सुन्दरम, जिसका पूरा नाम एन.एम.सुन्दरम था, और
एन.एम. से क्या बनता था, उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वही नहीं, बल्कि
विभाग के बहुत ही कम लोगों को उसके पूरे नाम की जानकारी थी, लेकिन सभी को यह
जानकारी अवश्य थी कि एन.एम.सुन्दरम क्रूर किस्म का व्यक्ति था। किसी को भी
बेइज़्ज़त करने में वह समय नष्ट नहीं करता था। अपने से बड़े अधिकारियों के समक्ष
अपनी बात के लिए अड़ जाता और विवशता में ही उनकी सुनता। उसके वरिष्ठ भी उससे भय खाते
और बात करते समय उसके प्रति शालीनता प्रकट करना न भूलते थे।
एन.एम.सुन्दरम के बैचलर रहने की कई कहानियाँ विभाग
में प्रचलित थीं। कुछ लोगों का कहना था कि वह अपनी एक सहपाठी, जो केरल की ही थी, से
प्रेम करता था। यह तब की बात थी जब दोनों प्रशिक्षण के लिए मसूरी में थे। लेकिन वह
एक-पक्षीय प्रेम था। सुन्दरम ने कई बार संकेतों में अपने प्रेम का इज़हार किया,
लेकिन हर बार उसने उसके संकेतों की उपेक्षा की। उसने कुछ यों व्यवहार किया था कि
जैसे वह सुन्दरम के संकेत समझ ही न पाई थी। जितना ही वह उसके संकेतों के प्रति
उदासीनता प्रदर्शित करती सुन्दरम उतना ही दूसरों के प्रति उच्छृंखल होता गया। लेकिन
मामला प्रशासनिक पद का था। वे प्रशिक्षण ले रहे थे। किसी के साथ अधिक दुर्व्यवहार
नहीं कर सकते थे। खून का घूँट पीकर उन्होंने उससे मिलना बंद कर दिया था। कहते हैं
तभी उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय किया था।
अधिकारी-कर्मचारी सुन्दरम के कक्ष में प्रवेश से
घबड़ाते थे। कई अफसर ऐसे थे, जो इंटरकॉम में सुन्दरम की आवाज़ सुनते ही उछलकर खड़े हो
जाते और उनका चेहरा पीला पड़ जाता था। बात करते हुए 'सर' 'सर' की गूँज के साथ कितनी
ही बार... 'माई प्लेज़र सर' (यह तो मेरे लिए प्रसन्नता की बात है) कहते और रिसीवर थामे उनके हाथ काँपते रहते थे। पता नही,
यह कितना सच था, लेकिन उस अधिकारी के कमरे में बैठने वाले दूसरे अधिकारी बताते थे
तो सच ही रहा होगा कि सहायक महानिदेशक अविनाश चतुर्वेदी सुन्दरम का फोन सुनने के
बाद प्रसाधन की ओर अवश्य जाता था। एक बार किसी केस को लेकर सुन्दरम अविनाश को फटकार रहा था
और जब वह किसी को फटकारता था तब कक्ष के ध्वनिरोधक होने के बावजूद उसकी आवाज़
कॉरीडोर तक सुनाई देती थी। एक और सहायक महानिदेशक वहाँ उपस्थित था। अविनाश
चतुर्वेदी 'सर-सर' कहता हुआ काँप रहा था। दूसरे अधिकारी के अनुसार उसकी स्वयं की
पिंडलियाँ भी काँप रही थीं, लेकिन डाँट चूँकि अविनाश को पड़ रही थी इसलिए वह
कनखियों से अविनाश को देखता जा रहा था और तभी उसने देखा था कि अविनाश की पैंट गीली
हो गई थी। यह बात सुन्दरम ने भी भाँप ली थी और अपना कालीन गंदा होने से बचाने के
लिए फ़ाइल अविनाश की ओर फेंक वह चीखा था, "बाहर जाओ"।
अविनाश चतुर्वेदी को राहत मिली थी। लाल कालीन पर
पड़ी फ़ाइल उठा अविनाश दरवाज़े की ओर लपका था कि तभी उसे सुन्दरम की आवाज़ सुनाई दी
थी, "केस को ठीक से पढ़कर सात बजे से पहले जमा करो।" उस दिन सुन्दरम का दरबार रात साढ़े नौ बजे
तक लगा था।
और ऐसे व्यक्ति के साथ वह उन दिनों काम करता था। बेशक उसके काम से सुन्दरम प्रसन्न
था, क्यों कि जिस केस को ठीक से पढ़ने के लिए सुन्दरम उसे कहता वह पूरा केस तैयार करके बिना
अपने विभागीय अफसर या सहायक महानिदेशक को दिखाए वह सीधे सुन्दरम को प्रस्तुत करता
था। सुन्दरम का उसके लिए यही आदेश था। और इसीलिए उसे अपने विभागीय अफसर और सहायक
महानिदेशक से प्रताड़ना सहनी पड़ती थी। उन्हें यह आशंका थी कि सुन्दरम से उन लोगों को
मिलने वाली प्रताड़ना का एक कारण वह भी था।
उन दिनों वह ऑडिट विभाग में था। यह महत्त्वपूर्ण
विभाग माना जाता था। दरअसल उसका विभाग ही ऑडिट के लिए था। देश के "प्रर"
विभाग की ख़रीद-खर्च का ऑडिट करने वाला विभाग और सुन्दरम उस महत्त्वपूर्ण विभाग का
पाँचवाँ पाया था। पहला पाया मंत्री था, दूसरा सचिव, तीसरा मंत्रालय का वित्तीय
सलाहकार, चौथा महानिदेशक और पाँचवाँ सुन्दरम। सुन्दरम बाल की खाल निकालने वाला अफसर
था। ऑडिट के दौरान यदि किसी ख़रीद में उसे कुछ गड़बड़ दिखाई देता, वह सौदे को तब तक
आगे नहीं बढ़ने देता था, जब तक उसके द्वारा उठाई गई आशंकाओं का निराकरण नहीं हो
जाता था। उसकी एक खूबी यह भी थी कि वह रिश्वत से दूर रहने वाला व्यक्ति था। वह
प्रायः कहा करता कि वह एक गलत विभाग में फँस गया था। वह वास्तविक आई.ए.एस.
