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चाय की ऐतिहासिक यात्रा
-नवीन नौटियाल

मनुष्य के पेय और खाद्य पदार्थों में जितनी रहस्यपूर्ण, लोकप्रिय और सर्वव्यापी चाय है, उतनी और कोई वस्तु नहीं। विश्व के सभी देशों ने आज चाय को अपना लिया है। सबसे बड़ा सम्मान चाय का जापान में होता है। वहाँ के सामाजिक जीवन में चाय को उच्च पद दिया गया है। जापान में चाय बनाने व पीने और पिलाने का कमरा अलग होता है। उस कमरे को वे 'चा-सेकी' कहते हैं और चाय पीने-पिलाने की विधि अथवा व्यवस्था को वे 'चा-यो-नू' कहते हैं। इसका अर्थ होता है 'चाय का गरम पानी', यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि जैसे हिंदू मूर्तिपूजक हैं, वैसे ही जापानी चाय उपासक।

जापान का प्रथम स्थान
जापानियों के बाद चाय पीनेवालों की संख्या तिब्बतियों में अधिक पाई जाती हैं। भारत में आने पर कप-प्लेट में उंडेलकर चाय पीना भले ही आज तिब्बती सीख गए हैं, लेकिन इनका पारंपरिक ढंग अलग विशेषता लिए हुए है। तिब्बती दिनभर और खाने के साथ चाय के कई प्याले पीते हैं। चाय में मक्खन व नमक डालते हैं और यह खूब गाढ़ी होती है। उसमें सत्तू घुलता है। भारत में शरण लेने से पूर्व, तिब्बत में अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सब अपना-अपना चाय का प्याला साथ लिए घूमते थे। वह उनके अपने चोगे की उलझन में रखा रहता था। जिस किसी तिब्बती के घर पर, चाहे किसी भी समय अतिथि पहुँचता था, चाय का समाचार आ पहुँचता था। अपनी जेब से अतिथि ने लकड़ी का बना हुआ प्याला निकाला, उसमें चाय डाली गई। चाय पीकर, जीभ से चाट पोंछकर, प्याला फिर अपने निर्दिष्ट स्थान पर रख दिया जाता था।

सन १९५० तक भारत में चाय का प्रचलन था, परंतु इतना नहीं, जितना कि आज है। आज तो बात-बात पर चाय पीने पर, कहावत तक बन गई है कि चाय पीने और झूठ बोलने का कोई समय नहीं होता। सन पचास से पहले तिब्बत के बाद चाय पीने-पिलाने में इंग्लैंड का नंबर था। वहाँ सब बातें बाक़ायदा और किसी न किसी विशेष उद्देश्य से की जाती हैं। इंग्लैंड में चाय निश्चित समय पर पी जाती है। चाय के साथ समयानुकूल रोटी, सैंडविच, टोस्ट, मिठाइयाँ व केक खाए जाते हैं। चाय पीते समय समाज, राजनीति, धर्म, साहित्य और शिल्पकला इत्यादि विविध विषयों के साथ चाय के समय, एक पंथ सौ काज होते हैं। अब तो घरों में और प्राइवेट पार्टियों में चाय के बाद डांस भी होने लगे हैं।

इंग्लैंड में चाय को राजनीतिक और सामाजिक जीवन में एक विशेष स्थान मिल गया है। अमीर और मध्यम श्रेणी के अंग्रेज़ों के यहाँ एक विशेष दिन, साधारणतया इतवार को, चाय के समय नवागंतुक तथा अन्य पड़ोसी, जो उनसे मिलना चाहें बिना बुलाए ही, कौल करने अर्थात उनसे मिलने आते हैं। उस दिन मेजबान, मिलनेवालों के लिए 'एट होम' अर्थात घर पर होते हैं। इस सामाजिक 'कौल-प्रथा' का विशेष रिवाज इंग्लैंड के प्राचीन विश्वविद्यालयों, ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज में हैं। वहाँ इतवार के दिन यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी बिना बुलाए अपने-अपने विवाहित प्रोफ़ेसर व टयूटरों के घर पर चाय के समय बिना निमंत्रण के ही उन्हें मिलने प्रत्येक टर्न में कम से कम एक बार अवश्य जाते हैं।

