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                  तुलसी का महत्व 
					
                      डॉ.अनुराग विजयवर्गीय  
                  तुलसी भारतीय 
					घरों में सबसे अधिक पाया जानेवाला पौधा है। यह झाड़ी 
					के रूप में उगता है और १ से ३ फुट ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ 
					बैंगनी आभा वाली हल्के रोएँ से ढकी होती हैं। पत्तियाँ १ से २ 
					इंच लम्बी सुगंधित और अंडाकार या आयताकार होती हैं। पुष्प 
					मंजरी अति कोमल एवं ८ इंच लम्बी और बहुरंगी छटाओं वाली होती 
					है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार 
					पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीले रंग के छोटे काले 
					चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं। नए पौधे मुख्य रूप से 
					वर्षा ऋतु में उगते हैं और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य 
					रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है। इसके बाद इसकी 
					वृद्धावस्था आ जाती है। पत्ते कम और छोटे हो जाते हैं और 
					शाखाएँ सूखी दिखाई देती हैं। इस समय उसे हटाकर नया पौधा लगाने 
					की आवश्यकता प्रतीत होती है। 
					
					तुलसी की 
					जाति-प्रजातियाँ- 
					तुलसी की 
					मुख्य रूप से सात प्रजातियाँ पाई जाती हैं। १-ऑसीमम अमेरिकन 
					(काली तुलसी) गम्भीरा या मामरी। २-ऑसीमम वेसिलिकम (मरुआ तुलसी) 
					मुन्जरिकी या मुरसा। ३-ऑसीमम वेसिलिकम मिनिमम। ४-आसीमम 
					ग्रेटिसिकम (राम तुलसी बन तुलसी)। ५-ऑसीमम किलिमण्डचेरिकम 
					(कर्पूर तुलसी)। ६-ऑसीमम सैक्टम तथा ७-ऑसीमम विरिडी। इनमें 
					ऑसीमम सैक्टम को प्रधान या पवित्र तुलसी माना गया जाता है, 
					इसकी भी दो प्रधान प्रजातियाँ हैं-श्री तुलसी जिसकी पत्तियाँ 
					हरी होती हैं तथा कृष्णा तुलसी जिसकी पत्तियाँ नीलाभ-कुछ 
					बैंगनी रंग लिए होती हैं। श्री तुलसी के पत्र तथा शाखाएँ 
					श्वेताभ होते हैं जबकि कृष्ण तुलसी के पत्रादि कृष्णाभ होते 
					हैं। अधिकांश विद्वानों का मत है कि दोनों तुलसी गुणों में 
					समान हैं। भारतीय संस्कृति में तुलसी के पौधे को पवित्र माना 
					गया है और इसे घर में लगाने की परंपरा है। पुरातन औषधीय 
					ग्रंथों में भी तुलसी के गुणों एवं उसकी उपयोगिता का वर्णन 
					मिलता है। इसके अतिरिक्त ऐलोपैथी, होमियोपैथी और यूनानी दवाओं 
					में भी तुलसी के विभिन्न रूपों का प्रयोग किया जाता है। 
					
					रासायनिक संरचना 
					 
					तुलसी में अनेकों जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें 
					ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं। अभी 
					भी पूरी तरह से इनका विश्लेषण नहीं हो पाया है। प्रमुख सक्रिय 
					तत्व हैं एक प्रकार का पीला उड़नशील तेल जिसकी मात्रा संगठन 
					स्थान व समय के अनुसार बदलते रहते हैं। ०.१ से ०.३ प्रतिशत तक 
					तेल पाया जाना सामान्य बात है। 'वैल्थ ऑफ इण्डिया' के अनुसार 
					इस तेल में लगभग ७१ प्रतिशत यूजीनॉल, बीस प्रतिशत यूजीनॉल 
					मिथाइल ईथर तथा तीन प्रतिशत कार्वाकोल होता है। श्री तुलसी में 
					श्यामा की अपेक्षा कुछ अधिक तेल होता है तथा इस तेल का 
					सापेक्षिक घनत्व भी कुछ अधिक होता है। तेल के अतिरिक्त पत्रों 
					में लगभग ८३ मिलीग्राम प्रतिशत विटामिन सी एवं २.५ मिलीग्राम 
					प्रतिशत कैरीटीन होता है। तुलसी बीजों में हरे पीले रंग का तेल 
					लगभग १७.८ प्रतिशत की मात्रा में पाया जाता है। इसके घटक हैं 
					कुछ सीटोस्टेरॉल, अनेकों वसा अम्ल मुख्यतः पामिटिक, स्टीयरिक, 
					ओलिक, लिनोलक और लिनोलिक अम्ल। तेल के अलावा बीजों में 
					श्लेष्मक प्रचुर मात्रा में होता है। इस म्युसिलेज के प्रमुख 
					घटक हैं-पेन्टोस, हेक्जा यूरोनिक अम्ल और राख । राख लगभग ०.२ 
					प्रतिशत होती है। 
					
