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                       दिल्ली आने के कोई
                      लगभग एक साल बाद, अपना छोटा-मोटा सामान
                      वहीं छोड़कर जिनके घर रहता था और कुछ कपड़े लेकर
                      मैं वापस जाने को निकल पड़ा। एक हल्की अटैची . .
                      .पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर बाबा वहीं मिल
                      गया जहां उसने मिलने को कहा था। घड़ी बेचकर
                      मुझे जो चालीस रूपए मिले थे उनसे एक बोतल रम
                      ख़रीद चुका था जो अटैची में थी। बाबा वैसे तो
                      अच्छी-ख़ासी अफ़ीम खाए हुए था पर पीने के लिए तैयार
                      हो गया। पर रेलवे स्टेशन पर पीना थोड़ा कठिन काम
                      था। हम टहलते हुए प्लेटफ़ार्म के कोने में आ गए।
                      वहां एक वीरान से शौचालय के पास लगे नल से
                      कुल्लढ़ में पानी लिया और चालाकी से उसमें रम
                      मिलाई। वैसे अंधेरा हो रहा था। "यार, चेयर्स नहीं कर सकते। साले कुल्लढ़ टूट
                      जाएंगे।" मैंने बाबा से कहा।
 "चेयर्स करना ज़रूरी है। तुम्हारी नयी ज़िंदगी
                      शुरू होने जा रही है।" हमने पूरी एहतियात से
                      'चेयर्स' किया। उसके बाद कुल्लढ़ पर कुल्लढ़ चढ़ने
                      लगे। यह ज़ाहिर था कि मैं अपने साथ रम की बोतल
                      नहीं ले जा सकता था।
 "तुम्हें ट्रैक्टर ख़रीदने में दो साल
                      लगेंगे।" बाबा बहुत गंभीरता से बोला।
 'ट्रैक्टर' यह शब्द जब से मैंने बाबा की जुबान से
                      सुना है मुझे बहुत प्यारा लगने लगा है-
                      ट्रैक्टर।"
 "महंगा आता होगा यार . . ."
 "हां," लाख डे़ढ लाख के आसपास . . .लेकिन
                      ग्रामीण बैंक बहुत सस्ती दरों पर कर्ज़ दे देते हैं।
                      मेरे गांव में जिन्होंने ख़रीदे थे तीन-चार साल
                      में ही कर्ज़ चुका डाला था। भाड़े पर ट्रैक्टर चलाओ
                      तो सौ रूपया रोज़ कहीं नहीं गया।"
 "बाबा, मेरे जम जाने के बाद तुम आना ज़रूर
                      . . ."
 "नहीं . . .मैं नहीं आऊंगा।" वह मेरी बात
                      काटकर बड़ी गंभीरता से बोला।
 "क्यों?"
 "मैं अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हूं।"
                      वह बड़े विश्वास से बोला।
 "अच्छा?"
 "हां।"
 "पर कैसे?"
 वह हंसा। "मैं 'क्षितिज' में काम करनेवाला
                      हिंदी का टाइपिस्ट . . .दो सौ दस रूपए वेतन पानेवाला
                      और दो बच्चों का खर्च उठानेवाला आदमी बहुत
                      असंतुष्ट हूं अपने जीवन से?""अच्छा?"
 "देखो, मैंने अपना पूरा जीवन अपने बच्चों
                      को दे दिया है। बच्चे . . .तुम समझे? नहीं
                      समझोगे जब तक तुम्हारे बच्चे न होंगे . . .तो
                      अपना पूरा जीवन और भविष्य अपने बच्चों को दे
                      दिया है। मेरे लड़के की हाईस्कूल में पोज़ीशन आई
                      है। और लड़की को मिरांडा हाउस में बिना किसी
                      सिफ़ारिश के दाखिला मिला है। वह आइ .ए .एस .में
                      बैठना चाहती है। लड़का मेडिकल में जाना चाहता है .
                      . .। अब मैं अपने लिए कुछ नहीं हूं . . .सिर्फ़ एक
                      चलता-फिरता ढांचा जो केवल एक इच्छा पूरी होने के
                      लिए जी रहा है। मैं अगर अपने बच्चों को ग़रीबी
                      और अपमान भरे जीवन से निकाल सका तो यही मेरा
                      'ट्रैक्टर' होगा और यही दक्षिण भारत की यात्रा . .