दंतकथा और लोकोक्ति तो यह है कि चाय का आविष्कार पहले पहल चीन में हुआ। वहाँ के एक सम्राट ने, जिसका नाम 'शेन-नुं ग' था, ईसा से २७३७ वर्ष पहले चाय को चीन में खाद्य-पदार्थों में स्थान प्रदान किया। परंतु वास्तव में असली बात तो यह है कि सन ५४३ ईसवी में 'बोधी धर्म' नामक एक भारतीय परिव्राजक, बौद्ध धर्म प्रचारक, चीन में गया। उसने प्रण किया था कि वह नौ वर्ष रात-दिन, बिना सोए, निरंतर चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार करेगा। वह नींद रोकने के लिए चाय पिया करता था। वह भारतवर्ष से अपने साथ चाय की पत्ती ले गया था। चीनवालों ने बौद्ध भिक्षु को ध्यान में बैठने से पहले चाय की पत्तियाँ उबालकर पीते देखा तो बौद्ध धर्म के साथ-साथ चाय को भी अपना लिया। उन्होंने चाय को धर्म का एक अंग अथवा क्रिया मान लिया। इस तरह चाय चीन में पहुँची और वहाँ उसका प्रादुर्भाव हुआ। फिर वहाँ से क्रमश: जापान के द्वारा पाश्चात्य देशों में पहुँची।

चाय का प्रचार-धर्म प्रचारक द्वारा
यह बात बिलकुल सही मालूम होती है कि छठी सदी में चीन में चाय का प्रचार एक बौद्ध धर्म-प्रचारक, भारती बौद्ध-धर्मावलंबी, के द्वारा हुआ। चीन में इस ऐतिहासिक घटना के आधार पर एक दंतकथा प्रचलित है - 'धर्म नाम का एक राजकुमार भारत से चीन में गया। वह रात-दिन ध्यान में लीन रहता था। एक दिन उसको योग-साधना के दौरान नींद आ गई। उसने गुस्से में आकर अपनी पलकों को काटकर फेंक दिया। उनसे एक पौधा उत्पन्न हुआ। राजकुमार धर्म ने उसकी पत्तियों को इकठ्ठा कर सुखाया, उन्हें उबालकर उनका अर्क पी लिया। उससे उसे नींद न आई। वह बौद्ध धर्म के ध्यान में लीन हो गया। तब से चीन में चाय का प्रचलन हो गया।

चाय का पौधा उन्नीसवीं सदी तक भारतवर्ष के जंगलों में अपने आप पैदा होता था। सन १८२० ई. में आसाम के सबसे पहले अंग्रेज़ शासक, कमिश्नर डेविड स्कट साहब, को कूचविहार और रंगपुर प्रांतों में चाय के पौधे मिले। आसाम के निवासी उनकी पत्तियों को सुखाने के बाद उबालकर पीते थे। भारतवर्ष के गवर्नर विलियम बेंटिक ने आसाम की भूमि को चाय की खेती के लिए उपयुक्त मानकर वहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से चाय के बाग लगवाए। तब से आसाम में चाय की खेती विधिपूर्वक होने लगी और यहीं से चाय के व्यापार का श्रीगणेश हुआ।

चाय का जन्म-स्थान भारत
अत: चाय की जन्मभूमि निःसंदेह भारत ही है। यहाँ से चाय पहले पहल चीन में पहुँ ची। वहाँ से जापान और जापान से इंग्लैंड। जापान से पहले पहल चाय को इंग्लैंड लानेवाला व्यक्ति 'विखम' है। उसने २७ जून, सन १६१५ के अपने एक पत्र में लिखा है कि उसने सर्वप्रथम चाय जापान से मँगाई थी।

