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                       "यार, मैं पत्रकार
                      बनना चाहता हूं और कुछ . . ." "पत्रकार बनकर तुम क्या उखाड़ लोगे?"
 "क्या मतलब है तुम्हारा?"
 "देखो अख़बारों के मालिक सेठ हैं या ऐसे ग्रुप
                      हैं जो किसी विचारधारा के अंतर्गत बनाए गए हैं। या
                      बने हैं जैसे 'होराइज़न' आदि।"
 "तुम्हारा मतलब है जो पत्रकार जिसकी खाता है उसकी
                      बजाता है?"
 "बिल्कुल . . .तुम छुटपुट कर लो . . .लेकिन यहां
                      रहते हुए सोवियत यूनियन या सी .पी .आई .के
                      विरूद्ध कोई स्टैंड लेकर नहीं चल सकते।"
 "हां, ये तो है।"
 "यह पूरा तो नहीं लेकिन बड़ी हद तक भ्रम है कि
                      पत्रकारों को स्वतंत्रता है। वे जो चाहे लिख सकते हैं।
                      ऐसा कुछ नहीं है। अब तुम अपनी जान जोखिम में
                      डालकर यहां मतलब इस पेशे में आ ही गए और तुम्हें
                      बाद में पता चला कि तुम जिस कारण आए हो उसका
                      कोई आधार ही नहीं है तो तुम्हारा सहारा प्रेस क्लब का
                      'बार' ही होगा। पैसा इस पेशे में खूब है। अंधा
                      पैसा है यदि तुम कमाना चाहो . . .बहुतसे
                      ईमानदार हैं पर उससे क्या फ़र्क पड़ता है . . .इन
                      लोगों ने, पत्रकारों ने अपने आपको महिमामंडित
                      किया हुआ है ताकि अख़बारों की साख बची रहे . . .उनका
                      सम्मान होता रहे . . .और गाड़ी चलती रहे।"
 "चायवाले लौंडे को देखता हूं . . .अगर हो तो
                      चाय पी जाए।"
 "हां, देखो।"
 मैं उठकर गया तो देखा, चायवाला जा चुका है।
                      वापस आ गया।
 "यह बताओ गांव में तुम्हारे माता-पिता रहते
                      हैं।"
 "नहीं, वे शहर में रहते हैं।"
 "गांव में घर तो होगा।"
 "हां, काफ़ी बड़ा घर है।"
 "तो वहां आराम से रह सकते हो।"
 "हां क्यों नहीं?"
 "सोचो यार सोचो . . .क्यों भाग रहे हो
                      अपने गांव या अपने शहर से? क्यों? एक झूठी
                      प्रतिष्ठा के चक्कर में? तुम्हारे साथ वह दिक्कत भी नहीं
                      है जो मेरे साथ थी। मेरे पास गांव में सिवाय
                      कर्ज़ के कुछ नहीं था। मैं वहां से न भागता तो मर
                      जाता . . .समझे? . . .देखो, न केवल तुम खुद ही
                      जाओ बल्कि दो-चार अपने जैसों को यहां से और
                      ले जाओ . . .।"
 बाबा के कारण नहीं
                      बल्कि लगभग दस महीने के खट्टे-मीठे अनुभवों के
                      कारण मुझे यह अच्छी तरह पता चल गया था कि पत्रकारिता
                      को मैं जो समझता था और जिस तरह की आशाएं
                      थीं, वे बड़ी हद तक ठीक नहीं हैं। यहां भी लगभग
                      वही सब कुछ है जो दूसरी नौकरियों में है।
                      'ग्लैमर' तो अवश्य है। पर क्या मैं वही चाहता हूं?
                      पैसा भी है? तो क्या मैं पैसे के
                      लिए यहां आना चाहता हूं। पैसा तो खेती में बहुत है।
                      अगर मैं आलू और घुइयां की खेती करने लगूं तो
                      लखपती बन जाऊंगा। और यहां की तुलना में मेरा
                      जीवन बड़ा अच्छा होगा। तो ज़ाहिर है मैं पैसे के
                      लिए यहां नहीं आया हूं। तो आदर्श ही पूरे न होंगे
                      और उतना पैसा भी न मिलेगा जितना बहुत आसानी
                      से गांव में मिल सकता है। तो मैं यहां क्या करूं?
                      मरने के लिए? 'ग्लैमर' के लिए? पर वह मुझे नहीं
                      चाहिए . . .और ये शहर है? लानत है इस पर . .
                      .लानत है। बसों में लोग इस
                      कदर भर जाते हैं कि बच्चे कुचल जाते हैं, औरतों के
                      चोटें लग जाती हैं, बू़ढे ज़ख्मी हो जाते हैं और
                      किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। वाह बाबुओं के
                      शहर वाह . . .सुना है यह कलकते में नहीं हो
                      सकता . . .बंबई में भी नहीं हो सकता . . .लेकिन
                      राजधानी में हो सकता है . . .और अपमान? दफ़्तर के
                      चपरासियों से लेकर हर राह चलता आदमी बस दूसरे
                      का अपमान करना चाहता है। वह आपके कपड़े देखता है और
                      आपकी दो टके की इज़्ज़त को पहचान लेता है, और
                      अपमान कर देता है। बात 'तू' से शुरू होती है और
                      मारपीट तक आ जाती है। कोई किसी के पचड़े में नहीं
                      पड़ना चाहता और ताकतवर हमेशा कमज़ोर पर झपटता है।
                      कमज़ोरों का नरक है यह शहर . . .लानत है इस पर . .