                      .समझे?"
 "हां . . .समझ गया।"
 "मैं और कुछ नहीं कर सकता . . .देखो मेरी लड़की
                      की इंग्लिश इतनी अच्छी है कि बिना इंग्लिश स्कूल में
                      पढ़े ही उसे इंग्लिश में सबसे अच्छे नंबर मिलते
                      हैं।"
 "लो, पियो।" मैंने उसे और दी।
 "क्या बजा है?"
 " . . .ओहो . . . चलो अब ट्रेन जानेवाली
                      होगी। पर रिज़र्वेशन है।" मैं घड़ी देखकर
                      बोला।
 "सुनो।"
 "हां।"
 "एक वायदा करो।"
 "क्या?"
 "दिल्ली नहीं लौटोगे।"
 "मैं तुमसे पक्का और सच्चा वायदा करता हूं।
                      कसम खाता हूं . . .कि दिल्ली कभी नहीं लौटूंगा . .
                      .मतलब रहने या काम करने . . ."
 "शाबाश।" वह चिल्लाया। और बोतल ही
                      मुंह से लगा ली। उसके बाद बोतल मैंने मुंह से
                      लगाई।
 मैं डिब्बे में चढ़ने
                      ही वाला था कि बाबा ने मेरा कंधा पकड़ लिया।"क्या है।" मैंने पूछा। क्योंकि वह अजीब
                      नज़रों से मेरी तरफ़ देख रहा था।
 "इस शहर पर थूक दो।"
 "क्या?" मेरी समझ में नहीं आया।
 "थूक दो . . .इसके ऊपर . . ."
 "मैं समझा नहीं।"
 "इस शहर पर "आक थू . . ." उसने
                      प्लेटफ़ार्म पर थूका।
 अब मैं समझा। वह चाहता था मैं शहर पर थूक दूं।
                      मैंने भी प्लेटफ़ार्म पर ज़ोर की आवाज़ करते हुए
                      थूक दिया। फिर उसने थूका। हमारे बीच एक
                      प्रतियोगिता-सी होने लगी और तब ट्रेन खिसकने
                      लगी और मैं दौड़कर डिब्बे में चढ़ गया।
 *** जिस तरह युद्ध में हारे
                      हुए सिपाही घर लौटते हैं उसी तरह ज़ख्मी, अपमानित,
                      भूखा, निराश, आस्था और भविष्यहीन मैं अपने घर
                      लौटा। न किसी को देने के लिए कोई तोहफ़ा और न
                      बताने के लिए कोई बात। न पिछले एक साल की कोई
                      ऐसी याद जो ताज़ा करती रहे। बस एक आवाज़ है जो
                      चिपक गई है . . .हार गए . . .पराजित हो गए . . .।
                      शिकस्त हो गई . . . डिफीट हो गई . . .खाट खड़ी हो
                      गई . . .क्या पाने गए थे यह भी याद नहीं . . .।
                      यही अच्छा है जान बच गई . . .ख़ैर से बुद्धू घर को
                      आए . . .दिल्ली में दर्जनों लावारिस कुचल कर रोज़
                      मर जाते हैं दैत्याकार, द्रुतगामी यांत्रिक आकृतियों
                      के नीचे। कहीं एक बूंद खून का निशान भी नहीं
                      मिलता। गए थे राजधानी जीतने
                      हा-के-हा-हा . . .गए थे अपनी प्रतिभा और मेहनत के
                      बल पर समय चेहरे पर कुछ लिखने . . . हा-हा-हा-हा
                      . . .गए थे पत्रकार बनने और ले आए काली खांसी और
                      पेचिश और दे आए अपना आधा वज़न और जाने
                      क्या-क्या।बुरा मत मानो, कह दो चीखकर कि मैं हार गया . .
