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    डॉ. डी ने ही सुझाव दिया, ''लिजा! प्रभा को डॉ. 
    बेरी के पास सेंट लुईस भेज देते हैं। पंद्रह दिन वहाँ रहेगी, फिर उसके बाद 
    तुम्हारी बहन के पास न्यूयार्क में...''''जार्ज! मुझे ज़रा सोचने दो। तुम्हारे चेंबर का वक्त हो गया है।''
 डॉ. डी के जाते ही उन्होंने कहा, ''प्रभा! तुम नहा लो, फिर हमलोग घूमने 
    चलेंगी।''
 ''आप काम पर नहीं जाएँगी?''
 ''नहीं। आज हमलोग आइलिन की मज़ार पर फूल चढ़ाकर आएँगे और उसके बाद पेपे से 
    मिलने चलेंगे।''
 मैं बर्तन समेटकर उठने लगी तब तक उन्होंने फिर कहा, ''ऐसा करो, तुम जार्ज के 
    बाथरूम में चली जाओ ताकि हम दोनों संग-संग तैयार हो सकें।''
 डॉ. डी के बाथरूम में घुसते ही सामने की दीवार पर टँगी तस्वीर पर नज़र गई। नीचे 
    सुंदर हस्ताक्षर था- क्लारा ब्राउन। ओह! दो दूनी चार, चार दूनी आठ, आठ दूनी 
    सोलह, सोलह दूनी... यह क्या हो रहा है मेरे दिमाग को? मैं बिना वजह क्यों 
    पहाड़े रट रही हूँ। लगा यहाँ ज़्यादा दिन रही तो खुद ही पगला जाऊँगी।
 हम लोग बाहर निकलें। गाड़ी में मिसेज डी ने कहा, ''मिसेज बेरी से बात हो चुकी 
    है। तुम्हारे टिकट के लिए कह दिया है। फ्लाइट कल शाम की है।''
 ''जी अच्छा।''
 ''वहाँ किसी प्रकार की असुविधा हो तो मुझसे कहना। और हाँ मिसेज बेरी ने हाल ही 
    में एक 'ड्राइव इन रेस्टोरेंट' खोला है। वहाँ तुमको दस डालर घंटे के हिसाब से 
    मिल जाएगा।''
 ''जी।''
 ''और सेंट लुईस से तुम न्यूयार्क जाओगी। उसकी व्यवस्था करने के बाद मैं तुम्हें 
    खबर दूँगी।''
 ''जी।''
 वे हठात मेरी ओर घूमकर बोलीं, ''तुम्हारी प्रत्येक हाँ क्या तु्म्हारी 
    निष्क्रियता का लक्षण नहीं?''
 ''नहीं। मुझे आप पर पूरा विश्वास है।''
 उनके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान थी।
 आइलिन की मज़ार पर हमदोनों की आँखें भर आईं। मैंने मन ही मन दोहराया, ''आइलिन! 
    मेरे यहाँ से जाने तक तुम रुक नहीं सकती थीं?''
 मेरे ही मन ने उत्तर भी दिया, ''मैंने बहुत चेष्टा की। हमेशा मैं बाहर जाती 
    साँसों के लिए चौकस रहती थी। बस उस दिन गफलत हो गई और गई हुई साँस नहीं लौटी।''
 मिसेज डी पत्थर की समाधि को धीरे-धीरे सहला रही थी। फिर उठकर बैठी, ''चलो अब 
    चलें।''
 ''क्या हमलोग पेपे से मिलने चल रही है?''
 ''आँ हाँ हाँ...''
 एक घंटे की ड्राइव के बाद हमलोग कुत्तों के असाइलम में थे। पेपे को सामने लाया 
    गया। पेपे की वही बड़ी-बड़ी कातर आँखें, कुछ न कहती हुई भी बहुत कुछ... मिसेज 
    डी ने कहा, ''यह बहुत दुबला हो गया है। शरीर से बाल झड़ गए हैं। लगता है, 
    ज़्यादा दिन जीएगा नहीं।''
 ''क्यों?''
 ''बात यह है कि आइलिन इसको बच्चे की तरह पालती थी। यहाँ तो कुत्ते की तरह ही 
    पाला जाएगा। हालाँकि मैं पाँच सौ डॉलर महीने 
    की फीस भी देती हूँ। हमेशा फ़ोन पर 
    हालचाल पूछती रहती हूँ।''
 हम लोग लौटने लगे तो पेपे रो उठा। 
    कुत्ते को यों रोते हुए मैंने पहली बार देखा। मैं पेपे की ओर बढूँ इससे पहले 
    मिसेज डी ने हाथ खींचकर कहा, ''नहीं बाहर चलो। उसके पास जाना उसे और दुःखी 
    करेगा। आखिर है जानवर, आवेग में काट न लें।''आइलिन के शब्द हवा में तैर आए, ''लेकिन, मेरे पेपे ने तो आजतक किसी को नहीं 
    काटा...''
 ''डॉ. डी तुम क्यों मिसेज डी को काट रहे हो, क्यों?''
