इस
सप्ताह
समकालीन कहानियों में भारत से
दीपक शर्मा की कहानी
रेडियोवाली मेज़
'रेडियो
वाली मेज़ कहाँ गई?'' गेट से मैं सीधी बाबू जी के कमरे में दाखिल हुई
थी।
माँ के बाद अपने मायके जाने का वह मेरा पहला अवसर था।
''वह चली गई है,'' माँ की कुर्सी पर बैठ कर बाबू जी फफक कर रो पड़े।
अपने दोनों हाथों से अपनी दोनों आँखों को अलग-अलग ढाँप कर।
''सही नहीं हुआ क्या? तीन महीने पहले हुई माँ की मृत्यु के समय मेरे
विलाप करने पर बाबू जी ही ने मुझे ढाढ़स बँधाया था, ''विद्यावती की
तकलीफ़ अब अपने असीम आयाम पर पहुँच रही थी। उसके चले जाने में ही
उसकी भलाई थी..?''
''नहीं।'' बाबू जी अपनी गरदन झुका कर बच्चों की तरह सिसकने लगे,
''हमारी कोशिश अधूरी रही...'' ''आपकी कोशिश तो पूरी थी।'' पिछले बारह
सालों से चली आ रही माँ के जोड़ों की सूजन और पीड़ा को डेढ़ साल पहले
डॉक्टरों ने 'सिनोवियल सारकोमा' का नाम दिया था।
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राजेन्द्र त्यागी की व्यंग्य-कथा
सत्ता सुखोपभोग करो मंदोदरी
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डॉ. नरेन्द्र कोहली का दृष्टिकोण
अभागा कौन
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डॉ. सुधा पांडेय की कलम से पर्व परिचय
विजयदशमी और नवरात्र
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विजयदशमी के अवसर पर
विशेष
दशहरा विशेषांक समग्र
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पिछले सप्ताह
मथुरा कलौनी का व्यंग्य
टोपी की महिमा
महानगर की कहानियों के अंतर्गत
सुकेश साहनी की लघुकथा दाहिना हाथ
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दीपिका जोशी
'संध्या' का
दृष्टिकोण
सही विचारना ही नहीं, व्यक्त
करना भी ज़रूरी है
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रवीन्द्र त्रिपाठी
की रंग चर्चा
हिंदी नाटकों में परिवार
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गौरव गाथा में- ईद के अवसर पर
प्रेमचंद की लोकप्रिय कहानी
ईदगाह
रमजान
के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना
प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है,
आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना
शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल
है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं
है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते
कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है।
जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर
हो जाएगी। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है,
वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके
हिस्से की चीज है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद
है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। |
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अनुभूति में-
दशहरे अवसर पर विशेष रचनाओं के साथ माहेश्वर
तिवारी, महावीर शर्मा,
तस्लीम
अहमद
और डॉ. वेदज्ञ आर्य
की रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
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आज वे दिन याद आ गए जब दादी माँ पुराने
कपड़ों के कई तहों वाले सुंदर थैले हाथ से चलने वाली मशीन से सिया
करती थीं। पुरानी पतलूनों के थैले, हल्के और गहरे दो रंगों की
पट्टियों या चौख़ानों वाले। कलात्मक और सुंदर इन थैलों का प्रयोग
किराने और सब्ज़ी लाने के लिए होता था। काम के बाद इन्हें रसोई के
दरवाज़े के पीछे बनी खूँटियों पर लटका दिया जाता था। मैले हो जाने पर
वे धुल सूखकर फिर से वहीं पहुँच जाते। ज़रूर कुछ थैले काफी सुंदर
बनाए जाते थे जिनका प्रयोग शादियों या उत्सवों में होता था पर इनके
बारे में फिर कभी। मुझे जहाँ तक याद पड़ता है सब्ज़ी वाले थैले का
प्रयोग १९७०-८० के बीच बंद होने लगा। प्लास्टिक की रंग बिरंगी टोकरी में सब्ज़ी
आने लगी। फिर तो टोकरी भी बंद हो गई और प्लास्टिक के थैलों को विकास
का क्रम समझ कर हम सुविधा के गुलाम होते चले गए। यह सब अचानक इसलिए
याद आया कि इस सप्ताह गल्फ़ न्यूज़ नाम के स्थानीय समाचार पत्र ने रंगीन
छपाई वाले जूट के
दो सुंदर थैले मुफ्त भेजे हैं। समाचार पत्र का
संदेश है- गो ग्रीन। यानी प्लास्टिक के थैलों का प्रयोग मत करो। बार
बार इन्हें ही इस्तेमाल में लाओ। मैंने सालों बाद, पहले की तरह
उन्हें रसोई के दरवाज़े के पीछे लटका दिया है। खुशी की बात यह है कि
ये थैले गल्फ़ न्यूज़ के लिए भारत में उगाए गए जूट से भारत से बनकर
आए हैं।
--पूर्णिमा वर्मन
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क्या
आप जानते हैं?
कि मुग़ल उद्यान, दिल्ली में अकेले गुलाब की ही २५० से अधिक
प्रजातियाँ हैं। |
सप्ताह का विचार- पहले
हर अच्छी बात का मज़ाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और फिर
उसे स्वीकार कर लिया जाता है। - स्वामी विवेकानंद |
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