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					आसपास के सभी 
					गाँव मछुआरों के थे-और इनके बीच में होकर बहती थी एक चौड़ी, 
					बेतरतीब-सी पहाड़ी नदी। बारिश होती, तो जैसे इस नदी में एक 
					उफान-सा आ जाता। न होती, तो उतनी ही तेजी से सिकुड़ भी जाती। यह 
					नदी उनकी रोटी-रोजी का जरिया थी, और उनके जीने-मरने का साधन 
					भी। नदी जब उफान पर होती, तो पार जाने के लिए नावों का सहारा 
					लेना पड़ता... अन्यथा चलकर भी पार चले जाते थे लोक। इस इलाके 
					के लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना ही था। दुकानें भी थीं 
					कुछ...नाम मात्र की। 
					 
					बारिश होती, तो भी लोग मरते-भूख से भी, और पानी में बहकर भी। 
					बारिश न होती, तो भी लोग मरते-सूखा पड़ने के कारण, कई बार 
					महीनों तक रोजगार नहीं मिलता। यही उनकी नियति भी-उनकी नीयत भी। 
					तथापि वे थकते नहीं थे...विपदा के समय भागते भी नहीं थे। कभी 
					गाँव से जाते भी, तो शीघ्र लौट भी आते-मिट्टी का मोह खींच लाता 
					उन्हें फिर से अपने घर। अपने गाँव और आस-पास की धरती के इलावा 
					कुछ भी बाहरी अथवा पराया नहीं था उनके बीच। उनके अपने बीच में 
					ही हो जाता था रोटी-बेटी रिश्ता। किसी के घर खुशी होती, तो 
					पूरे गाँव के लोगों के पाँव थिरकने लगे। किसी के घर गम होता, 
					तो उस रात किसी के भी घर चूल्हा नहीं जलता। 
					 
					एक दिन नदी में फिर उफान आया था। नदी की लहरें मचलने लगी 
					थीं-तट-बाँधों को तोड़ने के लिए। निरन्तर कई दिनों से हो रही थी 
					बारिश। ऊपर पहाड़ों की ओर से बड़ी तेजी से आ रहा था पानी। बारिश 
					के साथ रह-रहकर आँधी भी उठती, और तूफान भी। लहरें उठतीं, तो 
					जैसे आसमान को छूने लगतीं। कई दिनों से घरों से बाहर नहीं 
					निकले थे लोग। अपने-अपने घर में बैठे माँ जलावी के समक्ष 
					मन्नतें माँग रहे थे-बहुत हो गया ! ...अब तो पानी बरसना बंद 
					हो। 
					 
					बड़े-बूढ़ों को स्मरण है-बहुत पहले भी आया था एक दिन ऐसा ही 
					तूफान। कई दिन तक होती रही थी बरसात। पहाड़ों से उतरा पानी अनेक 
					घर-झोंपड़ियों को बहा ले गया था अपने साथ। कई दिनों के बाद पानी 
					थमा, तो लोग घरों से बाहर निकले। एक दिन शहर की मंडी में मछली 
					बेचकर लौट रहे जुम्मन को नदी में बही जा रही एक खाली नाव में 
					लाल कपड़े में लिपटी कोई वस्तु दिखाई दी, तो बीच धारा में छलाँग 
					लगाकर वह नाव को किनारे तक खे लाया था।  
					 
					लाल कपड़े में लिपटी वस्तु एक कन्या थी-अति सुंदर...जल-परी 
					जैसी। देखते ही जैसे जुम्मन की आँखें उसके चेहरे पर गड़ी रह 
					गईं। जुम्मन उसे घर ले आया था। देखते ही देखते यह बात पूरे 
					गाँव में फैल गई-फिर गाँव से बाहर दूसरे गाँवों में भी। कोई 
					उसे जल-परी कहता, तो कोई देव-कन्या। किसी ने उसके लिए नया झूला 
					बनाया, तो किसी ने नये वस्त्र तैयार किये। 
					 
					जैसे-जैसे वह कन्या बड़ी होती गई, देव-कन्या के रूप में उसकी 
					मान्यता बढ़ती चली गई। देखते ही देखते, नदी किनारे जुम्मन की 
					नाव बाँधी जाने वाली जगह पर एक मन्दिर बन गया। धीरे-धीरे यह 
					मन्दिर भी बड़ा होता चला गया। लोग मन्दिर में आते...मन्नत 
					माँगते, और मन्नत पूरी होती। जल में मिली थी वह कन्या, अतः 
					पहले नाम हुआ जल वाली देवी। फिर धीरे-धीरे जलावी देवी हो गया। 
					जुम्मन का अपना घर भी बहुत बड़ा हो गया था-बाँस की बल्लियों और 
					लकड़ी के बड़े-बड़े तख्तों वाला मकान। जलावी देवी मंदिर में ही 
					रहती थी। सुबह से लेकर देर रात तक मंदिर में आने-जाने वालों का 
					ताँता लगा रहता। लोग मंदिर की देखभाल स्वयं करते। नियमानुसार 
					प्रत्येक घर से रोज खाने-पीने का सामान पर्याप्त मात्रा में आ 
					जाता था। मंदिर के आँगन में भी दो गायें हर समय बँधी रहतीं।
					 