                      .यार यहां कौन लोग बसते हैं, समझ में नहीं
                      आता। किसी को किसी से, अपने अलावा, न लेना है
                      न देना है। न किसी को शहर से लगाव है न मोहल्ले
                      से प्यार है। मैं यहां क्यों हूं? और क्या कर रहा
                      हूं? लानत है इस सब पर क्योंकि जब पेट और जेब
                      दोनों, खाली होते हैं तो चांद तक रोटी नज़र आने
                      लगता है। रात में खाली पेट पानी पीकर सोने की कला
                      अब तक नहीं आ सकी है हालांकि लोग बताते हैं कि
                      मुश्किल नहीं है। बाबा बेवकू़फ़ी और
                      समझदारी की अच्छी चटनी है। साला कभी-कभी बहुत
                      दोटूक और खरी बात कहता है- "दो हाथ, यदि
                      आदिम तरीके से ही ज़मीन में खेती करें तो इतना अन्न
                      पैदा कर सकते हैं कि उसे अकेला आदमी पूरी तरह खा नहीं
                      सकता। तो यह प्रकृति का नियम है कि एक मनुष्य अपनी
                      आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर सकता है। तो यह सब
                      जो हमारे चारों ओर महान चुतियापा हो रहा है,
                      यह प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है। प्रकृति भूखा नहीं
                      मारती। भूखा तो हम ही एक दूसरे को मारते हैं।
                      करोड़ों हेक्टर ज़मीन बेकार पड़ी है। तुम्हें मालूम
                      है विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि हर तरह की
                      ज़मीन पर खेती हो सकती है। तो करोड़ों हेक्टर
                      ज़मीन पर काम करने के लिए करोड़ों हाथ भी उपलब्ध
                      हैं तो फिर ज़मीन बेकार क्यों पड़ी है और करोड़ों
                      पेट खाली क्यों हैं? बताओ?""यार तुम अफीमची न होते तो आदमी थे काम
                      के।"
 "चुतियापा न करो . . .बात का जवाब दो।"
 "जवाब हो तो दूं . . .। तुम्हारी बातें लाजवाब
                      हैं।"
 "तो तुम यहीं मरते रहोगे? इसी शहर
                      में?"
 "अब यार . . .देखो . . ."
 "मेरी बात मानो . . . दुआएं दोगे। मेरे साथ
                      के लड़कों में जो गांव में रह गए हैं आराम से
                      हैं। अरे यार, एक भैंस ही पाल लो . . .फिर देखो . .
                      ."
 "सुना है मुश्किल काम है?"
 "फ्रीलांिंसग से मुश्किल तो नहीं है।"
 हम दोनों हंसने लगे।
 "देखो जिसका कोई सहारा न हो . . .मतलब शहर
                      आकर संघर्ष करके जीवित रह पाना अकेला रास्ता हो . .
                      .वह ठीक है आए और यहां लेकिन तुम क्यों वह सब
                      करो, मरो, जबकि तुम्हारे पास रास्ता है।"
 बाबा से फ़ुरसत के
                      वक़्त ऐसी बातें सुनने में मज़ा आता है कि अच्छे
                      सपने देखे जा सकते हैं। ऐसा जीवन है जहां खाने की
                      कमी नहीं है। अंडे-मु़र्गी और दूध, दही की कमी
                      नहीं है। कड़ी शारीरिक मेहनत है तो उसका पूरा
                      मुआवज़ा भी मिलता है। आज़ादी है और सब काम
                      अपनी मर्ज़ी से किया जाता है। बाबा से बातें एक
                      अजीब तरह के नये जीवन के सुनहरे धागों को
                      खोलने लगती हैं। वह कहता है - तुम शादी भी कर
                      लेना . . .किसी अच्छी औसत दर्जे की पढ़ी-लिखी,
                      सुंदर और सुशील लड़की से जो गांव में तुम्हारे
                      साथ रहे। उसे ट्रैक्टर चलाना सिखा देना। वह तुम्हारे
                      खेत जोत दिया करेगी। तुम्हारे लिए खूब गाढ़े दही की
                      लस्सी बनाएगी और रात में तुम्हारे बिस्तर को इतना
                      ग़र्म कर देगी कि जनवरी की रातें बहुत प्यार से कट
                      जाएंगी। और फिर तुम्हारे पास पैसा होगा। फसल कटने
                      के बाद दो-तीन हफ़्ते के लिए तुम अपनी पत्नी के साथ
                      जहां चाहो जा सकते हो। कभी दक्षिण भारत में समुद्र
                      तट पर, कभी कश्मीर और कभी यहां भी आ सकते हो।
                      पैसा हो तो क्या नहीं हो सकता। इंपीरियल होटल में
