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					इस सप्ताह- | 
				 
				
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					 अनुभूति 
					में- 
					विजयदशमी के अवसर पर 
					मातृशक्ति को समर्पित नए पुराने रचनाकारों की अनेक विधाओं में 
					रची रससिद्ध रचनाएँ।  | 
				 
				 
 
                      
                
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                  - घर परिवार में  | 
				 
                
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					रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा त्यौहारों के 
					अवसर पर उत्सव, भोग और अतिथि सत्कार के लिये- पहले से तैयार करें 
					मिठाइयाँ।   | 
                 
				
                  | 
                  
					 
                  
					रूप-पुराना-रंग 
					नया- 
					शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर फिर से सहेजें 
					रूप बदलकर-
					
						 सोडा 
					ड्रिंक की बोतल के ठप्पे।  | 
				 
                
                  | 
               
      सुनो कहानी- 
		बच्चों के लिये कहानी के इस विशेष स्तंभ में प्रस्तुत है विजयदशमी के अवसर 
		पर जरा लम्भी कहानी- - 
		
		दशहरे का मेला। 
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				- रचना और मनोरंजन में  | 
                 
                
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					नवगीत की पाठशाला में- 
                  कार्यशाला-३० का विषय है- शहर-में 
					दीपावली रचना भेजने की अंतिम तिथि है- २५ अक्तूबर,
					विस्तार से यहाँ देखें।
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                  |                					
									 
      
				
					साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक 
		समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये 
				
					यहाँ देखें।  | 
				 
                
                  | 
                   
              
					लोकप्रिय 
              
					कहानियों 
              
					के 
              
					अंतर्गत- इस 
				सप्ताह प्रस्तुत है १६ अक्तूबर २००७ को प्रकाशित सुभाष चंद्र 
				कुशवाहा की 
				कहानी—अपेक्षाएँ। 
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		वर्ग पहेली-१५५ 
				गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल 
		और रश्मि आशीष के सहयोग से 
                  
                  
                   | 
                 
                
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                   सप्ताह 
					का कार्टून- 
					
					कीर्तीश 
					की कूची से  | 
                 
                
                  | 
                                       
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					साहित्य 
					एवं 
					संस्कृति 
					में- 
					  विजयदशमी 
					के अवसर पर  | 
                   
                  
                    | 
                     काल जयी 
					कहानियों स्तंभ गौरवगाथा में  
					प्रेमचंद की कहानी
					राजहठ 
					
					
					  
                    
					
					दशहरे 
					के दिन थे, अचलगढ़ में उत्सव की तैयारियाँ हो रही थीं। दरबारे 
					आम में राज्य के मंत्रियों के स्थान पर अप्सराएँ शोभायमान थीं। 
					धर्मशालाओं और सरायों में घोड़े हिनहिना रहे थे। रियासत के 
					नौकर, क्या छोटे, क्या बड़े, रसद पहुँचाने के बहाने से दरबारे 
					आम में जमे रहते थे। किसी तरह हटाये न हटते थे। दरबारे खास में 
					पंडित, पुजारी और महन्त लोग आसन जमाए पाठ करते हुए नजर आते थे। 
					वहाँ किसी राज्य के कर्मचारी की शकल न दिखायी देती थी। घी और 
					पूजा की सामग्री न होने के कारण सुबह की पूजा शाम को होती थी। 
					रसद न मिलने की वजह से पंडित लोग हवन के घी और मेवों के भोग को 
					अग्निकुंड में डालते थे। दरबारे आम में अंग्रेजी प्रबन्ध था और 
					दरबारे खास में राज्य का। राजा देवमल बड़े हौसलेमन्द रईस थे। 
					इस वार्षिक आनन्दोत्सव में वह जी खोलकर रुपया खर्च करते। जब 
					अकाल पड़ा, राज्य के आधे लोग भूखों तड़पकर मर गए। बुखार, हैजा 
					और प्लेग में हजारों लोग हर साल मृत्यु का ग्रास बन जाते थे। 
					राज्य निर्धन था इसलिए न वहाँ पाठशालाएँ थीं, न चिकित्सालय, न 
					सड़कें। यह सब और इनसे भी ज्यादा कष्टप्रद बातें स्वीकार थीं 
					मगर यह असम्भव था कि दुर्गा देवी का वार्षिक आनन्दोत्सव न हो।
					आगे- 
					
					
					*
      अशोक गौतम का व्यंग्य 
		सुनो हे परेशान हनुमान 
		
					* 
							
      पर्यटन के अंतर्गत जानें 
		छत्तीसगढ़ में राम के वनवास स्थल 
		
					* 
					
					गुणवंत शाह का दृष्टिकोण 
					जटायु का व्यक्तित्व 
					
					* 
                    
      
		पुनर्पाठ में- डॉ विद्यानिवास मिश्र  
		का आलेख- 
		
		विजयोत्सव   | 
                   
                  
                    | 
                     
                    
					
					
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					पिछले 
					 
					
					सप्ताह-  | 
		 
		
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		१ 
					डॉ. सरस्वती माथुर की लघुकथा 
		आँगन की तुलसी 
		
					* 
							
      डॉ.अनुराग विजयवर्गीय की  
		कलम से- तुलसी का 
		महत्व 
		
					* 
					
					पं. सुरेन्द्र बिल्लौरे से जानें 
					नवदुर्गा के औषधि रूप 
					
					* 
                    
      
		पुनर्पाठ में- मीरा सिंह का आलेख- 
		बेटी की तरह उठती है तुलसी की 
		डोली 
		* समकालीन 
					कहानियों में
					भारत से  
					सिमर सदोष की कहानी 
					तुलसी का बिरवा 
					
					
					  
                    
					आसपास के सभी गाँव मछुआरों के 
					थे-और इनके बीच में होकर बहती थी एक चौड़ी, बेतरतीब-सी पहाड़ी 
					नदी। बारिश होती, तो जैसे इस नदी में एक उफान-सा आ जाता। न 
					होती, तो उतनी ही तेजी से सिकुड़ भी जाती। यह नदी उनकी 
					रोटी-रोजी का जरिया थी, और उनके जीने-मरने का साधन भी। नदी जब 
					उफान पर होती, तो पार जाने के लिए नावों का सहारा लेना 
					पड़ता.... अन्यथा चलकर भी पार चले जाते थे लोक। इस इलाके के 
					लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना ही था। दुकानें भी थीं 
					कुछ....नाम मात्र की। बारिश होती, तो भी लोग मरते-भूख से भी, 
					और पानी में बहकर भी। बारिश न होती, तो भी लोग मरते-सूखा पड़ने 
					के कारण, कई बार महीनों तक रोजगार नहीं मिलता। यही उनकी नियति 
					भी-उनकी नीयत भी। तथापि वे थकते नहीं थे...विपदा के समय भागते 
					भी नहीं थे। कभी गाँव से जाते भी, तो शीघ्र लौट भी आते-मिट्टी 
					का मोह खींच लाता उन्हें फिर से अपने घर। अपने गाँव और आस-पास 
					की धरती के इलावा कुछ भी बाहरी अथवा पराया नहीं था उनके बीच। 
					आगे-  | 
		 
		
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