					साहित्यिक उल्लेख 
					 
					भारतीय चिकित्सा विधान में सबसे प्राचीन और मान्य ग्रन्थ "चरक 
					संहिता" में तुलसी के गुणों का वर्णन एकत्रित दोषों को दूर 
					करके सर का भारीपन, मस्तक शूल, पीनस, आधा सीसी, कृमि, मृगी, 
					सूँघने की शक्ति नष्ट होने आदि को ठीक कर देता है। भारतीय 
					धर्म गर्न्थों में तुलसी के रोग निवारक क्षमता की भूरी-भूरी 
					प्रशंसा की गयी है ----  
					तुलसी कानन चैव गृहे यास्यावतिष्ठ्ते, 
					तदगृहं तीर्थभूतं हि नायान्ति ममकिंकरा। 
					तुलसी विपिनस्यापी समन्तात पावनं स्थलम, 
					क्रोशमात्रं भवत्येव गांगेयेनेक चांभसा। 
					राजवल्ल्भ 
					ग्रन्थ" में कहा गया है ---- तुलसी पित्तकारक तथा वाट कृमि और 
					दुर्गन्ध को मिटाने वाली है, पसली के दर्द खाँसी, श्वास, हिचकी 
					में लाभकारी है। इसे सभी लोग बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से पूजते 
					हैं। 
					
					आधुनिक शोध 
					विदेशी 
					चिकित्सक इन दिनों भारतीय जड़ी बूटियों पर व्यापक अनुसंधान कर 
					रहे हैं। अमरीका के मैस्साच्युसेट्स संस्थान सहित विश्व के 
					अनेक शोध संस्थानों में जड़ी-बूटियों पर शोध कार्य चल रहे हैं। 
					अमरीका के नेशनल कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट में कैंसर एवं एड्स 
					के उपचार में कारगर भारतीय जड़ी-बूटियों को व्यापक पैमाने पर 
					परखा जा रहा है। विशेष रूप से तुलसी में एड्स निवारक तत्वों की 
					खोज जारी है। मानस रोगों के संदर्भ में भी इन पर परीक्षण चल 
					रहे हैं। आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों पर पूरे विश्व का रुझान इनके 
					दुष्प्रभाव मुक्त होने की विशेषता के कारण बढ़ता जा रहा है। एक 
					अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो गई है कि अब तुलसी के पत्तों से 
					तैयार किए गए पेस्ट का इस्तेमाल कैंसर से पीडित रोगियों के 
					इलाज में किया जाएगा। दरअसल वैज्ञानिकों को "रेडिएशन-थैरेपी" 
					में तुलसी के पेस्ट के जरिए विकिरण के प्रभाव को कम करने में 
					सफलता हासिल हुई है। यह निष्कर्ष पिछले दस वर्षों के दौरान 
					भारत में ही मणिपाल स्थित कस्तूरबा मेडिकल कालेज में चूहों पर 
					किए गए परीक्षणों के आधार पर निकाला गया। कैंसर के इलाज में 
					रेडिएशन के प्रभाव को कम करने के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला 
					"एम्मी फास्टिन" महँगा तो है ही, साथ ही इसके इस्तेमाल से लो- 
					ब्लड प्रेशर और उल्टियाँ होने की शिकायतें भी देखी गई हैं। 
					जबकि तुलसी केपेस्ट के प्रयोग से ऐसे दुष्प्रभाव सामने नहीं 
					आते। 
					
