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मेहमानों का क्या होगा जब ये महफिल में आएँगी।
बमुश्किल घुस पाईं बुआ कमरे में।
"बुआ, सब ठीक तो है?" छोटे-से अन्तराल में कमला बुआ को फिर से अपने कमरे में देख तारा ने पूछा।
"वैसे तो सब ठीक है पर पता ना मरा मेरा जी बहुत घबरा रहा है। कहीं कोई कमीबेशी ना रह जाए।"
"तू बेफिकर रह। हम सब सँभाल लेंगी। हमने भी बड़े-बड़े इज़्ज़तदार देखे हैं...और फिर हम ऐसी आइटम तैयार करके लाईं हैं कि अगर तेरे ये मेहमान देखते ना रह जाएँ, तो नाम बदल देना हमारा...क्यों सलमा?" तारा ने बेफ़िक्र होते हुए बुआ को आश्वस्त किया।
"बस्स, यही कहने आई हूँ।" इतना कह बुआ फिर रूक्मिणी की ओर पलटीं, "रूक्मिणी, मरी इन्ने कुछ खिलाया-विलाया भी है, या ना?"
"बुआ, तुझे पता तो है कि खिलावड़ी रात को खाना नहीं खाती हैं।"
"पता है मरी, इसीलिए तो मैंने पहले ही बरेड, पनीर और अमरूद का जूस मँगवा दिया है।"
"ठीक कह रही है बुआ। डांस करते-करते तेरे किसी बिगड़ैल इज़्ज़तदार ने मुँह में जबरन दारू उँडेल दी, तो क्या हम मना कर देंगी, ना न।"
"इसीलिए तो...क्या पता महफ़िल कित्ती देर चले। कहीं तुम बहक ना जाओ इसीलिए अमरूद का जूस मँगया है।"
"वैसे महफ़िल का टाईम क्या है बुआ?"
"टैम क्या, वैसे तो आठ बजे का दिया है पर असली महफिल दस से पहले क्या जमेगी।"
"ठीक है, हम फिर उसी हिसाब से तैयार होंगी।" ज्योति ने तैयार जूड़े में हेयर पिन ठूँसते हुए कहा।

कमला सदन में गहमागहमी, चिल्ल-पों अपने पूरे उफान पर है। बच्चों की उछल-कूद और धमा-चौकड़ी से बेख़बर कमला बुआ बाहर-भीतर कई चक्कर लगा चुकी हैं मगर वैद्यजी का कहीं अता-पता नहीं है। हालत यह हो गई कि दूर दूर तक पसरी रौशनी में भीगा हर साया उसे वैद्यजी होने का भ्रम देने लगा। आमन्त्रित अतिथि आ चुके है। रिटायर्ड एसएसपी राठौर, 'भारत' ईंट-भट्टे का मालिक रामपत यादव, ताउम्र समाजवाद की टोकरी ढोने के बाद हाल ही में एक तथाकथित उग्र राष्ट्रवादी पार्टी में शामिल हुए तिवारी जी, रीयल एस्टेट के नाम पर खाली पड़ी सरकारी ज़मीनों पर अवैध क़ब्ज़ा जमानेवाला 'गुप्ता प्रॉपर्टीज़' का मालिक गुप्ता, और शेयर दलाली में नया-नया हाथ डालनेवाला, राज्य सचिवालय कैंटीन का ठेकेदार आहूजा जैसी नामचीन हस्तियों का महफ़िल में आगमन हो चुका है। नंदजी और फ़ौजी सहित घर के अन्य विशिष्ट अतिथि भी आ चुके हैं। मगर इन सारे मेहमानों में एक मेहमान किसी की पहचान में नहीं आ रहा है। सुशीला, माया ही नहीं बुआ ने रूक्मिणी, वंदना, पूनम सबसे पूछा, और सबने अपनी नई-पुरानी स्मृतियों के टुकडों का आपस में मिलान करके, याद करने की बहुत कोशिश की परन्तु किसी को याद नहीं आया कि इस शक्ल और सूरत का कोई 'इज़्ज़तदार' कभी उनके सम्पर्क में आया हो। थोड़ी देर के लिए सदन में बेचैनी और घबराहट-सी व्याप गई।
हिम्मत कर रूक्मिणी ने ही उठाया इस बेचैनी और घबराहट से मुक्ति का बीड़ा।

