अयोध्या नरेश राजा दशरथ के द्वारा चौदह 
					वर्षों के वनवास आदेश के मिलते ही, माता-पिता का चरण स्पर्श कर 
					राजपाट छोड़कर रामचंद्र जी ने सीताजी एवं लक्ष्मण जी के साथ 
					अयोध्या से प्रस्थान किया, उस समय अयोध्या वासी उनके साथ-साथ 
					तमसा नदी के तट तक साथ-साथ गये एवं अपने प्रिय प्रभु को तमसा 
					नदी पर अंतिम बिदाई दी।
					रामचंद्र जी तमसा नदी पार कर वाल्मीकि 
					आश्रम पहुँचे जो गोमती नदी के तट पर स्थित है। प्रतापपुर से २० 
					कि.मी. राई मंदिर के पास बकुला नदी प्रवाहित होती है। वाल्मीकि 
					ऋषि के नाम पर इस नदी का नाम बकुला पड़ा। इसके बाद नदी के तट से 
					सिंगरौल पहुँचे, सिंगरौल का प्राचीन नाम सिंगवेद है। यहाँ नदी 
					तट पर निषादराज से भेंट हुई। इसे निषादराज की नगरी के नाम से 
					जाना जाता है। यह गंगा नदी के तट पर स्थित है। सीताकुण्ड के 
					पास रामचंद्र जी गंगा जी को पार कर श्रृंगवेरपुर पहुँचे, इस 
					श्रृंगवेरपुर का नाम अब कुरईपुर है। कुरईपुर से यमुनाजी के 
					किनारे प्रयागराज पहुँचे। प्रयागराज से चित्रकूट पहुँचे।
					चित्रकूट में राम-भरत मिलाप हुआ था। यहाँ 
					से अत्रि आश्रम पहुँचकर दण्डक वन में प्रवेश किया। दण्डक वन की 
					सीमा गंगा के कछार से प्रारंभ होती है। यहाँ से आगे बढ़ने पर 
					मार्ग में शरभंग ऋषि का आश्रम मिला, वहाँ कुछ समय व्यतीत कर 
					सीता पहाड़ की तराई में बने सुतीक्ष्ण ऋषि से मिलने गये। इसके 
					बाद वे अगस्त ऋषि के आश्रम पहुँचे। उन दिनों मुनिवर आर्यों के 
					प्रचार-प्रसार के लिये दक्षिणापथ जाने की तैयारी में थे। 
					मुनिवर से भेंट करने पर मुनिवर ने उन्हें गुरू मंत्र दिया और 
					शस्त्र भेंट किए। आगे उन्होंने मार्ग में ऋषिमुनियों को विघ्न 
					पहुँचाने वाले सारंथर राक्षस का संहार किया। इसके बाद सोनभद्र 
					नदी के तट पहुँचे, वहाँ से जहाँ मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम है। 
					मार्कण्डेय ऋषि से भेंट कर उन्होंने सोनभद्र एवं बनास नदी के 
					संगम से होकर बनास नदी के मार्ग से सीधी जिला (जो उन दिनों 
					सिद्ध भूमि के नाम से विख्यात था) एवं कोरिया जिले के मध्य 
					सीमावर्ती मवाई नदी (भरतपुर) पहुँच कर मवाई नदी पार कर 
					दण्डकारण्य में प्रवेश किया। मवाई नदी-बनास नदी से भरतपुर के 
					पास बरवाही ग्राम के पास मिलती है। अतः बनास नदी से होकर मवाई 
					नदी तक पहुँचे, मवाई नदी को भरतपुर के पास पार कर दक्षिण कोसल 
					के दण्डकारण्य क्षेत्र,(छत्तीसगढ़) में प्रवेश किया।
					
					दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) में सवाई नदी के तट पर उनके चरण स्पर्श 
					होने पर छत्तीसगढ़ की धारा पवित्र हो गयी और नदी तट पर बने 
					प्राकृतिक गुफा मंदिर सीतामढ़ी हरचौका में पहुँच कर विश्राम 
					किया अर्थात रामचंद्र जी के वनवास काल का छत्तीसगढ़ में पहला 
					पड़ाव भरतपुर के पास सीतामढ़ी हरचौका को कहा जाता है। सीतामढ़ी 
					हरचौका में मवाई नदी के तट पर बनी प्राकृतिक गुफा को काटकर 
					छोटे-छोटे १७ कक्ष बनाये गये हैं जिसमें द्वादश शिवलिंग 
					अलग-अलग कक्ष में स्थापित हैं। वर्तमान में यह गुफा मंदिर नदी 