                      .बस चौबीस साल की उम्र में हार गया। चिल्लाकर कह
                      दो कि राजधानी ने मुझे हरा दिया।
 वही हुआ जो
                      राजधानियां अकेले-दुकेलों के साथ करती हैं।ऊंची आवाज़ में ये भी कहा जा सकता है कि कोई
                      बड़ा आदमी मेरा रिश्तेदार था . . .ऊंचे ओहदेदारों
                      को मैं नहीं जानता। उद्योग में और अपराधजगत में
                      कोई 'सोर्स' नहीं है। मैं किसी को खुश करने की
                      कला नहीं जानता और थोड़ी-बहुत शर्म भी है जो
                      आड़े आती है। इतनी हिम्मत भी नहीं है कि दूसरों का
                      निवाला छीनकर खा जाऊं और इतना कमज़ोर भी नहीं
                      बन सका कि अपने को कीड़ा समझकर जी लेता। इसलिए
                      मैं हार गया। खुलकर कहो कि चालाकी और मक्कारी से,
                      बेईमानी और धोखेधड़ी से, चतुराई और
                      कमीनेपन से, स्वार्थ और धृष्टता से, छल और छद्म
                      से, चोरी और सीनाज़ोरी से, अन्याय और
                      अत्याचार से हार गया . . .हार गया . . .सौ बार
                      कहो, हज़ार बार कहो, लाख बार कहो, कहते रहो . .
                      .। मैं पसीने-पसीने हो गया . . .अचानक जावेद
                      कमाल का एक शेर याद आया . . .
 'भले से हारे जो हारे हमीं तो हार गए
 लो आप जीत गए कजकुलाह कर लीजिए।'
 "मियां ईरान में
                      रस्म थी कि जीतनेवाला अपनी टोपी तिरछी कर लिया करता
                      था। तो ये है कजकुलाह . . .तो मियां ये जीत और
                      हार है क्या? कौन जानता है कि हारनेवाला हारता है
                      या जीतता है? और फिर जीतने की क्या अहमियत है?
                      लाखों-करोड़ों, खरबों साल से या पता नहीं
                      कबसे चली आ रही इस दुनिया में पता नहीं कितने
                      लोग आए और गए . . .। हारे और जीते और हारे . .
                      .पता नहीं कब तक कितने और आएंगे . . .पता नहीं
                      कितने इंकिलाब आए, तहज़ीबें उजड़ीं और सल्तनतें
                      बर्बाद हुईं, बड़े-बड़े नेस्तनाबूद हो गए,
                      'जमीं खा गई आसमां कैसे-कैसे' . . .वे पीक
                      उगलदान में थूककर बोले थे। मियां एक बहुत
                      मशहूर इस्लामी जरनल था जिसने फुतूहात का ढेर लगा
                      दिया था। जिधर जाता फतेह उसका बढ़कर इस्तिक़बाल करती
                      थी। पूरब, पच्छिम, उतर, दक्खिन, जहां गया
                      सिर्फ़ कामयाब हुआ। उसके नाम का मतलब ही
                      कामयाबी, जीत, फतेह और विक्ट्री। तो जनाब उसने
                      यह वसीअत की थी कि उसकी मौत के बाद जब चार लोग
                      उसे कंधों पर उठाकर कब्रिस्तान की तरफ़ ले जाएं तो एक
                      आदमी जनाज़े के आगे-आगे यह कहता हुआ चले कि
                      देखो पूरब, पच्छिम, उतर, दक्खिन फतेह करनेवाला
                      चार लोगों के कंधों पर जा रहा है . . .यही उसकी
                      फुतूहात का हासिल . . .। सिकंदरे आज़म को तुम क्या
                      मानोगे? यार मुझे तो उससे बड़ी हमदर्दी है। और
                      ज़ाहिर है हमदर्दी जीते हुए आदमी से नहीं होती।
                      बेचारे ने दर-ब-दर की ठोकरें खाईंं और मिला क्या
                      परदेस में मौत . . .यही फतेह है क्या? तो मियां
                      पहले तो ये तय करो कि हार और जीत है क्या?" हां, जीतता कौन है?
                      शुद्ध लाभ किसे होता है? शुद्ध लाभ मतलब अर्थ
                      लाभ, पद्लाभ, प्रतिष्ठा लाभ, सम्मान लाभ या
                      कोई और लाभ? परिभाषाएं भोंथरी हैं। किस रास्ते
                      पर चलोगे तो मंज़िल मिलेगी? सोच लो कहीं
                      वही मंज़िल न हो जहां से यात्रा शुरू की हो? और
                      कहीं चलनेवाला ही मंज़िल हुआ तो? . . .सोचने
                      के कई तरीके, पहलू, अंदाज़ और ढंग और आज़ादी न
                      होती तो कुछ न होता। |