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लघु उपन्यास

वरिष्ठ लेखिका प्रभा खेतान विगत 20 सितंबर को हमारे बीच नहीं रहीं। श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है उनके उपन्यास आओ पेपे घर चलें की पहली किस्त

आइलिन जा चुकी थी हमेशा के लिए। उसे जाना ही था। दूर-दराज में कोई था भी नहीं उसका, उसको याद करनेवाला। निरंतर रोती रहती थीं पेपे की एक जोड़ी कातर नीली आँखें। पेपे क्लिनिक में आता और आइलिन की कुर्सी के पास चुपचाप बैठा रहता। मुझे देखकर धीरे से आकर पैरों से लिपट जाता।
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आह! जानवर में आदमी और आदमी में जानवर?
मिसेज डी से मैंने पूछा था रोजर के बारे में। पता चला रोजर काफी पहले आइलिन की ज़िंदगी से चला गया था। जब पहले पहल उसकी बीमारी का पता चला तब रोजर का पहला निर्णय था उस ज़िंदगी से निकल जाने का।
रोजर आइलिन से दस साल छोटा था। वह ज़िंदगी जीना चाहता था, मौत से डरता था और एक मरती हुई बूढ़ी औरत के साथ साठ वर्ष का पुरुष? नहीं। रोजर में मौत का सामान करने की हिम्मत नहीं थी। इसलिए वह शिकागो जाकर बस गया। उसके मन में आइलिन के प्रति इतना भर दर्द था या यों कहिए कि उतनी दया बची थी कि वह गाहे-बगाहे कभी-कभी फोन कर लेता। लेकिन आइलिन ने तो मुझसे कभी कुछ नहीं कहा था? आइलिन बीते हुए संबंधों को भी स्मृतियों में जिलाये रखती थी। उसने कभी कहा था, ''मैं अपने पहले पति का चेहरा हर पुरुष में खोजती रहती हूँ। किसी में उसकी आवाज़ पाती हूँ, कहीं उसकी दृष्टि, कहीं उसका स्पर्श। कोई बिल्कुल उस जैसा लगता है।''
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