अब तक की ऐतिहासिक खोज से यही पता लगता है कि चाय का प्रयोग इंग्लैंड में सत्रहवीं शताब्दी में आरंभ हुआ। उससे पहले विलायत में चाय की शक्ल भी किसी ने न देखी थी। जब वहाँ चाय का प्रचार होने लगा तो प्रारंभ में चाय जावा से इंग्लैंड आने लगी। किंतु जब जावा द्वीप से डच लोगों ने अंग्रेजों को बेदखल कर दिया और भारत पर तिजारत के द्वारा उनका बोलबाला होने लगा, तब अंग्रेज़ सौदागर चाय को भारत से इंग्लैंड लाने लगे। तब भारत में चाय चीन से आती थी, क्यों कि भारतवर्ष चाय का जन्मस्थान होने पर भी यहाँ के निवासी चाय की खेती नहीं करते थे। हाँ , आसाम के निवासी जंगली चाय की पत्ती उबालकर उसे पीते थे। शुरू में भारतवर्ष से २५० मन चाय प्रतिवर्ष विलायत जाती थी। उस समय इंग्लैंड में चाय की कीमत १४४ रुप ए प्रति सेर से २४० रुप ए प्रति सेर तक थी और १७वीं सदी के अंत तक ही उसका भाव गिरकर १२ रुप ए सेर हो गया था।

धीरे-धीरे चाय की तारीफ़ व विज्ञापन छपने लगे। एक कवि, वालर (१६०६-१६८७) ने चाय की तारीफ़ में एक कविता लिखी। उसमें उसने चाय को वनस्पतियों की महारानी का ख़िताब दिया। चाय का प्रचार करने और प्रयोग बढ़ाने के लिए अथवा उसे लोकप्रिय बनाने के लिए चाय के सौदागर और होटलवाले मनोरंजक तथा चित्ताकर्षक विज्ञापन अख़बारों में छपने लगे। सितंबर १६५८ की पत्रिका 'मरक्यूरियस पालिटिक्स' में यह विज्ञापन छपा था - 'वह अपूर्व वस्तु', चीनी अर्क, चायना ड्रिंक, जिसको चीनी चा कहते हैं और अन्य प्रदेशों के लोग 'टे' या 'टी' कहते हैं और जिसकी प्रशंसा वैद्य जन मुक्तकंठ से करते हैं, वह लंदन रायल एक्सचेंज के समीप सुल्तानेस हेड नाम के कॉफी-घर की इमारत में बिकती हैं।' सबसे पहले एक अंग् रेज‍़ व्यापारी ने सन १६६० में चाय की तारीफ़ में छपवाया - 'चाय के बहुमूल्य पदार्थ होने का सबूत यह है कि वह केवल बड़ी बीमारियों के इलाज में ही काम में नहीं आती, वरन उसका प्रयोग बड़े-बड़े भोजों में भी होता है। वह शहज़ादों व अमीरों को भेंट स्वरूप दी जाती है।'

कहा जाता है कि इंग्लैंड की महारानी कैथरीन ने पहले-पहल चाय को राजप्रासाद में आश्रय दिया था। उस समय चाय इतनी दुष्प्राप्य वस्तु मानी जाती थी कि उसके असाधारण वस्तु होने की वजह से इंग्लैंड के विख्यात साहित्यिक 'पेपी' (१६३२-१७०३) ने अपनी २५ सितंबर १६६६ की दिनचर्या में बड़े गौरव के साथ लिखा कि उस दिन उसने एक प्याला चाय का पहले-पहल मँ गवाकर पिया।

