| 
                       
                        
                      रामबहादुर जी ने एक एजेंट के 
						माध्यम से अपना पुश्तैनी मकान बेच कर अपने बेटों के पास 
						अमेरिका जाने का निश्चय किया था तो आस पास के सभी लोगों को 
						घर की चीज़ें बाँट गए थे। अपने देश से दूर जाना उनकी मजबूरी 
						थी। क्योंकि दोनों बेटे वहाँ जा बसे थे। इस घर से उन्हें 
						बहुत लगाव था पर क्या करते, कैसे उसकी देखभाल करते, विदेश 
						से बार बार आना संभव नहीं था। अपने इस पुश्तैनी घर के 
						अहाते में बहुत से फलों के पेड़ और फूलों के पौधों के साथ 
						एक तुलसी का सुंदर बिरवा भी था जिसको उनकी दादी ने रोपा, 
						माँ ने सींचा और पत्नी ने सहेजा था।  
						 
						घर बेचने के बाद काफी सालों तक उनका देश में आना नहीं हुआ। 
						वहाँ उन्हें हर पल अपना देश, शहर, पुश्तैनी घर, दोस्त व 
						अपने परिवार वाले बहुत याद आते थेl वे मौका ढूँढ ही रहे थे 
						कि उन्हें परिवार में एक विवाह का निमंत्रण पत्र मिला, 
						उनकी खुशी का ठिकाना न रहा! बहुत उत्साह से उन्होंने 
						अमेरिका से सभी नाते रिशतेदारों के लिए ख़रीदारी की और भारत 
						के लिए सपरिवार चल दिये। शादी की चहल-पहल और रौनक के 
						बावजूद वे शहर में अपने पुश्तैनी घर को एक नज़र देखने का 
						लोभ भी संवरण नहीं कर पा रहे थे। सो शादी के बाद एक शाम वे 
						दोनों वहाँ पहुँच ही गए !  
						 
						घर पूरी तरह नयी शकल ले चुका था। जमीन वही थी ...आसपास की 
						खुशबू भी वैसी ही थी, पर संदर्भ, परिवेश ओर लोग बदल गए थे। 
						कुछ पल घर के बाहर नि:शब्द रुककर उन्होंने द्वार खटखटाया। 
						द्वार खुला, सामने एक युगल दंपति था, रामबहादुर जी ने अपना 
						परिचय दिया ओर अपनी भावना बताई तो बड़े सम्मान से मुस्कराते 
						हुए खुले दिल से वे उन्हें भीतर ले गए। घर में बुजुर्ग 
						अम्मा व नन्हें बच्चे उनके इर्द गिर्द आ खड़े हुए। ऐसा 
						बिलकुल नहीं लग रहा था कि वे पहली बार मिल रहें हैं। ढेरों 
						बातें हुईं, चाय पानी के बाद जब उन्होंने चलने की अनुमति 
						माँगी तो उनकी अम्मा ने कहा -- "रुको बेटा साँझ हो गयी है, 
						मैं तुलसी बिरवे पर दिया बाल कर अभी आई और हाँ तुम अच्छे 
						अवसर पर आए हो, आज घर में शालिग्राम जी की पूजा रखी थी, 
						उसका प्रसाद भी लेते जाना। रामबहादुर जी ने भावाकुल हो 
						अपनी पत्नी की ओर देखा, उसकी आँखें नम थीं, रामबहादुर जी 
						की पत्नी कह उठीं -"अम्मा जी हमारा तुलसी का बिरवा है अभी 
						भी?"  
						 
						"हाँ बिटिया, है न! अहाते में तो जरूर नए कमरे बन गए हैं, 
						पर यह तुलसी मैया तो इतनी फैली हुई थीं कि इन्हें काटने को 
						मन न हुआ। आर्किटेक्ट भैया ने अहाते में ही एक छोटा सा 
						गार्डन बना दिया तो हमने आपके द्वारा लगाई इस पावन धरोहर 
						को सहेज लिया अरे आओ न तुम भी दर्शन करो और बहू आई हो तो 
						अपने हाथ से आँगन की तुलसी पर दीपक भी तुम्हीं बाल दो।" 
						 
						रामबहादुर जी और उनकी पत्नी नि:शब्द भावविभोर तुलसी बिरवे 
						के पास खड़े थे। दिया ज्योतित हो चुका था। दूर से आ रही 
						मंदिर की घंटियों की आवाज़ कानों में रस घोल रही थी। हवा के 
						ठंडे झोंकों में बगिया से उड़ी मोगरे गुलाब की खुशबू 
						वातावरण को महका रही थी वे दोनों तुलसी मैया के आगे हाथ 
						जोड़े खड़े थे। उनका भारत आना सफल हो गया था और मन फूल सा 
						हल्का था।  
						 
						राम बहादुर जी मन ही मन सोच रहे थे कि चाहे हम कितने ही 
						आधुनिक हो जाएँ पर यदि विरासत में मिली परम्पराओं को दिल 
						में सहेज लेते हैं तो सारा परिवेश रसमय और पवित्र हो जाता 
						है। यही तो आज के पर्यावरण के लिए जरूरी है। पर्यावरण 
						शुद्ध होगा तो प्रकृति भी हमेशा महकेगी और जीवन में 
						चिड़ियों की चहक सी खुशियाँ भी हमेशा बनी रहेगी।
						
						 
                      ७ अक्तूबर 
						२०१३  |