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						नेहा कहते कहते रुक गयी कि 
						भारत जाने की जरूरत नहीं, यहाँ भी बहुत सी ऐसी लड़कियां मिल 
						जाएंगी। उसने मन ही मन तय किया कि मौका मिला तो वह ट्रेंट 
						से दोस्ती करेगी। नेहा अभी उसके साथ डेट पर जाने का सपना 
						देख ही रही थी कि एक दिन खबर लगी कि ट्रेंट सचमुच छात्र 
						विनिमय कार्यक्रम के तहत चंडीगढ चला गया है। नेहा का दिल 
						बैठ गया। उसे विश्वास हो गया कि ट्रेंट चंडीगढ से अकेला 
						नहीं लौटेगा, चंडीगढ की कोई न कोई असूर्यपश्या उसके साथ 
						अवश्य लौटेगी। एक दिन एस्टैला ने नेहा को बताया कि वह इस 
						वर्ष परीक्षाओं के बाद माइकल के साथ यूरोप भ्रमण पर जा रही 
						है। नेहा की समझ में नहीं आ रहा था कि एस्टैला के घर वाले 
						उसके इस प्रस्ताव पर कैसे राजी हो गये कि वह एक लड़के के 
						साथ अकेले यूरोप भ्रमण कर जाये। उसकी माँ तो इस प्रस्ताव 
						पर जहर खा लेती। जहर खाने की हिम्मत न होती तो उसका गला 
						घोंट देती। कुछ भी हो सकता था। उसकी माँ पागल भी हो सकती 
						थी। उसके पिता घोर यंत्रणा में से गुजरते मगर जल्द ही अपने 
						को समझा बुझा कर शांत हो जाते। उनका तकियाकलाम भी उनके इस 
						व्यक्तित्व के अनुरूप था। जब कहीं पेश न चलती तो वह 
						गुनगुनाते— होता वही है जो मंजूरे खुदा होता है।
 बहुत देर तक बेडरूम से कोई आवाज न आयी तो नेहा ने भीतर 
						जाकर देखा, माँ रोते रोते सो गयी थी। बेड के पास ही तिपाई 
						पर सैड़ेटिव का पत्ता पडा था। यह डैड की दवा थी। वह रोज 
						सोने से पहले एक टिकिया लेते थे। लगता है आज माँ ने भी 
						इसका सेवन किया है। अच्छा ही है, तनाव कुछ कम होगा। नेहा 
						को विश्वास था कि अगर शीनी अच्छे मूड में लौटी तो माँ को 
						दो मिनट में मना लेगी। दरअसल माँ की जान उसी में बसती थी। 
						लाख चाहने पर भी वह उससे देर तक नाराज नहीं रह पाती थी। 
						डैड की स्थिति भी माँ से बेहतर न थी।
 "शीनी तो हमारी पहली भूख प्यास की संतान है।'' वह कहते और 
						बात आयी गयी हो जाती। मगर आज मामला संगीन था। नेहा इस 
						बिन्दु को समझ रही थी।
 
 माँ ने बाँह से मुँह ढाँप रखा था और वह बहुत धीमे और 
						लयबद्ध खर्राटे भर रही थी। खर्राटे इतने धीमे थे कि ध्यान 
						देने पर ही सुनाई पड़ते थे। शील खर्राटे ही नहीं भर रही थी, 
						एक लम्बा सपना भी देख रही थी। इस सपने का सी डी वह कई बार 
						देख चुकी थी। नया नया वी.सी.डी. प्लेयर खरीदने वाले 
						मध्यवर्गीय परिवारों की तरह उसके संग्रह में केवल वही सी 
						डी थी, जो प्लेयर के साथ मुफ्त मिलती है। वह माँ की गोद 
						में सिर रख कर लेटी हुई है और माँ अत्यंत प्यार से उसके 
						बाल सहला रही है। (सच्चाई यह थी कि इस समय नेहा ही बहुत 
						प्यार से माँ के बाल सहला रही थी) यह दृश्य कुछ लम्बा खिंच 
						गया क्योंकि नेहा को देर तक माँ पर लाड़ आता रहा। स्कूल 
						भेजते समय उसके बालों पर प्यार से हाथ फेरती और फिर दोनों 
						हाथों से चुनरी से उसका सिर ढँक देती–अच्छे बच्चे हमेशा 
						सिर ढँक कर रखते हैं।
 
