"कप्तान
साब, जी भरा या नहीं? "
"बस, एक कमी रह गई।"
"क...कौन-सी?" कलेजा धक्क-से रह गया कमला बुआ का। शब्द हलक़ में फँसकर रह गए।
"यही कि कमला के नँवासे की शादी की महफ़िल हो और कमला का ही कोई ठुमरी-टप्पा न
हो।"
जाती हुईं साँस लौटी कमला बुआ की। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि यह मरा कप्तान
साब बरसों से धूल खाई, उदास पड़ी सारंगी के तारों को इतनी बेरहमी से छेड़ देगा।
एक पल के लिए मन के ढीले पड़े तार कसते चले गए।
"कप्तान साब, अब कहाँ याद है ठुमरी-टप्पा।" टालते हुए बोली बुआ।
"कमला, ऐसे ना बनाओ।" एसएसपी राठौर ने छेड़ते हुए कहा।
"हाँ माँ, कप्तान साब सही कह रहे हैं। हमें भी मुद्दत हो गई है सुने हुए।" पास
आकर सुशीला ने भी मनुहार किया।
रिटायर्ड एसएसपी राठौर और बेटी सुशीला ने जिस तरह आग्रह किया, उस पर बुआ से ना
कहते नहीं बना।
बुआ पहले कुछ सोचने लगी और फिर बोली, "ठीक है याद करके देखती हूँ। तब तक ऐसा
करो बैद्जी से सुन लो कुछ।"
"हाँ बैद्जी को तो भूल ही गए थे हम।" सुशीला को भी एकाएक याद आ गया।
"मैं...मैं क्या सुनाऊँ!" अकबका गया वैद्यजी अचानक सिर पर आ पड़ी इस बला को
देख।
"यार, कोई भजन-वजन ही गा दो!" गुप्ता प्रॉपर्टीज़ का मालिक गुप्ता अधलेटी
मुद्रा में ही बोला।
"मरे, किस दिन के लिए जमा कर रहा है इन्ने लिख-लिखके। चल, आज सुना ही दे एक
गजल।" अपनत्व से भीगे इस आदेश में आग्रह के साथ-साथ एक आवाहन को स्वीकारने का
हौंस भी था बुआ का।
ग़ज़ल का नाम सुनते ही एसएसपी राठौर के जिस्म में थोड़ी-सी हलचल हुई। तनकर बैठ
गया इस बार। ख़ुमारी में डूबी पलकें अपने-आप खुलती चली गई। शिराओं में घुल
चुके अल्कोहल से अचेत पड़े बाक़ी के जिस्मों में भी हल्की-हल्की जुम्बिश होने
लगी। सलमा धीरे-से उठकर वैद्यजी के पास आ गई। बुआ, सुशीला और माया के कानों के
परदे ढीले हो गए।
वैद्यजी ने हल्के-से पूरी महफ़िल पर नज़र मारी और पता नहीं कब पूरी महफ़िल से
नज़रें बचा, रूक्मिणी को देख पहले उसने गहरा साँस लिया, और फिर कमला को
सम्बोधित करते हुए बोला, "बुआ शे'र है कि :
हमारे सामने अंजाम क्यों नहीं आता
वो चाँद खुलके लबे-बाम क्यों नहीं आता।"
ग़ज़ल के मतले को सुनते ही लगा मानो शान्त पड़े ताल में कोई पत्थर उछाल दिया
हो। जिन आँखों में भारीपन उतर आया था, वे भी अब पूरी तरह खुल गईं। कमला बुआ ने
हुस्न बाग का पाऊच खच्च से दाँत से काटा और गप्प से मुँह में डाल गई।
"बैद्जी, जरा इस शेर को फिर से कहना!" मुँह में घुले किणकों के साथ अठखेलियाँ
करती जीभ को विश्राम देते हुए आग्रह किया बुआ ने।
वैद्यजी ने उसी शेर को पुन: दोहराया और आगे बोला, "और शे'र अर्ज है बुआ कि :
ज़रा बताओ तो ये आप और तुम क्या है