					के तट के समतल करीब २० फीट रेत पट जाने के कारण हो गया है। 
					यहाँ रामचंद्र जी ने वनवास काल में पहुँचकर विश्राम किया। इस 
					स्थान का नाम हरचौका अर्थात् हरि का चौका अर्थात् रसोई के नाम 
					से प्रसिद्ध है। रामचंद्रजी ने यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर 
					कुछ समय व्यतीत किया इसके बाद वे मवाई नदी से होकर रापा नदी के 
					तट पर पहुँचे। रापा नदी और बनास कटर्राडोल (सेमरिया) के पास 
					आपस में मिलती हैं। मवाई नदी बनास की सहायक नदी है। अतः रापा 
					नदी के तट पर पहुँच कर सीतमढ़ी थाथरा पहुँचे। नदी तट पर बनी 
					प्राकृतिक गुफा नदी तट से करीब २० फीट ऊँची है। वहाँ चार कक्ष 
					वाली प्राकृतिक गुफा है। गुफा के मध्य कक्ष में शिवलिंग 
					स्थापित है तथा दाहिने, बाएँ दोनों ओर एक-एक कक्ष है जहाँ मध्य 
					की गुफा के सम्मुख होने के कारण दो गुफाओं के सामने से रास्ता 
					परिक्रमा के लिये बनाया गया है। इन दोनों कक्षों में 
					राम-सीताजी ने विश्राम किया तथा सामने की ओर अलग से कक्ष है 
					जहाँ लक्ष्मण जी ने रक्षक के रूप में इस कक्ष में बैठकर पहरा 
					दिया था। 
					यहाँ कुछ दिन व्यतीत कर वे धाधरा से 
					कोटाडोल पहुँचे। इस स्थान में गोपद एवं बनास दोनों नदियाँ 
					मिलती हैं। कोटडोल एक प्राचीन एवं पुरातात्विक स्थल है। 
					कोटाडोल से होकर वे नेउर नदी के तट पर बने सीतामढ़ी छतौड़ा आश्रम 
					पहुँचे। छतौड़ा आश्रम उन दिनों संत-महात्माओं का संगम स्थली था। 
					यहाँ पहुँच कर उनहोंने संत महात्माओं से सत्संग कर दण्डक वन के 
					संबंध में जानकारी हासिल की। यहाँ पर भी प्राकृतिक गुफा नेउर 
					नदी के तट पर बनी हुई है। इसे 'सिद्ध बाबा का आश्रम' के नाम से 
					प्रसिद्धी है। बनास, नेउर एवं गोपद तीनों नदियाँ भँवरसेन ग्राम 
					के पास मिलती हैं। छतौड़ा आश्रम से देवसील होकर रामगढ़ पहुँचे। 
					रामगढ़ की तलहटी से होकर सोनहट पहुँचे। सोनहट की पहाड़ियों से 
					हसदो नदी का उद्गम होता है। अतः हसदो नदी से होकर वे अमृतधारा 
					पहुँचे। अमृत धारा में गुफा-सुरंग है। यहाँ कुछ समय व्यतीत 
					किया तथा महर्षि विश्रवा से भेंट की। तत्पश्चात् वे जटाशंकरी 
					गुफा पहुँचे, यहाँ पर शिवजी की पूजा अर्चना कर समय व्यतीत कर 
					बैकुण्ठपुर पहुँचे। बैकुण्ठपुर से होकर वे पटना-देवगढ़, जहाँ 
					पहाड़ी के तराई में बसा प्राचीन मंदिरों का समूह था। सूरजपुर 
					तहसील के अंतर्गत रेण नदी के तट पर होने के कारण इसे 
					अर्ध-नारीश्वर शिवलिंग कहा जाता है। अतः जमदग्नि ऋषि के आश्रम 
					में कुछ समय व्यतीत करने के बाद वे विश्रामपुर पहुँचे। 
					रामचंद्र जी द्वारा इस स्थल में विश्राम करने के कारण इस स्थान 
					का नाम विश्रामपुर पड़ा। इसके बाद वे अंबिकापुर पहुँचे। 
					अंबिकापुर से महरमण्डा ऋषि के आश्रम बिल द्वार गुफा पहुँचे। यह 
					गुफा महान नदी के तट पर स्थित है। यह भीतर से ओम आकृति में बनी 
					हुई है। महरमण्डा ऋषि के आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर वे महान 
					नदी के मार्ग से सारासोर पहुँचे।
					
