|  हेल्गा 
    पत्थर की मूर्ति बनी बैठी थी। निर्विकार। मुझे क्या करना चाहिए समझ नहीं पा रही 
    थी। तब तक जिमी की दबी हुई पर कर्कश आवाज़, ''ममा! तुम इस घर को छोड़कर इज़राइल 
    के किसी किंबूत में क्यों नहीं चली जातीं? पैसा तो कमाकर भेजती ही हो।'' छोटा हैरी माँ से लिपटकर ज़ोरों से रो पड़ा, ''नो नो ममा! तुम नहीं जाओगी। तुम 
    नहीं जाओगी।''
 हेल्गा ने बड़ी ठंडक से हैरी को परे हटाया। एक स्वर अपने समूचे स्थायी वज़न के 
    साथ खनाक से ज़मीन पर गिरा, ''हाँ मैं जा रही हूँ, अगले मंगलवार को...''
 ''हेल्गा?'' डॉ. बेरी की आँखें फैली हुई थीं।
 हेल्गा मेरा हाथ पकड़कर सीढ़ियाँ चढ़ रही थी।
 वह रविवार अजीब घुटन भरा था। बच्चे अपने-अपने कमरों में थे। डॉ. बेरी दो बार 
    कमरे में आए पर हेल्गा को मुझसे बातें करते देखकर चले गए। और हेल्गा? वह एक 
    बहता हुआ लावा थी। उसकी ज़िंदगी में विस्फोट हो चुका था। नहीं, वह रोई नहीं। 
    उसने सच ही कहा था, ''प्रभा, मैं अपने को घर और बच्चों से नहीं जोड़ना चाहती। 
    मैं नहीं चाहती कि मैं डॉ. बेरी के प्रेम के भँवर-जाल में चक्कर काटती रहूँ। 
    नहीं नहीं। स्मृतियों के दंश अभी भी चुभते रहते हैं। वह रात, जब नीले आकाश में 
    कटा हुआ चाँद भी खून टपका रहा था, जब हवाओं में बारूद और सड़ी हुई लाशों की गंध 
    थी। प्रभा! मैं भूल नहीं पाती, पापा का लुढ़का हुआ सिर और खून से भीगा हुआ कोट 
    उस रूसी सैनिक के कंधे पर। नहीं प्रभा! नहीं मैं अपने नन्हें जिमी के मुँह से 
    भी रोटी छीनकर उन अपरिचितों के पास भेज दूँगी। जिमी का बाप उसे भूखा नहीं मरने 
    देगा पर मेरे ह्रदय का खून तो जमते-जमते गाढ़ी स्याही हो गया है।''
 ''हेल्गा, किसकी ज़िंदगी में दर्द नहीं होता?''
 ''देखो, आदमी जब अपनी निजी समस्या, अपने निजी दर्द को इन साधारण दार्शनिक 
    उक्तियों से सहलाने लगता है ना, तो उसका दर्द छिछला हो जाता है। मैं...मैं बहुत 
    ही गहरी हूँ और जितना ही भीतर डूबती हूँ, एक ही आवाज़ कानों से टकराती है हम 
    यहूदियों का अपना कोई देश नहीं। हम अब भी खानाबदोशों की तरह भटक रहे हैं।
 क्यों कि मैं सोचती हूँ हर दर्द को आदमी अपनी ज़मीन पर खड़ा होकर भूल सकता है।''
 ''क्यो तुम अमेरिकन नहीं?''
 ''हूँ, जैसे कभी पोलिश थी। पर हम यहूदियों का अस्तित्व संदर्भों से कटा हुआ 
    है।''
 ''मैं तुम्हारी सारी बातें समझ नहीं पा रही हूँ हेल्गा। सच कहूँ तो मेरा 
    राजनीतिक ज्ञान बड़ा कच्चा है।''
 ''कच्ची तो तुम सभी बातों में हो। तुमने ज़िंदगी का दर्द झेला ही कहाँ है?''
 ''ऐसा मत कहो हेल्गा। पिता तो मेरे भी बचपन में चले गए।''
 ''तुम कितनी बड़ी थीं?''
 ''साढ़े नौ की। वह रविवार मुझे आज भी याद है और वह रात का वक्त जब साढ़े दस 
    बजे, ड्राइवर खाली गाड़ी लेकर घर लौटा और फुटपाथ पर ही छाती पीटते हुए कहा, 
    बड़े बाबू अब नहीं रहे। उनका हार्ट फेल हो गया।''
 ''अरे तुम्हारे पिता नहीं? मैं बहुत लज्जित हूँ कि मैं इन दिनों इतनी 
    आत्मग्रस्त रही कि तुम्हारे बारे में कुछ जानने की चेष्टा ही नहीं की।''
 ''नहीं ऐसी बात नहीं। दर्द तो मुझे इस बात का है कि बाबू जी का हार्ट फेल नहीं 
    हुआ था कि बल्कि उन्हें ज़हर दिया गया था।''
 ''ज़हर किसने...?''