तेरी ज़ुबाँ पै मेरा नाम क्यों नहीं आता
पढ़े तो कैसे पढ़े कोई कोरे काग़ज़ को
लिखा हुआ तेरा पैग़ाम क्यों नहीं आता
और :
वो सह रहे है गई रात आहटों का सितम
वो शख़्स घर पै सरे-शाम क्यों नहीं आता
और आख़िरी शेर है बुआ कि :
अजीब दर्दे-मुहब्बत भी शै है क्या 'कृष्ण'
दवाएँ लेता हूँ आराम क्यों नहीं आता
हमारे सामने अंजाम क्यों नहीं आता
वो चाँद खुलके लबे-बाम क्यों नहीं आता! "
"वाह, जीता रह बेटा।" ग़ज़ल पूरी होते-होते बुआ की अधमुँदी आँखों के कोरों में
बूँदें झिलमिलाने लगीं। एक झटके में कमला बुआ सदियों पीछे लौट गई।
कुछ देर पहले तक महफ़िल लूटनेवाले होंठों पर भी वैद्यजी यानी घनश्याम 'कृष्ण'
की ग़ज़ल के अशआर ने क़ब्ज़ा कर लिया।
"भई मुद्दत हो गई थी अच्छी शायरी सुने। कान तरस गए थे रे बेटे तूने आज तबियत
खुश कर दी। तूने आज बुआ की महफ़िल लूट ली। वैसे यह बता, यह शौक कैसे पाल लिया?"
रिटायर्ड एसएसपी राठौर की सारी ख़ुमारी उतर गई।
"ओ यार, तू सक्ल से तो दीखता नईं कि तू ये धंधा भी करता होगा।" नए-नए शेयर दलाल
और राज्य सचिवालय-कैंटीन के ठेकेदार आहूजा ने व्यंग्य से कहा। धंधा से उसका आशय
वैद्यजी की शेर-ओ-शायरी से था।
वैद्यजी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
"कमला, अब तो याद आ गया होगा, या अभी कुछ और सुनवाया जाए?" इससे पहले कि आहूजा
की तरह कोई टिप्पणी करता एसएसपी राठौर ने महफ़िल को समापन की ओ धकियाते हुए
कहा।
"कप्तान साब, ठुमरी-टप्पा तो ना, एक दादरा-से के बोल याद आ रहे हैं।"
"दादरा-से के नहीं, यह कह कि दादरा के।" एसएसपी राठौर अपनी जगह मुस्तैद होते
हुए बोला।
इसके बाद बुआ ने आँखें मूँद सुर लगाते हुए गला ठीक किया, और एक खनकती महीन
आवाज़ ब्रह्म मुहूर्त के ठंडे सन्नाटे में घुलने लगी :
ओ बेदर्दी सुपने में आ जा
कुछ तो बिपतिया कम होई जाए
हम ही ना जानियो साजन
नैना के मिलकै जुलुम होई जाए
चाँद गगन से झाँके मोहे
पापी दुनिया ताने देवे
खुलके कहूँ तो होए रूसवाइ
चुप माँ जियरा भसम होई जाए
ओ बेदर्दी सुपने में आ जा
कुछ तो बिपतिया कम....।
दादरा ख़त्म होते लगा जैसे आकाश में छितरे तारों का झुंड उतरकर कमला बुआ का
दादरा सुनने के लिए छत की मुँडेर पर आ बैठा है। खुले आकाश से झरती ओस की
बूँदें भी थोड़ी देर के लिए जहाँ थीं, वहीं ठहर गईं। बैशाख के शुक्ल पक्ष की
तीसरी रात के थके-माँदे अन्तिम पहर का तिमिर तथा पौ फटने से पहले का कुनमुनाता
उजास भी अपने-आपको दादरा की पंक्तियों को बुआ के संग-संग गुनगुनाने से नहीं रोक
पाया।
मान गई पूरी गाजूकी कि कमला बुआ ने कितने ठसके से इज़्ज़तदारों का दिल जीत
लिया। यहाँ तक कि तारा, सलमा और ज्योति को भी उम्मीद नहीं थी कि ऐसी महफ़िल