					सारासोर जलकुण्ड है, यहाँ महान नदी खरात एवं बड़का पर्वत को 
					चीरती हुई पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। कहा जाता है कि 
					पूर्व में यह दोनों पर्वत आपस मे जुड़े थे। रामवन गमन के समय 
					राम-लक्ष्मण एवं सीता जी यहाँ आये थे तब पर्वत के उस पार यहाँ 
					ठहरे थे। पर्वत में एक गुफा है जिसे जोगी महाराज की गुफा कहा 
					जाता है। सारासोर-सर एवं पार अरा-असुर नामक राक्षस ने उत्पात 
					मचाया था तब उनके संहार करने के लिये रामचंद्रजी के बाण के 
					प्रहार से ये पर्वत अलग हो गये और उस पार जाकर उस सरा नामक 
					राक्षस का संहार किया था। तब से इस स्थान का नाम सारासोर पड़ 
					गया। सारासोर में दो पर्वतों के मध्य से अलग होकर उनका हिस्सा 
					स्वागत द्वार के रूप में विद्यमान है। नीचे के हिस्से में नदी 
					कुण्डनुमा आकृति में काफी गहरी है इसे सीताकुण्ड कहा जाता है। 
					सीताकुण्ड में सीताजी ने स्नान किया था और कुछ समय यहाँ व्यतीत 
					कर नदी मार्ग से पहाड़ के उस पार गये थे। आगे महान नदी ग्राम 
					ओडगी के पास रेण नदी से संगम करती है। इस प्रकार महान नदी से 
					रेण के तट पर पहुँचे और रेण से होकर रामगढ़ की तलहटी पर बने 
					उदयपुर के पास सीताबेंगा- जोगीमारा गुफा में कुछ समय व्यतीत 
					किया। सीताबेंगरा को प्राचीन नाट्यशाला कहा जाता है तथा 
					जोगीमारा गुफा जहाँ प्रागैतिहासिक काल के चित्र अंकित हैं। 
					रामगढ़ की इस गुफा में सीताजी के ठहरने के कारण इसका नाम 
					सीताबेंगरा गुफा पड़ा। इसके बाद सीताबेंगरा गुफा के पार्श्व में 
					हथफोर गुफा सुरंग है, जो रामगढ़ की पहाड़ी को आर-पार करती है। 
					हाथी की ऊँचाई में बनी इस गुफा को हथफोर गुफा सुरंग कहा जाता 
					है। रामचंद्रजी इस गुफा सुरंग को पार कर रामगढ़ की पहाड़ी के 
					पीछे हिस्से में बने लक्ष्मणगढ़ पहुँचे। यहाँ पर बनी गुफा को 
					लक्ष्मण गुफा कहा जाता है। यहाँ कुछ समय व्यतीत कर रेण नदी के 
					तट पर महेशपुर पहुँचे। महेशपुर उन दिनों एक समृद्धशाली एवं 
					धार्मिक केंद्र था। यहाँ उन्होंने नदी तट पर बने प्राचीन 
					शिवमंदिर में शिवलिंग की पूजा की थी, इसी कारण से इस स्थान का 
					नाम महेशपुर पड़ा। 
					
					महेशपुर से वापस रामगढ़ में मुनि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। यहाँ 
					उनकी मुलाकात मुनि वशिष्ठ से हुई। मुनि वशिष्ठ से मार्गदर्शन 
					प्राप्त कर चंदन मिट्टी गुफा पहुँचे। चन्दन मिट्टी से रेणनदी 
					होकर अंबिकापुर से 18 कि.मी. की दूरी पर नान्ह दमाली एवं बड़े 
					दमाली गाँव हैं। इनके समीप बंदरकोट नामक स्थान है। यह 
					अंबिकापुर से दरिमा मार्ग पर स्थित है। इस बंदरकोट का नाम 
					दमाली कोट था। कहा जाता है कि असूर राजा दमाली बड़ा दुष्ट हो 
					गया था और इसका अत्याचार बढ़ गया था। सरगुजा के लोक गीत में 
					(देव दमाली बंदर कोट ताकर बेटी बांह अस मोट-राजा दमाली की 
					अत्याचार से मुक्त कराने के लिये बंदरराज केसरी ने दमाली का वध 
					किया) और किले पर कब्जा कर लिया तब से यह बंदरकोट कहलाने लगा। 
					इस किले में बंदर ताल के पास प्राचीन शिवलिंग के अवशेष हैं। 