"बाबू सा, नमस्ते!" ताउम्र समाजवाद की टोकरी ढोनेवाले तिवारी जी का रूक्मिणी ने अभिवादन किया।
"अरे आओ रूक्मिणी, कैसी हो?"
"सब मजे में है बाबू सा'।" संक्षिप्त-सा उत्तर दे रूक्मिणी ने तिवारी जी के बगल में बैठे मेहमान की ओर देखा।
"भई मुरली बाबू, ये रूक्मिणी जी है।" तिवारी जी पूरे परिचय के बजाय केवल नाम बताया।
अपनी ओर अपलक निहारते मुरली बाबू का इस बार रूक्मिणी ने अभिवादन किया।
"रूक्मिणी, अपने ये मुरली बाबू हमारे अनन्य मित्रों में से हैं। पार्टी के युवा नेता हैं। भविष्य में अपनी पार्टी को इनसे बहुत आशाएँ हैं। तुम्हारा निमन्त्रण मिला तो सोचा जरा इन्हें भी राष्ट्र के प्रति समर्पित होने का ज्ञान दिलाया जाए। बहुत हो गया ब्रह्मचर्य का पालन।" दाईं आँख दबाते हुए तिवारी जी जोर से खिखियाकर हँसे।
देखता रह गया रूक्मिणी को मुरली। लगा जैसे मोगरे का ताज़ा-ताज़ा फूल अपनी गमक के साथ खिला हुआ है।
रूक्मिणी ने जबरन मुस्कराने की कोशिश की।
इसी बीच बुआ को जैसे ही वैद्यजी के आने की सूचना मिली, वह तेज़ी से लपकी उसकी ओर।
"बैद्जी, मरे कहाँ मर गया था?" वैद्यजी को देखते ही एक आत्मीय डाँट मारते हुए पूछा बुआ ने।
"रास्ते में साइकिल पिंचर हो गई थी।"
"तू तो नहीं हुआ पिंचर। तेरे तो टैर ठीक हैं न!"
हँसी छूट गई वैद्यजी की।
"तेरा भी मरे वो किस्सा है कि शिकार के बखत कुतिया हँगाई मरे है। चल छोड़, सारे मेहमान आ चुके हैं। अब उनके पास जाके बैठ।" लगभग आदेश देती हुई यह कहते हुए आगे बढ़ गई, "आ जा, मैं लिए चलती हूँ !"
वैद्यजी बुआ के पीछे-पीछे हो लिया।
बुआ ने मेहमानों से वैद्यजी का परिचय घर के सदस्य के रूप में कराया। वैद्यजी ने सारे मेहमानों पर ऐसे नज़र मारी, जैसे उसकी आँखें किसी अतिथि विशेष को तलाश रही हैं।
"बैदजी, तू जरा इनके पास बैठ! मैं और काम देखती हूँ।"
इतना कहकर बुआ लौटने लगी कि पीछे से वैद्यजी ने धीरे-से आवाज़ दी, "बुआ!"
वापस पलटी कमला बुआ।
"वो नंदजी और फौजी कौन से हैं?" अपनी जिज्ञासा को नहीं रोक पाया वैद्यजी।
घूरकर देखा बुआ ने वैद्यजी की ओर। फिर थोड़ा रूककर बोली, "आ चल!"