					 
					अब यह जुम्मन की निष्ठा का प्रतिफल था, या जलावी देवी के 
					माध्यम से ईश-कृपा-अब नदी में पहले जैसे तूफान नहीं आते थे, न 
					पहाड़ों के रास्ते से लहरें गिरती थीं। यह भी सुना गया था कि 
					ऊपर पहाड़ी पर बाँध बन जाने से नदी में बाढ़ अथवा जलाभाव से होने 
					वाली मौतों की संख्या भी कम हो गई थी। लोग खुशहाल हो चले थे। 
					 
					...लेकिन पिछले पाँच रोज से नदी में फिर से तूफान उठा था। 
					लहरें भी तीव्र गति से मचल रही थीं, और ऊपर पहाड़ी की ओर से आने 
					वाले पानी इतना तेज था कि अनेक वृक्ष टूट कर बह गये थे। नदी की 
					लहरें मंदिरों की दीवारों तक को छू रही थीं। मूसलाधार वर्षा 
					लगातार जारी थी। नदी किनारों को तोड़ देने को आकुल दिख रही थी। 
					 
					लोग इस आपदा के लिए उस पथिक को उत्तरदायी मान रहे थे जो कुछ 
					दिन पूर्व, अपनी टूटी हुई नाव के साथ इस गाँव के किनारे आ लगा 
					था। उसने गाँव वालों से अपनी नाव की मरम्मत के लिए आग्रह भी 
					किया था, किन्तु उसके आगमन के अगले ही दिन से वर्षा का जो 
					प्रकोप शुरू हुआ, वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। लोग बातें 
					करते थे-उसकी नीयत में खोट है। उसने देवी माँ के हाथ से प्रसाद 
					भी नहीं लिया था। जुम्मन के पके बालों ने नियति की इस विडम्बना 
					को भाँपते हुए, पथिक को अपने घर चलने के लिए कहा था, लेकिन वह 
					नहीं माना था। वह मंदिर के प्रांगण में ही एक किनारे पर बने 
					कच्ची मिट्टी के चबूतरे पर एक वृक्ष के साथ टेक लगाकर बैठा था। 
					 
					एक दिन वर्षा को वेग कम हुआ तो मंदिर में भीड़ भी जुटी। देवी ने 
					पूर्व की भाँति लोगों को दर्शन दिये, और प्रसाद भी वितरित 
					किया। पथिक को प्रसाद देने के लिए देवी स्वयं उसके पास गईं 
					लेकिन उसने प्रसाद लेने से भी इंकार कर दिया। धीरे-धीरे शाम 
					ढलने लगी। मंदिर के प्रांगण में अब सिवाय देवी और पथिक के और 
					कोई नहीं था। देवी ने संकेत से पथिक को अपने पास बुलाया और 
					स्वयं मंदिर के भीतर द्वार की दहलीज के पास चौकी के आसन पर बैठ 
					गईं।  
					 
					-कहाँ से आए हो पथिक? देवी ने पथिक से पूछा।  
					 
					-ऊपर...पहाड़ से। 
					 
					-किस प्रयोजन से आए हो? देवी ने उसकी आँखों में झाँकते हुए 
					पूछा। 
					 
					-भक्त का प्रयोजन अपने इष्ट को प्राप्त करना होता है...और 
					मेरा इष्ट आप हैं। आप...जो साकार हैं। पथिक ने बिना किसी 
					लाग-लपेट के, थोड़ी दृढ़ता के साथ कहा। 
					 
					-तुम जानते हो, ऐसा कहना...ऐसा तो सोचना भी पाप है। देवी अब 
					उठकर खड़ी हो गई थीं।  
					 
					-पाप और पुण्य...विचार के धरातल पर एक ही कामना के दो रूप हैं। 
					वैचारिक परिवर्तन से पाप पुण्य भी हो सकता है, और पुण्य पाप 
					भी। फिर ये पाप और पुण्य शरीर के साथ होते हैं। शरीर के परे 
					क्या है...यह किसने देखा है।  
					 
					-यह संभव नहीं है पथिक...लोगों की आस्थाओं की आहुति किस यज्ञ 
					में डालूँ? देवी के कदम पीछे लौटने को हुए थे। 
					 
					-समर्पण के यज्ञ में...समर्पण में जो आनन्द है, वह पाने में 
					कहाँ, जबकि आस्था प्राप्ति का स्रोत है।...फिर मैं तो आया ही 
					यहाँ इसी लक्ष्य को लेकर हूँ।...यह जो पवन में वेग है, यह जो 
					जल-प्लावन है-यह मेरा ही प्रलाप है, मेरी पीड़ा...क्या आप इसे 
					नहीं समझ रहीं। 
					 