चाय को तलकर खाना
जब पहले-पहल चाय इंग्लैंड में आई, उस समय चाय पीने का तरीका आज के तरीके से भिन्न था। आरंभ में कोई तो चाय की पत्तियों को उबालकर, रंगीन पानी को (जिसे हम आज पीते हैं) फेंक देते थे और पत्तियों को कभी तो तलकर, कभी मक्खन से मिलाकर, रोटी के टुकड़े अथवा टोस्ट पर जैम या नमक मिलाकर खाते थे। तत्कालीन विख्यात कवि 'सौदे' (१७७४-१८४३) ने लिखा है कि सबसे पहले चाय का पौंड जो विलायत में आया था उसे पीने के लिए जो अधिवेशन, 'टी पार्टी' हुई थी, उस समय चाय के सम्मेलन में उनके एक परम मित्र का दादा उपस्थित था। सौदे ने उस बूढ़े सज्जन के मुँ ह से स्वयं सुना था कि चाय की पत्ती एक बड़ी भारी केतली में उबाली गई थी। उसका अर्क जो वास्तव में पीने की चीज़ थी, वह तो फेंक दिया गया था। उबली हुई पत्तियाँ , नमक व मक्खन के साथ, सब उपस्थित मेहमानों ने खाई।

अंग् रेज़ों ने भारत से व्यापार के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई। इस कंपनी का ध्येय आरंभ में केवल रुप या पैदा करना था। कंपनी ने असम व हिमालय के अन्य प्रांतों में चाय के बाग लगवाए, और अपनी ही तैयार की हुई चाय विलायत भेजने लगे। ईस्ट इंडिया कंपनी के अपने असम के बाग की तैयार चाय का पहला पौंड सन १८३६ इंग्लैंड भेजा गया और १९वीं सदी के अंत तक चाय का प्रचार व इस्तेमाल इंग्लैंड में इतना बढ़ गया था कि औसतन प्रत्येक व्यक्ति दो पौंड सालाना चाय की पत्ती उबालकर पीने लग गया था। अब तो इंग्लैंड में औसतन प्रति आदमी दस पौंड चाय वर्ष भर में पीता है। जापान, तिब्बत और कश्मीर के बाद सबसे अधिक चाय के पीनेवाले इंग्लैंड में हैं। चाय के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी की आमदनी खूब बढ़ी। इंग्लैंड का व्यापार बढ़ा। किंतु चाय के ही कारण इंग्लैंड को अमरीका से भी हाथ धोना पड़ा। वरना आज युनाइटेड स्टेट्स भी ऑस्ट्रिया, कनाडा की तरह इंग्लैंड के अधीन होता, जो कि सन १७७६ तक था भी।

चाय पर कर
यह उस समय की बात है जब इंग्लैंड की पार्लियामेंट अमरीका के लिए कानून बनाती और उस पर शासन करती थी। लार्ड नार्थ प्रधानमंत्री के नेतृत्व में पार्लियामेंट ने अमरीका जाने व पहुँचनेवाली चाय पर कर लगाया। अमरीकनों को यह बात पसंद न आई। उन्होंने विलायत से आनेवाली चाय का बहिष्कार कर दिया। चाय के लदे हुए जहाज़ों को अमरीका के बंदरगाहों मे चाय समेत लंदन को लौटा दिया। कुछ जहाज़ों की चाय न उतारने दी। कुछ जहाज़ों की चाय समुद्र में उड़ेल दी गई। यह सब काम 'बोस्टन टी पार्टी' के द्वारा होता था। ज़बरदस्त आंदोलन हुआ।

अमरीका व इंग्लैंड के मध्य लड़ाई छिड़ गई। वाशिंग्टन के नेतृत्व में १२ जुलाई १७७६ को अमरीका के निवासियों ने अपने देश की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और अं‍ग्रेज़ों से लड़कर उनको परास्त कर स्वतंत्र हो गए। ऐसी है महत्वपूर्ण चाय, जिसने अमरीका को इंग्लैंड से मुक्त कराकर स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कराया।' ९ दिसंबर २००४

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