बनना चाहता था। लेकिन उसके वास्तविक आई.ए.एस. के सभी प्रयास व्यर्थ रहे थे।
सुन्दरम का मानना था कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की
ओर चलता है इसलिए तीसरे दर्जे के कर्मचारी को निलंबित करने से भ्रष्टाचार कभी
समाप्त नहीं होगा। कई कार्यालयों का निदेशक रहते हुए और दोषी बाबुओं की जानकारी
होते हुए भी वह उनके विरुद्ध केवल सामान्य अनुशासनात्मक कारवाही से ही संतोष करता
रहा था। वह प्रायः कहता कि वह काम करने के लिए जन्मा था। उसका जीवन बिल्कुल नीरस
था। वह आठ बजे दफ्तर आ जाता और रात नौ बजे से पहले नहीं जाता था। शायद इसीलिए उसका
शरीर फैल गया था और चलते समय उसकी टाँगे फैली रहती थीं। अधिक बैठने के कारण उसका
पेट निकल आया था और चेहरा भी भारी हो गया था। उन दिनों उसकी आयु छप्पन के लगभग थी,
लेकिन इस उम्र के लोगों की अपेक्षा उसके शरीर का विस्तार कुछ अधिक ही था। जाड़े में
वह एक ही सूट में रहता। शर्ट भी उसके पास दो ही थीं। सिगरेट और शराब से वह दूर
रहता। मुस्कराते हुए उसे कम ही देखा गया था और जब कभी वह मुस्कराता तब लोगों में
कुछ उलट-फेर की आशंका उत्पन्न होती थी।
उसके विषय में चर्चा करने वाले कुछ दूसरे लोगों का
कहना था कि वह इस योग्य नहीं था कि विवाह कर सकता। वह शारीरिक रूप से कमज़ोर और
अक्षम था। यह उसकी अक्षमता ही थी जो उसे अपने अधीनस्थों के प्रति दुर्व्यवहार के
लिए प्रेरित करती थी। सच क्या था, यह एन.एम.सुन्दरम के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था।
उसने शादी क्यों नहीं की यह विभाग के लिए महत्त्वपूर्ण बात न थी। महत्त्वपूर्ण था
उसका काम, जिसमें वह दक्ष था। सुशांत जब सुन्दरम की दृष्टि में चढ़ा तब उसने उसकी
सीट से संबन्धित काम के लिए विभागीय अफसर और सहायक महानिदेशक को बुलाना बंद कर दिया।
आगे बढ़ने से पहले उस विभाग के विषय में बताना
आवश्यक है जहाँ सुन्दरम काम करता था या जहाँ सुशांत आज भी कार्य करने के लिए अपने
को अभिशप्त मानता है। वास्तव में यह विभाग 'प्रर' विभाग से संबन्धित विभागों के
वित्त संबन्धी मामले देखता था। खर्च के सभी मदों के लिए 'प्रर' विभाग को उस विभाग
का मुखापेक्षी बनाता था, जिसे संक्षेप में 'रासुल' विभाग कहा जाता था। इसका जन्म
आज़ादी से बहुत पहले हुआ था... उन्नीसवीं शताब्दी में। सुन्दरम में वे अवगुण न थे,
विभाग के अधिकांश अधिकारी जिसका शिकार थे। अधिकांश अधिकारियों के लिए विभाग दुधारू
गाय था। सुन्दरम केवल व्यवहार में ही बुरा था, लेकिन दूसरों की भाँति हृदयहीन न था।
जबकि कुमार राणावत क्रूरता की चरम सीमा तक व्यवहार करता था। कुमार और सुन्दरम में
पर्याप्त अंतर था। कुमार जहाँ सहायक निदेशक से नीचे स्तर के लोगों को अपने
दुर्व्यवहार का शिकार बनाता था, वहीं सुन्दरम किसी को भी नहीं बख़्शता था। कुमार का
अपना सुखी परिवार...पत्नी, बेटा-बेटी थे। बेटी को उच्च शिक्षा के लिए वह लंदन भेजने
वाला था, जबकि सुन्दरम अविवाहित था।
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