो उसे अभिव्यक्त भी करेगा। पहाड़ के कवि को मारतंड की प्रचंडता का भान कहाँ? उसे तो रवि मक्खन के गोले जैसा ही लगेगा-
हँसता निदाघ रवि अंबर में
माखन के कंदुक सा उज्ज्वल
हिम वाष्पों का मृदु पट बुनती
सुर धनु वितरित किरणें शीतल।। - पंत

और यदि मैदान में रह कर भी ग्रीष्म के दारुण ताप से स्वयं को बचाना है तो उसके पीछे-पीछे चलने में ही कुशल है-
तूती उसकी बोलती जो गर्मी के साथ।
मीठा खरबूजा हुआ, खिन्नी हुई सनाथ।
कह भुशुंडि भन्नाय सुधा रस्सी से चूती
कुलफी है मुँह लगी, बोलती उसकी तूती।। - शारदा प्रसाद 'भुशुंडि'

इधर नई कविता के समक्ष टिके रहने के लिए छंदकारों, विशेष रूप से गीतकारों और दोहाकारों ने अपनी अभिव्यक्ति की नए-नए अंदाज़ देकर अपने काव्य की रुचिकर बनाने का सफर प्रयास किया है-
गिरवी है नथ गंध की बंदी है मकरंद।
उपवन में है इन दिनों सिर्फ़ शूल स्वच्छंद।। - शिव ओम 'अंबर'

नवगीतकार उत्तप्त मौसम में पागल साँड का अक्स देखता है-
आज मौसम साँड सा पागल हुआ है।
लाल आँखें, गर्म साँसे छोड़ता है।
बैठ कर काँधे, हवा के दौड़ता है।
जल रहा धू! धू!, जले जैसे धुआँ है।। - दिवाकर वर्मा

ग्रीष्म-जन्य बेचैनी का यह अंदाज़े-बयाँ भी काबिले-गौर है-
बँटवारे हो रहे धूप में छाँव के।
प्यास जी रहे कुएँ हमारे गाँव के।। - यश मालवीय

यह गर्मी, जिससे सारा जग बेहाल है, वह किसी-किसी को रास भी तो आ रही है-
बेहया फूले फले है, धैर्य-धन के दिन फिरे हैं
और कौओं को पके है आम।
जंगलों से छाँह भागी, ज़िंदगी हो गई बागी
एक वट का वृक्ष-चारों धाम।।

कल्पना की यह अभिनव उड़ान भी दृष्टव्य है-
दोपहरी लौट रही।
धूप की कड़ाही में दिन को फिर औट रही।
गर्मी ने खेतों के तन दिए उधार
कोंच रही तन-मन को लू भरी बयार
कुइयाँ का उतर गया पानी, क्या खोट रही।। - बृजनाथ श्रीवास्तव

अब पानी ऐसे ही तो उतरता नहीं। ज़रूर कोई न कोई खोट होती है, तभी किसी का पानी उतरता है।

साधन-सुलभता के कारण नगरीय जीवन ग्रीष्म के दारुण ताप से अधिक प्रभावित नहीं होता। किंतु कभी-कभी जब व्यवस्था दाँव दे जाती है तो स्थिति कुछ यों बनती है-
बिना चले ही, गर्म रेत पर चलने का अहसास।
बंद हवा, बिजली का संकट, यत्न हुए सब फेल।
मौसम और प्रशासन अपने दिखा रहे है खेल।
बिना सूचना, नल का पानी, मना रहा अवकाश।। - नरेंद्र कुमार विजय

गर्मी का चित्र खींचते-खींचते कवि कहाँ-कहाँ तक हमें ले जाता है-
सूर्य खुद अन्याय पर होता उतारू जब
चाँद तक से आग की लपटें निकलती।
चिनगियों का डर समूचे गाँव को डसता
खौलते जल में बिचारी मछलियाँ मरती। - बुद्धि नाथ मिश्र

यह भी ध्रुव-सत्य जैसा ही है कि जहाँ-जहाँ तन, कमज़ोर पड़ता है, वहाँ-वहाँ मन की ताकत ही परिस्थितियों से जूझने में काम आती है-
हर यात्रा खो गई तपन में
सड़कें काया हीन हो गई।
बस्ती-बस्ती लू से झुलसी
गलियाँ सब गमगीन हो गईं। - राधे श्याम बंधु

इस दहकती धूप में भी अमलतास के बहाने कवि की स्वर्ण-पंखी कल्पना अपने नन्हें-नन्हें पंखों से असीम आकाश बाँधती दिखाई देती हैं-
खिली सुनहरी सुबह ग्रीष्म की
बिखरे दाने धूप के।
कंचन पीकर मचले बेसुध, अमलतास के गात।
ओस हो गई पानी-पानी, जब तक समझे बात।
रही बाँचती कुल अभियोजन, अनजाने प्रारूप के।। - निर्मल शुक्ल

एक और मनोहारी दृश्य उपस्थित करते हुए नीलम श्रीवास्तव जी गुलमोहर के अप्रतिम सौंदर्य पर रीझते हुए कहते हैं-
यह समारोह सौंदर्य का, एक आभा घिरी मोहिनी,
दाह के पल पिघलने लगे, बह चली एक मंदाकिनी,
ज़िंदगी में कठिन ताप सह, दर्द में भी जिएँ किस तरह,
ये सिखाने लगा गुलमुहर, मन लुभाने लगा गुलमुहर। - नीलम श्रीवास्तव

ऐसे ही और न जाने कितने ही उदाहरण एकत्र किए जा सकते हैं जो यह सिद्ध कर सकें कि एक ही दृश्य को देख कर भिन्न-भिन्न मानस-पटलों पर भिन्न-भिन्न छवियाँ बनती हैं और उनकी अभिव्यक्ति का ढंग भी एक दूसरे से नितांत भिन्न होता है। जिसके मन में रसोदेक होता है वह कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में और किसी को भी रसाभिसिक्त कर सकता है, फिर चाहे वह ज्येष्ठ मास के प्रचंड मार्तंड से उत्तप्त अंतहीन मरुथल ही क्यों न हो।

एक बात और कविता की 'केमिस्ट्री' में विभिन्न रसायनों की स्वाभाविक क्रिया-प्रक्रिया को 'नवीनता', अनुपम गति प्रदान करती है। अतः कल्पना और अभिव्यक्ति में भी 'नवता' के प्रति जो जितना अधिक सचेष्ट रहेगा, उस काव्य का रस कलश उतना ही अधिक समृद्ध होगा, जैसा कि उपरोक्त उदाहरणों से भी स्वतः स्पष्ट है।

२ जून २००८

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