इस
सप्ताह-
समकालीन कहानियों में
तेजेंद्र शर्मा की कहानी
मलबे की मालकिन
समीर
ने यह क्या कह दिया!
एक ज़लज़ला, एक तूफ़ान मेरे दिलो-दिमाग़ को
लस्त-पस्त कर गया है। मेरे पूरे जीवन की तपस्या जैसे एक क्षण में भंग
हो गई है। एक सूखे पत्ते की तरह धराशाई होकर बिखर गई हूँ मैं। क्या
समीर मेरे जीवन के लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि उसके एक वाक्य
ने मेरे पूरे जीवन को खंडित कर दिया है?
फिर मेरा जीवन सिर्फ़ मेरा तो नहीं है। नीलिमा, मेरे जीवन का एक
महत्वपूर्ण हिस्सा है। नीलिमा को अलग करके, मैं अपने जीवन के बारे
में सोच भी कैसे सकती हूँ? नीलिमा का जन्म ही तो मेरे वर्तमान का
सबसे अहम कारण है। उससे पहले तो मैं अत्याचार सहने की आदी-सी हो गई
थी। नीलिमा ने ही तो मुझे एक नई शक्ति दी थी। मुझे अहसास करवाया था
कि मैं भी एक जीती जागती औरत हूँ, कोई राह में पड़ा पत्थर नहीं कि
इधर से उधर ठोकरें खाती फिरूँ।
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हास्य व्यंग्य में गुरमीत बेदी की
गुहार
ये टैक्स भी लगाओ
ना
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पर्व परिचय में दीपिका जोशी संध्या का
आलेख
अक्षय तृतीया
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बच्चों की फुलवारी में नई खोज कथा
अफ्रीका की खोज
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मातृ-दिवस के अवसर पर शुभकामना संदेश
नमन में मन
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हास्य व्यंग्य में अविनाश वाचस्पति बना रहे हैं
श्मशान घाट का इंडेक्स यमराज के हवाले
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ज़किया ज़ुबैरी का संस्मरण
दो बैलों की जोड़ी
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आज सिरहाने रूपसिंह चंदेल का उपन्यास
शहर गवाह है
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संस्कृति में नवीन नौटियाल का आलेख
चाय की ऐतिहासिक यात्रा
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समकालीन कहानियों में
सुभाष नीरव की लंबी कहानी
साँप
गाँव
में जिस लक्खा सिंह के चर्चे हो रहे थे, वह बिशन सिंह तरखान का
इकलौता बेटा था। जब पढ़ने-लिखने में उसका मन न लगा और दूसरी जमात के
बाद उसने स्कूल जाना छोड़ गाँव के बच्चों के संग इधर-उधर आवारागर्दी
करना शुरू कर दिया, तो बाप ने उसे अपने साथ काम में लगा लिया।
दस-बारह साल की उम्र में ही वह आरी-रंदा चलाने में निपुण हो गया था।
गाँव में खाते-पीते और ऊँची जात के छह-सात घर ही थे मुश्किल से, बाकी
सभी उस जैसे गरीब, खेतों में मजूरी करने वाले और जैसे-तैसे पेट पालने
वाले! बिशन सिंह इन्हीं लोगों का छोटा-मोटा काम करता रहता। कभी किसी
की चारपाई ठीक कर दी, कभी किसी के दरवाजे-खिड़की की चौखट बना दी।
किसी की मथानी टूट जाती- ले भई बिशने, ठीक कर दे। किसी की चारपाई का
पाया या बाही टूट जाती तो बिशन सिंह को याद किया जाता और वह तुरंत
अपनी औज़ार-पेटी उठाकर हाज़िर हो जाता। |
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अनुभूति में-
संकलन ममतामयी के साथ आकांक्षा यादव, कुमार लव,
शार्दूला और पुष्पा कुमार की नई
रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
पिछले दो सालों से अभिव्यक्ति-अनुभूति
के खाते में ई-मेलों का ढेर है। औसतन एक हज़ार ईमेल रोज़ आते हैं।
कुछ में रचनाएँ होती हैं, कुछ में प्रश्न होते हैं अधिकतर लेखन से
संबंधित। आजकल वेब पर हिंदी लिखने के शौकीनों के ६-६ ब्लॉग हैं और
इनके सैकड़ों लिंक रोज़ ईमेल में प्राप्त होते हैं। समाचार और
विज्ञापन तो होते ही हैं। इस भीड़ को टीम विषयानुसार छाँटती है, छाँटने के बाद रचनाएँ पढ़ने और उनको आने वाले पर्वों, तिथियों और
विशेषांकों के अनुसार अलग-अलग फ़ोल्डरों में रखने व अस्वीकृत रचनाओं
को हटाने का काम होता है। कुछ ईमेलों में अनुरोध होता है कि रचना को
कैसे सुधारा जाय या रचना क्यों अस्वीकृत हुई इसके विषय में टिप्पणी
की जाय। लेकिन इन पत्रों के उत्तर देने का समय आने से पहले अगले दिन
का नया काम सामने आ खड़ा होता है। लेखक को इससे कितनी पीड़ा हो सकती
है इसका आभास पिछले दिनों वेब पर एक साक्षात्कार सुनते समय हुआ और
लगा कि इस विषय में विस्तार से चर्चा होना ज़रूरी है। क्या लिखा जाय,
क्यों लिखा जाय, कब लिखा जाय, कैसे भेजा जाय कि रचना अस्वीकृत न हो
इस पर एक लेख-माला १९ मई से प्रारंभ कर रहे हैं। आशा है यह श्रम लेखक
और संपादक के बीच बेहतर संवाद में सफल रहेगा। --पूर्णिमा वर्मन (टीम
अभिव्यक्ति)
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सप्ताह का विचार
व्यक्ति की हर समय परीक्षा होती
रहती है और जो कसौटी पर खरे उतरते हैं, विजयश्री उन्हीं के हाथ
लगती है।
-हरिभाऊ |
क्या
आप जानते हैं?
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संयुक्त
अरब
इमारात की जनसंख्या
नागरिकों का प्रतिशत 85 है, जिनमें 40 प्रतिशत लोग भारतीय हैं। |
में
प्रवासी |
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