कमला बुआ ने दूर से एक-एक कर सबका परिचय दिया।
परिचय के दौरान नंदजी को देखकर वैद्यजी ने ख़ुद से कहा, 'ग़लत नहीं कहा था वंदना ने कि फ़ौजी में उसकी जान बसती है और नंदजी...।' एकाएक उसे बुआ के शब्द याद आ गए कि एक आबरू ही तो होती है औरत के पास। अब यह मर्द के ऊपर है कि वह उसे ताकत से हासिल करता है, या औरत अपनी मरजी से उसे उसके हवाले करती है।
"बुआ, ये तो ठीक हैं पर वो कौन-सा है?"
"वो कौन-सा?" उलटा पूछा बुआ ने।"
"जो रू...रूक्मिणी।"
फिस्स से हँसी बुआ।
"मरे, यह बात तू उसी से पूछ।" एकाएक सामने से रूक्मिणी को एकदम पास आता देख बुआ वहाँ से जाने लगी।
"नानी, क्या पूछ रूक्मिणी से?" रूक्मिणी ने बुआ के शब्द सुन लिए थे शायद।
वैद्यजी परेशान।
"कैसे चुप हो गए बैद्जी?"
"चुप क्या, मैं बताती हूँ। मरा, पुच्छ रहा था कि तेरावाला जमाई कौन-सा है।" कमला बुआ ने स्पष्ट कह दिया।
"अच्छा इसलिए परेशान है।" इतना कहने के बाद पहले रूक्मिणी का चेहरा थोड़ा सख़्त हुआ और फिर कुटिल मुस्कान उछालते हुए बोली, "बैद्जी, रूक्मिणी नहीं पड़ती है इस झमेले में। अपना तो साफ कहना है कि ग्राहक को ग्राहक ही समझना चाहिए। मैं नहीं पालती इस दामाद-जमाई का टंटा। जिसे शौक है पाले। अरे, यह क्या बात हुई कि एक बार मत्था ढकाई क्या करी, उमर भर उसकी गुलाम हो गई। जब गुलामी ही करनी थी, तो जरूरी था बुआ बनना...ब्याह रचाके भाभी ना बनती...और बैद्जी, अगर मत्था ढकाई की उसने रकम दी है, तो बदले में मैंने भी उसे अपनी आबरू उसके हवाले की है। किसी ने किसी पर एहसान नहीं किया है।"
वैद्यजी निरूत्तर। टकटकी लगाए कभी वह कमला बुआ को देखता, तो कभी रूक्मिणी को। उसे लगने लगा जैसे उसके पाँव किसी दलदल पर टिके हुए हैं। अपने-अपको उसने मेज़बान और मेहमान के बीच खिंची एक ऐसी स्याह लकीर पर खड़ा पाया, जहाँ उसे अपना होना-न-होना संदिग्ध दिखाई देने लगा। आँखों के आगे धुँधलका-सा छा गया। पलभर के लिए लगा जैसे पुतलियों पर धुँधली झिल्ली चढ़ गई है। यहाँ तक कि उसे यह भी पता नहीं चला कि रूक्मिणी वहाँ से कब चली गई।