 शील ने सिर पर चुनरी ओढे ओढे ही प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल 
						की परीक्षा पास कर ली। सरदार धारा सिंह स्कूल के हैडमास्टर 
						थे, उन्होंने पिता को समझाया, सलियाराम तेरी बेटी बहुत 
						जहीन है। स्कूल में अव्वल आयी है। इसकी पढाई का कोई इंतजाम 
						करो। धारा सिंह के मश्वरे पर अमल करते हुए सलियाराम ने 
						बिटिया को उसकी मौसी के पास जालंधर भेज दिया। शील ने घर 
						वालों को निराश न किया और कालिज तक पहुँचते पहुँचते वजीफा 
						पाने लगी। अपने कालिज की वह सबसे शर्मीली लड़की थी। हरदयाल 
						समाजशास्त्र के अध्यापक थे। एम.ए. का परिणाम घोषित हुआ तो 
						उन्हें यकीन नहीं आया कि उनकी कक्षा की सबसे शांत और 
						छुईमुई लड़की ने सबसे अधिक अंक पाये हैं। उन्होंने अनेक 
						बार उससे बात करने की कोशिश की थी, मगर वह अपनी गर्दन को 
						झटका देकर ही जवाब दे देती। हरदयाल ने यह भी लक्षित किया 
						था कि वह अपनी सहेलियों के बीच खूब चहकती थी। उन्होंने तय 
						किया कि आज तो वह उस लड़की की जुबान खुलवा कर ही रहेंगे। 
						बाद में उन्होंने महसूस किया कि लड़की की कम उनकी अपनी 
						जुबान ज्यादा खुल गयी थी। उन्होंने शील को बुलवा भेजा। वह 
						आयी तो सिर से पैर तक अजीब तरह के आभिजात्य से ढँकी हुई, 
						जैसे कोई ढँकी हुई थाली उनके सामने आ गयी हो। उसने सिर 
						झुका रखा था और उस पर कुछ इस अंदाज से कपड़ा ओढ़ रखा था कि 
						चेहरा दिखायी नहीं पड़ रहा था।
 
 "दो साल तक मुझसे पढी हो, अब यकायक यह हया कैसी?'' हरदयाल 
						का मिजाज शायराना नहीं था मगर अचानक उन्होंने पाया, वह कह 
						रहे थे, "जवां होने लगे जब वो तो हमसे कर लिया पर्दा।''
 शील ने और भी सिर झुका लिया। धनुष थोड़ा और झुक गया।
 "क्या मुँह में जुबान नहीं है?''
 "है।'' उसने सिर हिलाया, जैसे स्प्रिंग लगा हो।
 प्रोफेसर खुद बहुत संकोची स्वभाव का था, न जाने किस झोंक 
						में कह उठा, "मुझसे शादी करोगी?''
 स्प्रिंगदार गर्दन फिर हिली। हाँ कहने के बाद देर तक 'न न' 
						करती रही। प्रोफेसर बोला, "शादी तय समझो। जाकर पिता से 
						कहो, तुम्हारी शादी की तैयारी करें।''
 अचानक उसने तनिक सा सिर उठाया और बोली, "यह कैसे हो सकता 
						है सर?'
 हरदयाल ने उसके सुर्ख गाल थपथपा दिये, "ऐसे।''
 
 शील ने मुँह में दुपट्टा खोंसा और साइकिल स्टैण्ड तक भागते 
						हुए चली गयी। उसका तालू सूख गया था। वह दौड़ रही थी या उड़ 
						रही थी। उसके जैसे पंख निकल आये थे। सपने में इस समय वह 
						व्योम में एक पक्षी की तरह विहार कर रही थी। यह एक छोटी सी 
						'सी डी' है जो उसके सपनों में अक्सर चलती रहती है। हर आदमी 
						का एक सपना होता है जो जीवन पर्यन्त उसका पीछा करता रहता 
						है। शील का यही सपना था, जो कभी उसका पीछा करता था और कभी 
						वह उसका पीछा करती थी।
 यह शील की छोटी सी मुख्तिसर सी प्रेम कहानी थी।
 