 इस क्यों का उत्तर लौटते हुए गाड़ी में हम दोनों की चुप्पी थी। खयालों का जंगल 
    था। कहीं शेर की दहाड़ थी तो कहीं नागिन की फुफकार।
 सेंट लुईस में मिसेज बेरी का पच्चीस 
    कमरोंवाला घर। बड़ा-सा चौका। मकान के सामनेवाले हिस्से में सामने का छोटा-सा 
    लॉन। पीछे वाले हिस्से में अच्छा-ख़ासा बगीचा। सफ़ेद दो मंज़िला 'स्प्लिट हाउस' 
    काठ की सीढ़ियाँ। नीचे बड़ा-सा बेसमेंट। पति दाँत के डॉक्टर। चार बच्चे, दो 
    लड़के दो लड़कियाँ। जिमी, बिटिना सूजान और हैरी। चार के सोलह दोस्त कम से कम हर 
    वक्त मौजूद। हर बच्चे के लिए अलग-अलग कमरे। हर कमरे में दो पलंग। फिर पलंग के 
    नीचे पलंग। घर नहीं एक अच्छी खासी डारमेटरी, पुरानी बुढ़िया नैनी जिसका नाम 
    मेरी था मगर सब उसे नैनी ही कहकर बुलाया करते, एक सत्तर वर्ष की वृद्धा औरत थी। 
    घर के बच्चों की, सबकी ज़िम्मेवारी उसी पर थी। घर में हर चीज़ की प्रचुरता। 
    बड़बड़ाती हुई मेरी हर समय चीज़ों को सजाती रहती और ऊधमी बच्चे बिखेरते रहते। न 
    किसी का ब्रेकफास्ट का समय नियत था न लंच का। हाँ शाम को सात बजे डैडी के सामने 
    सबका हाज़िर होना ज़रूरी था। हर बच्चा शाम के सात बजने की प्रतीक्षा करता, 
    क्यों कि वह फ़र्माइशों का वक्त होता। किसे कितना रुपया चाहिए, कौन-सी चीज़ 
    चाहिए। बीस साल की बिटिना न्यूयार्क कालेज में पढ़ने जा रही थी। उसे आंटी मरीना 
    की तरह साइकॉलॉजिस्ट बनना था। जिमी को नया रेसिंग बोट चाहिए था। वह सर्फिंग के 
    कंपीटिशन में उतरना चाह रहा था। चौदह साल की सूजान को कुछ नहीं चाहिए था, केवल 
    ममी और डैड के साथ कमरे में सोने की इज़ाज़त जो कि बिल्कुल असंभव। तब वह बाहर 
    पेड़ पर बने अपने गुड़ियाघर में रहना चाहती थी। दस साल का हैरी ममा की गोद में 
    बैठा अब भी अंगूठा चूसे बिना नहीं मानता। ममा नहीं होने से नैनी थी। ढेरों 
    खिलौने बेसमेंट में। फ्रीज में खाने-पीने का अनाप-शनाप सामान। खोल गए जूते, 
    कपड़ों के ढेर, जिन्हें वॉशिंग मशीन में धोना भी उन लोगों के लिए बोझ था। 
    ज़्यादा उद्दंड जिमी था। उसके साथ चार छः दोस्त हर वक्त स्कूल से लौटते ही रात 
    तक, खाने की मेज़ पर भी। खाने-पीने के शौकीन डॉ. बेरी को बच्चों का हुजूम बड़ा 
    अच्छा लगता। नैनी बड़बड़ाती रहती, ''कितना भी सामान रखो इस घर की मेज़ पर, कुछ 
    नहीं बचता। डॉ. बेरी! तुम्हारे बच्चे इस शहर के सबसे तुंदियल बच्चे होंगे।'' 
    हो-हो की हँसी में डॉ. बेरी की तोंद 
    ऊपर-नीचे होती रहती। छोटी सूजी उठकर डैड के गले से लिपट जाती। ''डैड! मेरी नई 
    गुड़िया नहीं आई?''''कल शाम तक आ जाएगी, मेरी बच्ची!
 तब तक हैरी की फ़र्माइश, ''डैड, नैनी मुझे चॉकलेट केक नहीं खाने दे रही, जबकि 
    डीप फ्रीज में ढेरों चॉकलेट रखे हैं। कल मेरे दोस्त को भी मना कर दिया। कहती है 
    दाँत में कीड़े लग जाएँगे।''
 बेरी परिवार में एक ही व्यक्ति गंभीर 
    था। कम बोलता और हर वक्त व्यस्त रहता, वह थी मिसेज हेल्गा बेरी। हेल्गा हमेशा 
    अपनी फ्रेंच खिड़की के पासवाली मेज़ पर बैठकर आय-व्यय का हिसाब किया करती।हाँ, डॉ. बेरी तो काफी कमाते ही थे पर हेल्गा को अपनी अलग पहचान चाहिए थी। वह 
    केवल पत्नी और माँ की भूमिका में सिमटकर नहीं रहना चाहती।
 मेरा मन न जाने क्यों हमेशा हेल्गा में अटका रहता। लगता मानो वह एक टूटे-फूटे 
    अक्स को ठीक करने की कोशिश में है। और जितना वह टुकड़ों को जोड़ती है उतनी ही 
    कोई और तस्वीर उभरती जाती है। वह हेल्गा नहीं, वह कोई और होती है।
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