खुली छत से आकाश में झूलती तारों की झीनी चादर से टिमटिमाते हुए तारे ऐसे दिखाई दे रहे है, मानो सितारों से जड़ी स्याह ओढ़नी पर ओस की बूँदें चमक रही हैं। बैशाख के शुक्ल पक्ष का महज तीसरा दिन होने के कारण नवजात शिशु-सा चन्द्रमा भी ज्यादा देर तक इन्तज़ार नहीं कर पाया।
आठ बजते-बजते पूरी छत भर गई।

पहले हारमोनियम और ढोलक की थाप पर जो धमाल मचा, वह देर तक नहीं थमा। सुशीला, माया, रूक्मिणी, वंदना, पूनम तो नाचीं ही, बीच-बीच में किसी-न-किसी के आग्रह पर बुआ भी एकाध ठुमका मार लेती। महफ़िल में शोख़ियाँ और शोख़ियों में गहराती रात का शबाब घुलने लगा। कमला बुआ की बग़ल में बैठे मंगल के सेहरे पर वार फेर में आनेवाले नोटों की बारिश-सी होने लगी। दस बजते-बजते बुआ सहित सुशीला और माया तो पस्त हो गईं परन्तु रूक्मिणी, वंदना तथा पूनम का जी नहीं भरा। भला भरे भी तो कैसे भरे। असली महफ़िल तो अब शुरू होनी है।

अचानक कुछ रंगीन बल्बों को छोड़कर, एक-एक कर सारी बत्तियाँ बुझा दी गईं, और जैसे ही डी जे पर शुरू हुआ भीगे होंठ तेरे गीत के बोल के साथ सलमा महफ़िल में दाख़िल हुई कि गद्दों पर अलसाए-से पड़े जिस्मों में ताकत लौट आई। सुप्त शिराओं में ख़ून दौडने लगा और गाव-तकियों के सहारे दीवार से पीठ लगाकर बैठे तथा अधलेटे ख़ास मेहमानों के ख़ाली हुए गिलास फिर से भर उठे तिवारी जी ने सामने बैठे वैद्यजी को इशारे से अपने पास बुलाया और लगभग फुसफुसाते हुए कहा, यार वैद्यजी, वो...वो पहला तोड़ कहाँ है?
वैद्यजी तुरन्त उठा और एक लड़के को साथ ले आया।
"ये हुई ना वैद्यजी बात।" पहले तोड़ से भरते जा रहे गिलास को देखकर तिवारी जी की बाँछें खिल उठीं।
सही कहा था तारा ने कि बुआ हम ऐसी आइटम तैयार करके लाई हैं कि तेरे ये इज़्ज़तदार देखते रह जाएँगे। इसके बाद एक के बाद एक तारा, सलमा, ज्योति तीनों ने डी जे पर जो डांस किया, उस पर रिटायर्ड एसएसपी राठौर, 'भ़ारत' ईंट-भट्टे का मालिक रामपत यादव, शेयर दलाल आहूजा, रीयल एस्टेट के नाम पर ख़ाली पड़ी ज़मीनों पर अवैध क़ब्ज़ा जमानेवाला 'गुप्ता प्रॉपर्टीज़' का मालिक गुप्ता और खाँटी समाजवादी तिवारी जी भी अपने-आपको नहीं रोक पाए। अब डी जे पर लरज़ती, बल खाती संगमरमरी देह से चिपके तिवारी जी ठुमके लगाएँ, ऐसे में उनके अनन्य मित्र और पार्टी का भविष्य कब तक अपने-आपको रोक पाता-यानी राष्ट्र के प्रति समर्पित होने का ज्ञान लेने आया मुरली भी इस नृत्य यज्ञ में कूद पड़ा। उसने भी ठुमकों के रूप में दो-चार चुटकी समिधा इसमें होम दी।

जैसे-जैसे रात बीतने लगी और हल्की ठंड के चलते आकाश से ओस गिरने लगी, वैसे-वैसे महफ़िल पर और रंग चढ़ने लगा। तारा, सलमा, ज्योति के साथ रूक्मिणी, वंदना, पूनम भी ऐसी नाचीं कि पूरी महफ़िल चढ़ाई में आए नोटों से ऐसे पट गई, मानो शिशिर ऋतु में वृक्षों से झड़े पत्तों से धरती पट जाती है। कमला बुआ ने आज क़सम खा ली कि जब तक महफ़िल में आए मेहमान ख़ुद नहीं कहेंगे, तब तक वह महफ़िल ख़त्म करने की पहल नहीं करेगी, चाहे दिन निकल आए।
सुबह के तीन कब बज गए पता ही नहीं चला।
हारकर एसएसपी राठौर को ही कहना पड़ा, "कमला मज़ा आ गया।"

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