					कहा जाता है कि यही सुमाली की तपस्या स्थली थी। यहाँ पर एक 
					अंजनी टीला है कहा जाता है कि गौतम ऋषि की पुत्री अंजनी ने, जो 
					हनुमान की माता जी है। इस टीले पर तपस्या की थी। इसी कारण से 
					इस टीले का नाम अंजनी टीला पड़ा। त्रेतायुग में भगवान राम ने वन 
					गमन के समय केसरी वन के जंगलों में अधिकांश समय व्यतीत किया 
					था। जहाँ भगवान राम महर्षि सुतीक्ष्ण के साथ महर्षि दन्तोलि के 
					आश्रम मैनपाट गये थे। बंदरकोट किले के ऊपर से ही बंदरों ने 
					उन्हें अपनी किलकारी द्वारा अपने को समर्पित किया था। बंदरकोट 
					में आज भी बंदरों का झुण्ड मिलता है। 
					रामचंद्र जी बंदरकोट के केसरीवन में 
					सुतीक्ष्ण मुनि से भेंट कर मैनी नदी से होकर मैनपाट पहुँचे, 
					जहाँ महर्षि शरभंग एवं महर्षि दंतोली से मुलाकात की। मैनपाट के 
					मछली पाईंट के पास आज भी शरभंग ऋषि के नाम पर शरभंजा ग्राम है। 
					मैनपाट अपने भौगोलिक आकर्षण के कारण मुनियों एवं तपस्वियों की 
					तपोभूमि रही है। इस पवित्र स्थान में रामचंद्रजी ने वनवास काल 
					रुक कर कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ टाईगर पाईंट भी आकर्षण का 
					केंद्र था। टाईगर पाईंट से मैनपाट नदी निकलती है। इसके बाद वे 
					मैनी नदी से होकर माण्ड नदी के तट पर पहुँचे। मैनी नदी काराबेल 
					ग्राम के पास माण्ड नदी से संगम करती है। यहाँ से वे सीतापुर 
					पहुँचे। सीतापुर में माण्डनदी के तट पर मंगरेलगढ़ पहुँचे। यहाँ 
					नदी तट पर बसे प्राचीन मंगरेलगढ़ के अवशेष मिलते हैं। यहाँ 
					मंगरेलगढ़ी की देवी का प्राचीन मंदिर है। मंगरेलगढ़ से होकर 
					माण्ड नदी के तट से होकर देउरपुर पहुँचे, जिसे अब महारानीपुर 
					कहा जाता है। महारानीपुर में प्राचीन समय में मुनि आश्रम थे। 
					यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ प्राचीन विष्णुमंदिर का 
					भग्नावशेष एवं शिवमंदिर के अवशेष मिलते हैं।
					
					सीतापुर में मंगरेलगढ़, देउरपुर (महारानीपुर) से होकर माण्ड नदी 
					से पम्पापुर पहुँचे। पम्पापुर में किन्धा पर्वत है। रामायण में 
					उल्लेखित किष्किन्धा का यह अपभ्रंश है। किन्धा पर्वत एवं उसके 
					सामने दुण्दुभि पर्वत है। पम्पापुर में स्थित किन्धा पर्वत में 
					राम भगवान की मुलाकात सुग्रीव से हुई थी। यहाँ के पर्वत में 
					सुग्रीव गुफा भी है। दुण्दुभि राक्षस एवं बालि का युद्ध हुआ 
					था। इसी कारण से इन पर्वत का नाम दुण्दुभि एवं किन्धा रखा गया 
					है। पम्पापुर नामक ग्राम आज भी यहाँ स्थित है। पम्पापुर से आगे 
					बढ़ने पर माण्ड नदी के तट पर पिपलीग्राम के पास रक्सगण्डा नामक 
					स्थान है। रक्सगण्डा से ऊपर पहाड़ी से जलप्रपात गिरता है। इस 
					प्राकृतिक स्थान का नाम रक्सगण्डा इसलिये पड़ा कि रक्स याने 
					राक्षस, गण्डा याने ढेर अर्थात् राक्षसों का ढेर को रक्सगण्डा 
					कहा जाता है। वनवास काल में उन्होंने इस स्थल में ऋषि-मुनियों 
					के यज्ञ-हवन में विघ्न डालने वाले उत्पाती राक्षसों का वध कर 
					ढेर लगा दिया था। इसी कारण से इस स्थान का नाम रक्सगण्डा रखा 
					गया है। रक्सगण्डा से माण्ड नदी होकर पत्थलगाँव में १२ किमी. 