					-यह दुःसाहस है पथिक ! यह ठीक नहीं है। देवी इतना कहकर भीतरी 
					कक्ष में प्रवेश कर गईं। उन्होंने भीतर से कुंडी चढ़ा ली थी। 
					 
					बाहर बादल फिर बरसने लगे थे-मूसलाधार। पथिक पुनः वृक्ष के तने 
					के साथ सटकर बैठ गया था। देवी ने भीतर से झाँका था- एक बार, दो 
					बार...और फिर आँखे बंद कर आसन पर बैठ गईं।  
					 
					भीतर दीवारों पर टँगे ईसा, कृष्णा और बुद्ध के चित्र उनकी बंद 
					आँखों के मार्ग से जैसे उनके मन को मथने लगे थे। ईसा ने जैसे 
					कहा हो-दूसरे की आत्मा को सुख देना, मनुष्य के लिए सर्वोत्तम 
					नैसर्गिक सुखानुभूति के समान होता है। इस सुख के लिए तन 
					और...दोनों को होम करना पड़ता है। 
					 
					देवी ने एक पल के लिए आँखें खोलीं...और फिर बंद कर लीं। इस 
					बार देवी के भीतर से जैसे प्रस्फुटन हुआ...यह शरीर नश्वर है। 
					मन तो पंछी है। आत्मा ब्रह्म है, और यही ब्रह्म परमात्मा में 
					लीन हो जाता है। किसी की आत्मा के लिए संतुष्टि की 
					तलाश...ब्रह्म में लीन होने जैसी होती है। उन्हें लगा, यह स्वर 
					जैसे भगवान कृष्ण का था। 
					 
					देवी ने पुनः आँखें खोलीं तो दृष्टि सामने बुद्ध के चित्र पर 
					अटक गई-किसी को दुख देने से अपनी आत्मा भी विचलित होती है 
					परमात्मा को भी दुख होता है। 
					 
					देवी एकाएक उठ खड़ी हुईं। बाहर जैसे बिजली चमकी थी। उनके चेहरे 
					पर संतोष का एक व्यापक प्रभाव दिखने लगा था। बारिश भी एकाएक थम 
					गई थी...चारों ओर एक सौम्य-सी शांति पसर गई थी। उन्होंने 
					धीरे-से चिटखनी खोली, और धीमे-धीमे कदमों से चलते हुए पथिक के 
					पास पहुँचीं। उन्होंने उसका दायाँ हाथ थामा, और बिना कुछ बोले 
					कक्ष के भीतर ले आईं।  
					 
					-बहुत भीग गये हो पथिक...! भीतर से कोई भी वस्त्र लेकर पहन 
					लो। आज की रात तुम यहाँ विश्राम करोगे...साथ वाले कक्ष में मैं 
					हूँ।...तुम्हारी बातों का उत्तर कल मिलेगा। 
					 
					अगले दिन आकाश पर सूर्य पूर्ण रूप से प्रकट हुआ था। बादलों का 
					कहीं नामोनिशान तक नहीं था। नदी में पानी भी किनारों के भीतर 
					तक सिमट गया था। देवी ने जुम्मन चाचा से पथिक की नाव ठीक कराने 
					को कहा। गाँव से लोगों को बुलवाकर अपने हाथों से प्रसाद वितरित 
					किया। दिन भर मंदिर में चहल-पहल रही। सायं-काल होते-होते देवी 
					आसन लगाकर बैठ गईं। बाहर पथिक की व्यग्रता बढ़ने लगी थी। देवी 
					को जैसे कोई नूर दिखा हो। उन्होंने अपने हाथों से तुलसी के 
					बिरवे की मिट्टी लेकर मूर्ति बनाई, और फिर उसे मंदिर के भीतरी 
					कक्ष में चबूतरे पर टिकाकर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर दी। 
					  
					फिर मन की पूरी दृढ़ता के साथ देवी अपने कक्ष से बाहर निकल आईं। 
					पथिक अभी भी चबूतरे पर बैठा था। देवी ने पास आकर पथिक का हाथ 
					पकड़ा और तेज कदमों से चलते हुए नदी के तट पर बँधी नाव तक पहुँच 
					गईं। देवी ने स्वयं अपने हाथों से नाव की बँधी हुई रस्सी को 
					खोला, और पथिक का हाथ पकड़े नाव में सवार होने के बाद, उसकी 
					रस्सी को दूर तक धकेल दिया। नाव धीरे-धीरे बहते हुए, पानी के 
					साथ-साथ बहने लगी।...और दूर मंदिर की दीवर की ओट में खड़े 
					जुम्मन का हाथ जैसे आशीर्वाद की मुद्रा में उठ गया...जैसे 
					अपनी बेटी को विदा कर रहा हो।   |