इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की
प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मीनारायण के
दर्शन किए जाते हैं। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट
भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृंदावन स्थित श्री बाँके
बिहारी जी के मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण
दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते
हैं।
इस तिथि का सर्वसिद्ध मुहूर्त के रूप में भी विशेष महत्व है।
कहा जाता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व
मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की
खरीददारी या घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीददारी से संबंधित कार्य
किए जा सकते हैं। नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई
संस्था, समाज आदि की स्थापना या उदघाटन का कार्य श्रेष्ठ माना
जाता है। पुराणों में लिखा है कि इस दिन पितरों को किया गया
तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल
प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से
समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप,
तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि
सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान,
जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह
तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत
ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी
माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए
गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा
प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और
उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को
भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का
वरदान माँगने की परंपरा भी है।
धार्मिक
परंपराएँ
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्मा मुहूर्त में उठकर समुद्र
या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर
विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या
गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है।
तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों
को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी
समझा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए
तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र
इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसंत ऋतु के
अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय
तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ,
छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू
आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है।
इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं
का दान किया जाएगा, वे समस्त वस्तुएँ स्वर्ग या अगले जन्म में
प्राप्त होगी।
संस्कृति का अनूठा त्यौहार 'अक्षय-तृतीया'
इस दिन से शादी-ब्याह करने की शुरुआत हो जाती है।
बड़े-बुजुर्ग अपने पुत्र-पुत्रियों के लगन का मांगलिक कार्य
आरंभ कर देते हैं। अनेक स्थानों पर छोटे बच्चे भी पूरी
रीति-रिवाज के साथ अपने गुड्डा-गुड़िया का विवाह रचाते हैं। इस
प्रकार गाँवों में बच्चे सामाजिक कार्य व्यवहारों को स्वयं
सीखते व आत्मसात करते हैं। कई जगह तो परिवार के साथ-साथ पूरा
का पूरा गाँव भी बच्चों के द्वारा रचे गए वैवाहिक कार्यक्रमों
में सम्मिलित हो जाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि अक्षय
तृतीया सामाजिक व सांस्कृतिक शिक्षा का अनूठा त्यौहार है। कृषक
समुदाय में इस दिन एकत्रित होकर आने वाले वर्ष के आगमन, कृषि
पैदावार आदि के सगुन देखते हैं। ऐसा विश्वास है कि इस दिन जो
सगुन कृषकों को मिलते हैं, वे शत-प्रतिशत सत्य होते हैं।
राजपूत समुदाय में आने वाला वर्ष सुखमय हो, इसलिए इस दिन शिकार
पर जाने की परंपरा है।
प्रचलित कथाएँ
अक्षय तृतीया की अनेक व्रत कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसी ही
एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक धर्मदास नामक वैश्य था।
उसकी सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। इस
व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर
गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत
के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान
में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी
उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे
जन्म में कुशावती का राजा बना। कहते हैं कि अक्षय तृतीया के
दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना।
मान्यता है कि इसी दिन जन्म
से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम का जन्म हुआ
था। एक कथा के अनुसार परशुराम की माता और विश्वामित्र की माता
के पूजन के बाद प्रसाद देते समय ऋषि ने प्रसाद बदल कर दे दिया
था। जिसके प्रभाव से परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय
स्वभाव के थे और क्षत्रिय पुत्र होने के बाद भी विश्वामित्र
ब्रह्मर्षि कहलाए। उल्लेख है कि सीता स्वयंवर के समय परशुराम
जी अपना धनुष बाण श्री राम को समर्पित कर सन्यासी का जीवन
बिताने अन्यत्र चले गए। अपने साथ एक फरसा रखते थे तभी उनका नाम
परशुराम पड़ा।
जैन धर्म में अक्षय-तृतीया
जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है। इस दिन
जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने एक वर्ष की
पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण
किया था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य
व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए
संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य
अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते-करते आदिनाथ
प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पधारे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन
था। प्रभु का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा
सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस कुमार ने प्रभु को देखकर
उसने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में
प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारायण
किया। जैन धर्मावलंबियों का मानना है कि गन्ने के रस को
इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया एवं अक्षय
तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।
भगवान श्री आदिनाथ ने लगभग
४०० दिवस की तपस्या के पश्चात पारायण किया था। यह लंबी तपस्या
एक वर्ष से अधिक समय की थी अत: जैन धर्म में इसे वर्षीतप से
संबोधित किया जाता है। आज भी जैन धर्मावलंबी वर्षीतप की आराधना
कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के
कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के
शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है।
तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है
कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है। इस प्रकार
का वर्षीतप करीबन 13 मास और दस दिन का हो जाता है। उपवास में
केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है।
वर्षीतप जब पूर्ण हो जाता है
तब भारत विख्यात जैन तीर्थ श्री शत्रुंजय पर जाकर अक्षय तृतीय
के दिन पारायण किया जाता है। इस दिन विशाल स्तर पर पारायण की
व्यवस्था की जाती है। जहाँ पर तपस्या करनेवाले तपस्वियों को
उनके संबंधी पारायण कराते हैं। अक्सर तपस्वी बहन को भाई पारायण
कराता है। इसे पारणा कहते हैं। चांदी के बने छोटे से आकार के
कलश इक्षु के रस के १०८ भरे कलशों से पारायण आरम्भ होता है।
धार्मिक गतिविधियों से ओत-प्रोत इस भव्य समारोह में संवेदनाएँ
स्वत: ही उमड़ पड़ती हैं। चारों ओर धर्म चर्चा का वातावरण बन
जाता है। पुष्पों की बौछार होती है। रंग-बिरंगे परिधान एवं
आभूषण तपस्वी को उनके सगे-संबंधी भेंट करते हैं, फूलों के हार
पहनाकर तपस्वियों का आदर सत्कार होता है। चारों ओर हर्ष, उमंग
एवं उदास का वातावरण बन जाता है। तपस्वियों का विशेष जलूस
समारोहपूर्वक निकाला जाता है और सभी तपस्वियों को तपस्या करने
वाले परिवार के सदस्य कुछ न कुछ उपहार भेंट करते हैं। इसे
प्रभावना कहते हैं। उपहार में चांदी, स्टील, पीतल आदि के
बर्तनों के अतिरिक्त धार्मिक सामग्री भी भेंट दी जाती है। इस
प्रकार की तपस्या में हज़ारों नर-नारी भाग लेते हैं। जिसमें
वृद्ध, युवा एवं बाल अवस्था के लोग भी सम्मिलित होते हैं। श्री
शत्रुंज्य जैसे महान तीर्थ पर अक्षय तृतीय के दिन विशाल पैमाने
पर मेला लगता है जिसमें देश के विभिन्न भागों से हज़ारों लोग
आते हैं। कई तपस्वी ऐसे होते हैं जो इस तीर्थ पर वर्ष भर रहकर
वर्षीतप की आराधना करते हैं। यहाँ तपस्या करने वाले श्री
शत्रुंज्य पर्वत की ९९ बार यात्रा करने का लाभ भी उठाते हैं।
भारत वर्ष में इस प्रकार की
वर्षी तपश्चर्या करने वालों की संख्या हज़ारों तक पहुँच जाती
है। यह तपस्या धार्मिक दृष्टिकोण से अन्यक्त ही महत्वपूर्ण है,
वहीं आरोग्य जीवन बिताने के लिए भी उपयोगी है। संयम जीवनयापन
करने के लिए इस प्रकार की धार्मिक क्रिया करने से मन को शान्त,
विचारों में शुद्धता, धार्मिक प्रवृत्रियों में रुचि और कर्मों
को काटने में सहयोग मिलता है। इसी कारण इस अक्षय तृतीया का जैन
धर्म में विशेष धार्मिक महत्व समझा जाता है। मन, वचन एवं
श्रद्धा से वर्षीतप करने वाले को महान समझा जाता है।
विभिन्न प्रांतों में अक्षय तृतीया
बुंदेलखंड में अक्षय तृतीया से प्रारंभ होकर पूर्णिमा
तक बडी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता है, जिसमें कुँवारी कन्याएँ
अपने भाई, पिता तथा गाँव-घर और कुटुंब के लोगों को शगुन बाँटती
हैं और गीत गाती हैं।
अक्षय तृतीया को राजस्थान में
वर्षा के लिए शगुन निकाला जाता है, वर्षा की कामना की जाती है,
लड़कियाँ झुंड बनाकर घर-घर जाकर शगुन गीत गाती हैं और लड़के
पतंग उड़ाते हैं। यहाँ इस दिन सात तरह के अन्नों से पूजा की
जाती है।
मालवा में नए घड़े के ऊपर
ख़रबूज़ा और आम के पल्लव रख कर पूजा होती है। ऐसा माना जाता है
कि इस दिन कृषि कार्य का आरंभ किसानों को समृद्धि देता है।
भगवान
परशुराम का अवतरण
स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि वैशाख
शुक्लपक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने
परशुराम रूप में जन्म लिया। कोंकण और चिप्लून के परशुराम
मंदिरों में इस तिथि को परशुराम जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई
जाती है। दक्षिण भारत में परशुराम जयंती को विशेष महत्व दिया
जाता है। परशुराम जयंती होने के कारण इस तिथि में भगवान
परशुराम के आविर्भाव की कथा भी सुनी जाती है। इस दिन परशुराम
जी की पूजा करके उन्हें अर्घ्य देने का बड़ा माहात्म्य माना
गया है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ और क्वारी कन्याएँ इस दिन
गौरी-पूजा करके मिठाई, फल और भीगे हुए चने बाँटती हैं,
गौरी-पार्वती की पूजा करके धातु या मिट्टी के कलश में जल, फल,
फूल, तिल, अन्न आदि लेकर दान करती हैं। |