					की दूरी पर माण्ड नदी के तट पर बने किलकिला आश्रम पहुँचे। 
					किलकिला में प्राचीन शिवमंदिर है। यहाँ के आश्रम में कुछ समय 
					व्यतीत किया। किलकिला में आज भी मंदिरों का समूह मिलता है तथा 
					किलकिला का नाम रामायण में उल्लेखित हुआ है। 
					यहाँ से वे माण्ड नदी से होकर धर्मजयगढ़ 
					पहुँचे। यहाँ नदी तट पर प्राचीन देवी का मंदिर है जो अंबे 
					टिकरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ से माण्ड नदी से होकर 
					चंद्रपुर पहुँचे। चंद्रपुर माण्ड और महानदी का संगम है। इसी 
					संगम तट पर चंद्रहासिनी देवी का मंदिर बना है, तथा मंदिर के 
					पीछे के भाग में नदी तट पर प्राचीन किले का द्वार है। इसी 
					द्वार के दाहिनी ओर प्राचीन शिवमंदिर का भग्नावशेष है। 
					रामचंद्रजी यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर यहीं से वे 
					माण्डनदी को छोड़कर महानदी के तट से शिवरीनारायण पहुँचे, जहाँ 
					पर जोक, शिवनाथ एवं महानदी का संगम है। शिवरीनारायण में मतंग 
					ऋषि का आश्रम था। मतंग ऋषि की शबर कन्या शबरी के गुरू थे। शबरी 
					छत्तीसगढ़ की शबर कन्या थी, जो मतंग ऋषि के गुरूकुल की आचार्या 
					थी। इन्होंने रामचंद्र जी को वनवास काल में यहाँ पहुँचने पर 
					अपने जूठे बेर खिलाये थे। अतः शबरी-नारायण के नाम से इस स्थान 
					का नाम शबरीनारायण पड़ा जो आज शिवरीनारायण के नाम से प्रसिद्ध 
					है। श्री राम इन्हीं संतों से मिलने यहाँ आये थे। यहाँ पर नदी 
					संगम में शबरीनारायण का प्राचीन मंदिर है। 
					शिवरीनारायण में कुछ समय व्यतीत कर वे वहाँ 
					से तीन कि.मी. दूर खरौद पहुँचे, खरौद को खरदूषण की राजधानी कहा 
					जाता है। खरौद में प्राचीन शिवमंदिर है, जो लक्ष्मणेश्वर 
					शिवमंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस शिवलिंग में लगभग एक लाख 
					छिद्र हैं। यहाँ राम-लक्ष्मण दोनों ने शिवलिंग की पूजा की थी। 
					यहाँ से जाँजगीर पहुँचे। जाँजगीर को कलचुरी शासक जाजल्य देव ने 
					बसायी थी। यहाँ पर राम का प्राचीन मंदिर है। इसके बाद वे 
					महानदी से मल्हार पहुँचे। मल्हार को दक्षिण कोसल की राजधानी 
					होने का गौरव प्राप्त था। यहाँ मंदिरों के प्राचीन अवशेष में 
					मानस कोसलीय लिखा हुआ सिक्का मिला है, जिससे इस स्थान का नाम 
					कोसल होने की पुष्टि करता है। मल्हार से महानदी से धमनी 
					पहुँचे। धमनी में प्राचीन शिवमंदिर है। धमनी होकर बलौदाबाजार 
					तहसील में पलारी पहुँचे। पलारी में बालसमुंद जलाशय के किनारे 
					प्राचीन ईंटों से निर्मित शिवमंदिर है। पलारी से महानदी मार्ग 
					से नारायणपुर पहुँचे, नारायणपुर में प्राचीन शिवमंदिर है। 
					नारायणपुर से कसडोल होकर तुरतुरिया पहुँचे। बालुकिनी पर्वत के 
					समीप बसा तुरतुरिया को वाल्मीकि आश्रम कहा जाता है। 
					वाल्मीकि आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर 
					मुनिवर से मुलाकात कर उनसे मार्गदर्शन लेकर महानदी के तट पर 
					बसे प्राचीन नगर सिरपुर पहुँचे। सिरपुर में राममंदिर एवं 
					लक्ष्मणमंदिर तथा गंधेश्वर शिवमंदिर स्थिापित हैं। सिरपुर से 
					आरंग पहुँचे। महानदी तट पर बसा आरंग में कौशल्या कुण्ड है। कहा 
					जाता है कि कोसल नरेश भानुमंत की पुत्री का विवाह अयोध्या के 
					राजकुमार दशरथ से हुआ था। विवाह बाद राजकुमारी का नाम कोसल से 