 शादी के बाद, हनीमून के दौरान, यकायक उसके जीवन में, उसके 
						नहीं उन दोनों के जीवन में चमत्कारिक घटनाएं होने लगीं। 
						कल्पनातीत था वह समय। देह और मन का सारा विषाद और अवसाद 
						स्फूर्ति और ऊर्जा में रूपांतरित हो गया। वे लोग शिमला में 
						थे जब खबर लगी कि हरदयाल को कैनेडा में जॉब मिल गया है और 
						तीन माह के भीतर ही उसे उड़ जाना होगा। वह होटल की लाबी में 
						खड़ा था जब उसे यह खबर मिली। हरदयाल ने शील को अपनी बाहों 
						में भींच लिया और उसकी गर्दन, ललाट और पलकों पर चुम्बनों 
						की झड़ी लगा दी, "तुम मेरे लिए कितनी भाग्यशाली सिद्ध हो 
						रही हो।''
 शील छिटक कर अलग हो गयी थी, "तुमने तो लोकलाज भी छोड़ दी। 
						देख नहीं रहे, हम लोग लाबी में खड़े हैं।''
 
 हरदयाल उसे घसीटते हुए लिफ्ट की ओर भागा। वह बेकाबू हो रहा 
						था। वह इसी समय अपना सम्पूर्ण प्यार शील पर उड़ेल देना 
						चाहता था। शील को विश्वास है, शीनी उसी रोज उसके पेट में 
						आयी थी।
 शील की चेतना में अचानक चेहरे बदलने लगे। क्या गजब हुआ कि 
						हरदयाल की जगह उसे किसी फिरंगी का क्रूर चेहरा नजर आने 
						लगा, जो उसकी बिटिया को लगभग घसीटते हुए एक गुफा में ले जा 
						रहा था। भयाक्रांत शीनी मदद के लिए पुकार रही थी। शीनी 
						आँखों से ओझल होती, इससे पहले ही शील जोर से चिल्लायी, 
						"बचाओ, बचाओ। मेरी बिटिया को बचाओ। कोई है?''
 नेहा जो माँ को गहरी नींद में पाकर लिविंग रूम में चली आयी 
						थी, माँ की आवाज सुन कर कमरे की तरफ लपकी। उसने देखा, उसकी 
						माँ पसीने से लथपथ बिस्तर पर हाँफ रही थी।
 "क्या हुआ मॉम?''
 
 शील ने आँखें खोलीं और यह जान कर राहत की साँस ली कि वह 
						यथार्थ नहीं था, एक दु:स्वप्न था। उसे अपने संसार में 
						लौटने में देर न लगी। एक टीस की तरह उसे याद आया कि शीनी 
						डेट पर गयी हुई है। वह पलंग पर उकडूँ बैठ कर फिर बिसूरने 
						लगी। नेहा भाग कर पानी का गिलास ले आयी, "अब क्या हुआ मॉम। 
						शीनी डेट पर गयी है, हमेशा के लिए ससुराल नहीं चली गयी।''
 "यह लड़की मेरी मौत बन कर पैदा हुई है।'' नेहा ने तुरंत 
						माँ के मुँह पर पानी का गिलास लगा कर उसकी जुबान बंद कर 
						दी।
 "अब मैं नहीं बचूँगी। यह सब मुझसे बर्दाश्त न होगा।''
 "माँ अपनी बिटिया पर भरोसा रखो। वह अपनी रक्षा करने में 
						सक्षम है।''
 "नेहा, तुम इन मर्दों को नहीं जानती। तुम अभी बच्ची हो 
						मेरी बिटिया। मैं अपनी कम्युनिटी के लोगों को क्या मुँह 
						दिखाऊँगी?''
 "माँ तुम पागल हो गयी हो। हम एक सभ्य समाज में रहते हैं।''
 "मुझे नहीं चाहिए ऐसा सभ्य समाज। मुझे हिन्दुस्तान वापिस 
						भेज दो। यहाँ इस मुल्क में मेरा दम घुट जाएगा।''
 "यहाँ हिन्दुस्तान से कहीं ज्यादा आक्सीजन है साँस लेने के 
						लिए।'' नेहा बोली, "याद है हरिद्वार की भीड़ में आपका दम 
						घुटने लगा था।''
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