                      रह सकते हो। टैक्सियों में घूम सकते हो। तब दिल्ली
                      का मज़ा आएगा। ये डी .टी .सी .की बसों में लटकते
                      हुए, जान हथेली पर लिए बसों की यात्रा से पीछा
                      छूटेगा।   यार यहां कोई किसी को उठाता तक नहीं। कल एक
                      अधेड़-सा आदमी बस पर चढ़ने की कोशिश में
                      फिसलकर गिर गया। उसके पीछे जो आदमी थे वे उसकी
                      पीठ पर पैर रखकर तेज़ी से बस में चढ़ गए। इस साले
                      शहर को क्या कहोगे जहां आदमी के लिए दूसरे आदमी
                      के दिल में कोई जगह नहीं है। यह तो साला शहर भी
                      नहीं है। एक हरामी औलाद है . . .जो छोटे शहर और
                      महानगर के अनैतिक 'क्रास' से पैदा हुई है। यह घोड़े
                      और गधे के मेल से बना खच्चर भी नहीं है क्योंकि
                      खच्चर उपयोगी है। यह मिठाई और नमकीन से मिलकर
                      बना ऐसा खाना है कि जिसे तुम ज़बान पर भी नहीं
                      रख सकते। यहां रहते रहोगे तो एक दिन तुम भी खूंखार
                      जानवर बन जाओगे। दिल्ली का इतिहास देखो . . .कभी
                      यह शहर दिल्ली रहा होगा। अब तो यह भ्रष्ट दलालों .
                      . .मैं राजनीतिज्ञों को दलाल ही मानता हूं . .
                      .का शहर है। भड़वों, रंडिओं और षड्यंत्रकारियों
                      का शहर है। रहस्यों और बेजोड़ तिकड़मों का शहर है।
                      इसका कोई 'कल्चर' नहीं है, जो पुराना 'कल्चर' था
                      वह पुरानी दिल्ली में कैद हो गया है। बाहर से जो
                      लोग आए हैं या आते हैं उनके लिए दिल्ली परदेश है
                      और दिल्ली के लिए उनके मन में कुछ नहीं है। जैसे
                      क्रूर आदमी के मन में वेश्या के लिए कुछ नहीं होता।
                      यह शहर किसका है? मतलब आज जो दिल्ली है, इसमें
                      बाबू हैं, इसमें पाकिस्तान से आए शरणार्थी हैं,
                      इसमें हरियाणा से आए जाट बस कंडक्टर और ड्राइवर
                      हैं। इसमें पश्चिमी उतर प्रदेश से आए छोटे-मोटे
                      कर्मचारी या दुकानदार हैं। इन सबका दिल्ली 'घर' नहीं
                      है। दिल्ली इनका देश नहीं है। मेरा नहीं है। तुम्हारा
                      नहीं है।   दिल्ली किसी का देश है तो पुरानी दिल्ली की
                      गलियों, गंदी गलियों, उपेक्षित मोहल्लों में
                      रहनेवालों का है, चांदनी चौक के पुराने
                      महाजनों, दुकानदारों का है, लेकिन उनकी दिल्ली
                      यह दिल्ली नहीं है जिसमें आज हम और तुम रहते हैं।
                      यह दिल्ली तो किसी की नहीं है। यही वजह है कि लोग
                      निर्मम हैं। क्रूरता और अपमान और स्वार्थ और घृणा
                      और तिरस्कार और भ्रष्टाचार और अनैतिक तरीके से वह
                      सब प्राप्त करना जो चाहिए-इस शहर का बुनियादी
                      चरित्र है। राजनीतिक सता और उसकी शतरंजी चालों
                      ने भी इस शहर को एक चरित्र दिया है . . .तो तुम यहां
                      रहकर पत्रकारिता करना चाहते हो? स्वागत है तुम्हारा पर इस
                      शहर में कुछ भी करने से पहले जनसंपर्कों का
                      ताना-बाना बनाना होगा, सफलता के लिए 'गॉड
                      फादर' चाहिए होंगे। उनके पैर चाटने होंगे . . .तुम
                      बहुत बड़े पत्रकार हो सकते हो। मैं यह नहीं कहता कि
                      यहां जो भी सफल हुआ है इस तरह हुआ है। लेकिन यह
                      अवश्य कह सकता हूं कि यहां सफलता प्राप्त करने का कोई
                      'राज़' है तो यही है। पत्रकारिता में, राजनीति में,
                      व्यापार में-किसी भी क्षेत्र में पहले एक 'गॉड फादर'
                      बनाओ . . .कांग्रेस के किसी मंत्री को जानते हो?
                      इंदिराजी के दरबार तक पहुंच है? नहीं है। जब ही तो
                      पिछले . . .। कितने? ग्यारह महीने से जूते घिस रहे
                      हो . . .। |