					होने के कारण कौशल्या रखा गया। जैसा कि कैकय देश से कैकयी। इस 
					प्रकार विवाह के बाद स्त्री का नाम बदलने की परंपरा की 
					रामायणकालीन जानकारी मिलती है। आरंग माता कौशल्या की जन्मस्थली 
					थी। अतः रामचंद्र जी ने वनवास काल में अपने ननिहाल में जाना 
					पसंद किया था और यहाँ अधिकांश समय व्यतीत किया था । यही कारण 
					है कि महाभारत कालीन मोरध्वज की राजधानी होने के बाद किसी अन्य 
					राजा ने अपनी राजधानी इसे नहीं बनाया था, क्योंकि राम की जननी 
					की जन्म स्थली होने के कारण यह एक पवित्र स्थान माना जाता है। 
					आरंग से लगे हुए मंदिरहसौद क्षेत्र में कौशिल्या मंदिर भी है 
					आरंग में प्राचीन बागेश्वर शिव मंदिर है। यहाँ उनके दर्शन किये 
					फिर आरंग से महानदी तट से होते हुए फिंगेश्वर पहुँचे। 
					फिंगेश्वर-राजिम मार्ग पर प्राचीन माण्डव्य आश्रम में श्री राम 
					ऋषि से भेंट कर चंपारण्य होकर कमलक्षेत्र राजिम पहुँचे। राजिम 
					में लोमस ऋषि के आश्रम गये, वहाँ रुक कर उनसे मार्गदर्शन लेकर 
					कुलेश्वर महादेव की पूजा अर्चना की। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। 
					यहाँ पर सीता वाटिका भी है। इसके बाद उन्होंने पंचकोशी तीर्थ 
					की यात्रा की, जिसमें पटेश्वर, चम्पकेश्वर, कोपेश्वर, 
					बम्हनेश्वर एवं फणिकेश्वर शिव की पूजा की। राजिम राजीवलोचन 
					मंदिर आज भी राजिम तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ एक सुरंग 
					में मंदिर प्राचीन राजिम आश्रम में बना हुआ है, जहाँ प्राचीन 
					शिवलिंग स्थापित है।
					इनके दर्शन कर वे महानदी से रूद्री पहुँचे। 
					रूद्रेश्वर शिव का प्राचीन मंदिर रूद्री में स्थित है। 
					पाण्डुका के पास अतरमरा ग्राम में एक आश्रम है, जिसे अत्रि ऋषि 
					का आश्रम कहते हैं। यहाँ से होकर वे रूद्री गये। रूद्री से 
					गंगरेल होकर दुधावा होकर देवखूँट पहुँचे। नगरी स्थित देवखूँट 
					में मंदिरों का समूह था जिसमें शिवमंदिर एवं विष्णुमंदिर रहे 
					होंगे, जो बाँध के डूबान में आने के कारण जलमग्न हो गए। 
					देवखूँट में कंक ऋषि का आश्रम था। यहाँ से वे सिहावा पहुँचे। 
					सिहावा में श्रृंगि ऋषि का आश्रम है। वाल्मीकि रामायण में कोसल 
					के राजा भानुमंत का उल्लेख आता है। भानुमंत की पुत्री कौशल्या 
					से राजा दशरथ का विवाह हुआ था। इसके बाद अयोध्या में 
					पुत्रयेष्ठि यज्ञ हुआ था, जिसमें यज्ञ करने के लिये सिहावा से 
					श्रृंगी ऋषि को अयोध्या बुलाया गया था। यज्ञ के फलस्वरूप 
					कौशल्या की पुण्य कोख से भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। राजा 
					दशरथ की पुत्री राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री बनी, जिसका नाम 
					शांता था। शांता भगवान राम की बहन थी, जिसका विवाह श्रृंगी ऋषि 
					से हुआ था। सिहावा में श्रृंगी ऋषि के आश्रम के आगे के पर्वत 
					में शांता गुफा है। यही कारण है कि रामचंद्र ने बहन -बहनोई का 
					संबंध सिहावा में होने के कारण अपने वनवास का अधिक समय इसी 
					स्थान में बिताया था तथा यह स्थान उन दिनों जनस्थान के नाम से 
					जाना जाता था।
					सिहावा में सप्त ऋषियों के आश्रम विभिन्न 
					पहाड़ियों में बने हुये हैं। उनमें मुचकुंद आश्रम, अगस्त्य 
					आश्रम, अंगिरा आश्रम, श्रृंगि ऋषि, कंकर ऋषि आश्रम, शरभंग ऋषि 