					पारंपरिक 
					मान्यताएँ 
					माना जाता है 
					कि तुलसी के संसर्ग से वायु सुवासित व शुद्ध रहती है। प्राचीन 
					ग्रंथों में इसे अकाल मृत्यु से बचानेवाला और सभी रोगों को 
					नष्ट करनेवाला कहा गया है। मृत्यु के समय तुलसी मिश्रित गंगाजल 
					पिलाया जाता है जिससे आत्मा पवित्र होकर सुख-शांति से परलोक को 
					प्राप्त हो। इसके स्वास्थ्य संबंधी गुणों के कारण लोग 
					श्रद्धापूर्वक तुलसी की अर्चना करते हैं, कार्तिक मास में तुलसी 
					की आरती एवं परिकर्मा के साथ-साथ उसका विवाह किया जाता है। 
					तुलसी को संस्कृत भाषा में ग्राम्या व सुलभा कहा गया है। इसका 
					कारण यह है कि यह सभी गाँवों में सुगमतापूर्वक उगाई जा सकती है 
					और सर्वत्र सुलभ है 
					
					घरेलू उपयोग 
					पेट-दर्द, और 
					उदर रोग से पीड़ित होने पर तुलसी के पत्तों का रस और अदरक का 
					रस बराबर मात्रा में मिलाकर गर्म करके सेवन करने से कष्ट दूर 
					हो जाता है। तुलसी के साथ में शक्कर अथवा शहद मिलकर खाने से 
					चक्कर आना बंद हो जाता है। सिरदर्द में तुलसी के सूखे पत्तों 
					का चूर्ण कपडे में बाँधकर सूँघने से फायदा होता है। वन तुलसी 
					का फूल और काली मिर्च को जलते कोयले पर डालकर उसका धुआँ सूँघने 
					से सिर का कठिन दर्द ठीक होते देखा गया है। केवल तुलसी पत्र को 
					पीस कर लेप करने से सिरदर्द और चर्म रोग व मुहाँसों में लाभ 
					होता है। छोटे बच्चे को अफरा अथवा पेट फूलने की शिकायत होने पर 
					तुलसी और पान के पत्ते का रस बराबर मात्रा में मिलाकर इसकी कुछ 
					बूँदें दिन में कई बार देने से आराम मिलता है। दाँत निकलते समय 
					बच्चों के दस्त से छुटकारा पाने के लिये भी तुलसी के पत्ते का 
					चूर्ण शहद में मिलाकर सेवन कराने से लाभ होता है। सर्दी और 
					खाँसी और दमे में भी तुलसी पत्र का रस उपयोगी पाया गया है। 
					
					अन्य उपयोग 
					बुलेटिन ऑफ 
					बॉटनिकल सर्वे ऑफ इंडिया" में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार 
					तुलसी के रस में मलेरिया बुखार पैदा करने वाले मच्छरों को नष्ट 
					करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है। वनस्पति वैज्ञानिक डॉ. 
					जी.डी. नाडकर्णी का अध्ययन बतलाता है कि तुलसी के नियमित सेवन 
					से हमारे शरीर में विद्युतीय-शक्ति का प्रवाह नियंत्रित होता 
					है और व्यक्ति की जीवन अवधि में वृद्धि होती है। डॉ. के. वसु 
					ने तुलसी को संक्रामक-रोगों जैसे यक्ष्मा, मलेरिया, कालाजार 
					इत्यादि की चिकित्सा में बहुत उपयोगी बताया है। रूसी अनुसंधान 
					कर्ताओं ने यह पुष्टि की है कि तुलसी में अन्यान्य गुणों के 
					साथ-साथ थकान दूर करने वाले गुण भी पाए जाते हैं। इसके नियमित 
					सेवन से "क्रोनिक-माइग्रेन" के निवारण में मदद मिलती है। 
					
					१६ अगस्त २०१०७ 
					अक्तूबर २०१३   |