 ''उनके व्यापारी पार्टनर और दोस्त ने। मेरे पिता जूट के बड़े व्यवसायी थे।''
 ''मैं तुम्हारा दर्द समझती हूँ हेल्गा। मुझे भी वह दिन नहीं भूलता जब वे लोग 
    बाबू जी की अर्थी उठाकर ले गए। मेरे इतने प्रतिष्ठित पिता और इतनी कम उम्र में 
    चले गए। सब लोग घाट पर गए। सिर्फ़ मैं और मेरी बडी बहन गीता घर पर रह गईं। 
    हमारे यहाँ छोटी लड़कियाँ घाट पर नहीं जा सकतीं। मुझे बच्ची समझकर, नीचे जाकर 
    बाबू जी के दर्शन भी नहीं करने दिए गए। मैं खिड़की की सलाखें पकड़े रोती रही। 
    दाई माँ मुझे छाती से लगाकर समझाती रही, ''मत रो बिटिया, मत रो। अब बड़ा बाबू 
    नहीं लौटेंगे।''
 ''ओह प्रभा! ओह!'' कहते हुए हेल्गा उठकर मेरे पास सोफे के हत्थे पर बैठ गई।
 ''फिर क्या हुआ? हत्यारों को सज़ा, न्याय?''
 ''हेल्गा हमारे देश में न्याय केवल पैसेवालों के लिए है।'' अम्मा ने कहा, ''जब 
    गए वे लौटेंगे नहीं, और कोर्ट कचहरी में घर फूँकने से मेरे बच्चे रास्ते पर 
    खड़े हो जाएँगे।''
 ''तुम लोग कितने भाई बहन?''
 ''पाँच बहनें, दो भाई। मैं सबसे छोटी थी। हेल्गा! मैं महीनों खिड़की के सींखचे 
    पकड़े खड़ी रहती। महीनों मैं रातों को नींद में चौंक-चौंक उठती। शायद बाबूजी 
    लौट आए हैं। उनकी खड़ाऊँ की आवाज़ कानों में गूँजती रहती। वह शायद कोई और 
    व्यक्ति था, जिसे मेरे चाचा लोग ले गए थे। वे कोई और होंगे।''
 ''तुम्हारे मन में बदले की भावना, घृणा, क्रोध कुछ नहीं?''
 ''है हेल्गा, बहुत अधिक है। पर बदला लेने का मेरा अपना तरीका है।''
 ''वह तरीका क्या है?''
 ''इस पर गहराई से अभी तक नहीं सोचा। बाबू जी को दुनिया से गए चौदह साल हो गए, 
    पर घर की आर्थिक अवस्था अब भी पूरी तरह नहीं सम्हली।''
 ''वह कैसे? तुम इतनी दूर विदेश में किसके खर्चे से आई हो?''
 ''टिकट के पैसे किसी से उधार लिए हैं, मेरे हितैषी बंधु हैं, चुका दूँगी।'' 
    मैंने फिर कहा।
 ''लेकिन पिछले दस साल से एक ही चीज़ देख रही हूँ। व्यापारियों का परिवार कैसे 
    मुखौटों में जीता है। अम्मा ने बाबू जी के वक्त का सारा तामझाम ऊपरी तौर पर 
    वैसे ही रखा हुआ है और भीतर से इतना खोखलापन। किसी को पता न चले मगर चुपचाप 
    एक-एक करके बिकते हुए गहने, मुझको बाबू जी के जाने के बाद पहली नई पोशाक छोटे 
    भइया की शादी पर मिली थी।''
 
    हेल्गा ने माँ की ममता से मुझे कलेजे से लगा लिया। हम दोनों रो रही थीं। मगर 
    हेल्गा बहुत जल्दी सम्हल गई। कहने लगी, ''आज मैं तीस वर्ष बाद रोयी हूँ यानी 
    डैड के लिए अब भी कुछ बूँदें बची थीं।''''प्रभा! तुम बहुत भावुक हो, बहुत कोमल।''
 मैंने आँसू पोंछते हुए मुस्कुराकर कहा, ''हाँ, कठोर बनना पड़ेगा, तुम्हारी 
    तरह।''
 ''हाँ बिल्कुल। कविता लिखो मगर रोना मत। हम औरतें अपनी ज़िंदगी को आँसुओं में 
    निचोड़ देती हैं। अच्छा एक काम क्यों नहीं करती प्रभा...?''
 ''वह क्या?''
 ''तुम मेरे रेस्टोरेंट में पार्टनर हो जाओ, बहुत पैसा कमाओगी। तब तुम अपनी ममी 
    को सुख दे पाओगी उनको खूब सारे गहने बनवाकर देना। तुमको इस रेस्टोरेंट का 
    भविष्य नहीं पता। बहुत जल्दी मैं इसकी दो-तीन शाखाएँ खोल सकती हूँ। तुम पार्टनर 
    बन जाओ न?''
 ''सुनो हेल्गा, एक तो मैं पराई ज़मीन पर नहीं रहूँगी। तुम चाहे मुझे मिलियन 
    डालर ही क्यों न दो? मुझे जिस समाज का सामना करना है वह सीधे-सीधे करूँगी। उससे 
    भागकर नहीं और दूसरे...'' कहते-कहते मैं चुप हो गई।
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