					आश्रम एवं गौतम ऋषि आश्रम आदि ऋषियों के आश्रम में जाकर उनसे 
					भेंट कर सिहावा में ठहर कर वनवास काल में कुछ समय व्यतीत किया। 
					सिहावा महानदी का उद्गम स्थल है। राम कथाओं में यह वर्णन मिलता 
					है कि भगवान राम इस जनस्थान में काफी समय तक निवासरत थे। 
					सिहावा की भौगोलिक स्थिति, ऋषि मुनियों के आश्रम, आवागमन की 
					सुविधा आदि कारणों से यह प्रमाणित होता है। दूर-दूर तक फैली 
					पर्वत श्रेणियों में निवासरत अनेक ऋषि-मुनियों और गुरूकुल में 
					अध्यापन करने वाले शिक्षार्थियों का यह सिहावा क्षेत्र ही 
					जनस्थान है। जहाँ राम साधु-सन्यासियों एवं मनीषियों से सत्संग 
					करते रहे। सीतानदी सिहावा के दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती 
					है, जिसके पार्श्व में सीता नदी अभ्यारण बना हुआ है। इसके समीप 
					ही वाल्मीकि आश्रम है। यहाँ पर कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा 
					में आगे राम का वन मार्ग कंक ऋषि के आश्रम की ओर से काँकेर 
					पहुँचता है। कंक ऋषि के कारण यह स्थान कंक से काँकेर कहलाया। 
					काँकेर में जोगी गुफा, कंक ऋषि का आश्रम एवं रामनाथ महादेव 
					मंदिर दर्शन कर दूध नदी के मार्ग से केशकाल पर्वत की तराई से 
					होकर धनोरा पहुँचे। 
					गढ़ धनोरा प्राचीनकाल में एक महत्वपूर्ण 
					ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केंद्र था। पुरातात्विक दृष्टि से 
					महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में ६वीं शती ईस्वी का प्राचीन विष्णु 
					मंदिर मिला है, तथा अन्य मंदिरों के भग्नावशेष भी मिले हैं। 
					धनौरा से आगे नारायणपुर पहुँचे। नारायणपुर में अपने नाम के 
					अनुरूप विष्णु का प्राचीन मंदिर है। नारायणपुर के पास राकसहाड़ा 
					नामक स्थान राकस हाड़ा याने राक्षस की हड्डियाँ कहा जाता है 
					वनवास काल के समय श्रीराम एवं लक्ष्मण जी ने ऋषि-मुनियों की 
					तपोभूमि में विघ्न पहुँचाने वाले राक्षसों का भारी संख्या में 
					विनाश किया था और उनकी हड्डियों के ढेर से पहाड़ बना दिया था। 
					यह स्थान आज भी रकसहाड़ा के नाम से विख्यात है। वहीं पर 
					रक्शाडोंगरी नामक स्थान भी है। इसके बाद नारायणपुर से छोटे 
					डोंगर पहुँचे छोटे डोंगर में प्राचीन शिव मंदिर के भग्नावशेष 
					मिले हैं। छोटे डोंगर से होकर प्राचीन काल में बाणासुर की 
					राजधानी बारसूर पहुँचे। बारसूर एक सांस्कृतिक एवं धार्मिक 
					केंद्र है। यहाँ प्रसिद्ध चंद्रादितेश्वर मंदिर, मामा-भांजा 
					मंदिर, बत्तीसा मंदिर तथा विश्व प्रसिद्ध गणेश प्रतिमा स्थापित 
					है। बारसूर से चित्रकोट पहुँचे। चित्रकोट जलप्रपात जो 
					इंद्रावती पर बना हुआ है, यह रामवनगमन के समय राम-सीता की यह 
					रमणीय स्थली रही। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया था। यह राम-सीता की 
					लीला स्थली भी कही जाती है। सीता एवं रामचंद्र के नाम पर एक 
					गुफा भी है। 
					कहा जाता है कि भगवान राम से चित्रकोट में 
					हिमगिरी पर्वत से भगवान शिव एवं पार्वती मिलने आये थे। 
					चित्रकोट होकर नारायणपाल जो इंद्रावती नदी के तट पर बसी 
					प्राचीन नगरी है। यहाँ विष्णु एवं भद्रकाली मंदिर हैं। 
					नारायणपाल से दण्डकारण्य के प्रमुख केंद्र जगदलपुर से होकर 
					गीदम पहुँचे। गीदम के संबंध में किवदंती है कि यह क्षेत्र 