जमेगी। इसलिए इनकी बिदाई के समय बुआ ने पूरा दिल खोल दिया। सब हतप्रभ रह गए
थोड़ी देर के लिए। आख़िर सलमा ने अचकचाते हुए प्रतिवाद किया।
"यह क्या है बुआ? "
"छोटी-सी बिदाई है मेरी तरफ से।"
"बुआ, अगर महफ़िल में आई सारी चढ़ाई ऐसे ही बिदाई में बाँट देगी, तो बेटीवालों
के लिए क्या बचेगा?" तारा ने सलमा का साथ देते हुए कहा।
"तुम इसकी चिन्ता मत करो। माना गुरू ने खूब दिया है।"
"पर बुआ हम तो बस-किराए की ठहर पर आई हैं।" सलमा ने याद दिलाते हुए कहा।
"सब पता है मुझे पर बेटी यह बिदाई मैं अपनी खुशी से दे रही हूँ। मेरी तरफ से
मान है यह तुम्हारा।"
"यह ठीक है, पर मान भी तो मान की तरह होना चाहिए।" सलमा नाराज़गी जताते हुए
बोली।
"और कैसा होता है मान?" काफ़ी देर से चुप सुशीला ने हस्तक्षेप करते हुए पूछा।
"ना मौसी, हम तो उतना ही लेंगी, जितनी ठहर हुई है।" ज्योति ने दृढ़ता के साथ
कहा।
"चलो, तुम इसे तौहीन मानके ही रख लो !"
"बुआ, ऐसा ना होगा...चाहे बुरा मान, या भला मान।" तारा ने कमला बुआ
द्वारा
पकड़ी गई दस हजार की गड्डी को छूने तक क़सम खा ली जैसे।
"सलमा, तुझे मेरी कसम...तुम सब मेरी मरी का मुँह देखो जो...।"
सलमा लपककर कमला बुआ से लिपट गई, "बुआ, ऐसे कुबोल मत बोल। इस गड्डी की कीमत
हमारी बुआ से ज्यादा थोड़े ही है।" बुआ के गले में सलमा की बाँहों का घेरा
सख़्त हो गया।
सलमा को बुआ से गड्डी लेता देख, तारा और ज्योति तमतमा उठीं। देख लिया सलमा ने।
बाँच गई उन दोनों के चेहरों पर लिखी नाराज़ इबारत को। वह उस गड्डी को ऐसे गिनने
लगी मानो वह यह तसल्ली करना चाह रही है कि गड्डी में नोट पूरे भी हैं, या नहीं।
पूरी तसल्ली होने के बाद सलमा ने उसमें से पाँच नोट अलग किए और बाकी बचे नोटों
को बुआ की ओर बढ़ा दिया। "मरी, यह क्या किया तूने?"
"बुआ, अब तू भी हमारा मान रख ले।" हँसते हुए जवाब दिया सलमा ने।
चेहरे खिल उठे तारा और ज्योति के। कमला बुआ से ही हुआ उन तीनों का प्रतिवाद।
"बुआ, एक बात बता सच्ची-सच्ची...तू महफ़िल से खुश तो है न?" तारा ने सहजता से
पूछा।
"अगर अब भी ना होगी तो कब होगी। पता है पूरे तीस हजार की चढ़ाई आई है।" बुआ के
बजाय हुलसते हुए जवाब सुशीला ने दिया।
"चलो, बेटीवाले भी खुश हो जाएँगे चढ़ाई में इतनी मोटी रकम पाकर।"
सलमा, जिसकी नीयत ही ठीक नाहो, वह क्या खुश होगा।" बुआ का इशारा मंगल की सगाई
के समय हुए विवाद की ओर था।
"छोड़ बुआ, तुझे कौन-सा रोज-रोज जाना है...अच्छा, चलते हैं बुआ। अब तुम अपने
जँवाइयों के बिदा करो।" तारा ने गाजूकी से जाने की इजाज़त लेते हुए कहा।
"ठीक है बेटी, माना गुरू तुम्हारे धंधे में ऐसी ही बरकत बनाए रक्खे।" कहते-कहते
बुआ की आँखे भर आईं। कुछ क्षणों के लिए आत्मीयता का ठहरा हुआ पानी काँपकर रह
गया। |