					गिद्धराज जटायु की नगरी थी। गिद्धराज राजा दशरथ के प्रिय मित्र 
					थे। अनेक युद्धों में दोनों ने साथ-साथ युद्ध किया था। अतः 
					रामवनगमन के समय गिद्धराज से मिलने गये थे। गिद्धराज के नाम से 
					इस स्थान का गीदम होने की पुष्टि होती है। रामकथा में उल्लेख 
					मिलता है कि रामचंद्र जी के पर्णकुटी में जाने के पूर्व उनकी 
					भेंट गिद्धराज से हुई थी। 
					गीदम से वे शंखनी एवं डंकनी नदी के तट पर 
					बसा दंतेवाड़ा पहुँचे जहाँ पर आदि शक्तिपीठ माँ दंतेश्वरी का 
					प्रसिद्ध मंदिर है। दंतेवाड़ा से काँगेर नदी के तट पर बसे 
					तीरथगढ़ पहुँचे। तीरथगढ़ में सीता नहानी है। यहाँ पर राम-सीता जी 
					की लीला एवं शिवपूजा की कथा प्रसिद्ध है। तीरथगढ़ एक दर्शनीय 
					जलप्रपात है। इस मनोरम स्थल में कुछ समय व्यतीत करने के बाद 
					कोटूमसर पहुँचे, जिसे कोटि महेश्वर भी कहा जाता है। कोटूमसर का 
					गुफा अत्यधिक सुंदर एवं मनमोहक है। कहा जाता है कि यहाँ वनवास 
					काल के समय उन्होंने भगवान शिव की पूजा की थी। यहाँ प्राकृतिक 
					अनेक शिवलिंग मिलते हैं। कुटुमसर से सुकमा होकर रामारम पहुँचे। 
					यह स्थान रामवनगमन मार्ग में होने के कारण पवित्र स्थान माना 
					जाता है। यहाँ रामनवमी के समय का मेला पूरे अंचल में प्रसिद्ध 
					है। रामाराम चिट्मिट्टिन मंदिर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि 
					राम वन गमन के समय यहाँ भू-देवी (धरती देवी) की पूजा की थी। 
					यहाँ की पहाड़ी में राम के पद चिन्ह मिलने की किवदंती है। 
					रामारम से कोंटा पहुँचे। कोंटा से आठ कि.मी. उत्तर में शबरी 
					नदी बहती है। इसी के तट पर बसा छोटा सा ग्राम इंजरम है। इंजरम 
					में प्राचीन शिवमंदिर रहा होगा। उसके भग्नावशेष आज भी भूमि में 
					दबे पड़े हुये हैं। कहा जाता है कि भगवान राम ने यहाँ शिवलिंग 
					की पूजा की थी। 
					शबरी नदी से होकर गोदावरी एवं शबरी के तट 
					पर बसे, कोंटा से ४० कि.मी. दूर आंध्रप्रदेश के तटवर्ती 
					क्षेत्र कोनावरम् पहुँचे। यहाँ पर शबरी नदी एवं गोदावरी का 
					संगम है। इस संगम स्थल के पास सीताराम स्वामी देव स्थानम है। 
					कहा जाता है कि पर्णकुटी जाने के लिए कोंटा से शबरी नदी के तट 
					से यहाँ राम-सीता वनवास काल में पहुँचे थे। इसके बाद गोदावरी 
					नदी के तट पर बसे भद्रचलम पहुँचे। जहाँ पर्णकुटी (पर्णशाला) 
					है। कहा जाता है कि दण्डकारण्य के भद्राचलम में स्थित 
					पर्णकुटीर रामवनगमन का अंतिम पड़ाव एवं दक्षिणापथ का आरंभ था। 
					पर्णकुटीर आज भी दर्शनीय है। भद्राचलम (आंध्रप्रदेश) में 
					गोदावरी नदी के तट पर बना प्राचीन राम मंदिर (राम देव स्थानम) 
					आज भी दर्शनीय है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर्णशाला 
					(पर्णकुटीर) होने के कारण त्रेतायुग में इस स्थान का विशेष 
					महत्व था। इसी पर्णशाला से सीताजी का हरण हुआ था। इस पर्णकुटीर 
					में लक्ष्मण रेखा बनी हुयी है। इस स्थान के आगे का हिस्सा भारत 
					का दक्षिणी क्षेत्र अर्थात् द्रविणों का क्षेत्र कहा जाता है। 
					इस प्रकार छत्तीसगढ़ की पावन धरा में वनवासकाल में सीताजी एवं 
					लक्ष्मण जी के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम रामचंद्रजी का आगमन हुआ। 
					इनके चरण स्पर्श से छत्तीसगढ़ की भूमि पवित्र एवं कोटि-कोटि 
					धन्य हो गयी।