मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


मैं भी तो अपनी माँ के कहे अनुसार कहाँ चल पा रही हूँ? समाज के अनुसार तो अब तक किसी सेठ के बेटे के गले में हीरे का हार बनकर लटक जाना चाहिए था और माँ भी क्या कम दुःखी थी मुझको लेकर। जहाँ जाती एक ही सवाल, ''प्रभा शादी क्यों नहीं कर रही?''
सिलसिला खयालों का, घटनाओं का, एक बार शुरू होता तो रुकने का नाम ही नहीं लेता। मेरे सामने गाड़ी में मरील के कसे हुए होंठ, जलती हुई आँखें। वह काँच के पार सड़क का आखिरी छोर घूर रही थी, जहाँ और कुछ नहीं, केवल आती-जाती गाड़ियों के लाल-पीले धब्बे नज़र आ रहे थे। मरील मुझे मिसेज डी के घर उतारकर चली गई।
तीन महीने में वह पहली शाम थी जब मैं और मिसेज डी काफी रात तक ढेर सारी बातें करती रहीं। खाने का आर्डर उन्होंने फोन पर ही कहीं दिया। मुझसे पूछा, ''रेगुलर डिनर खाने का मन है?''
''नहीं।''
''मुझे भी यही सूट करेगा। मुझे खाना पकाना नहीं आता। इतने वर्ष हमलोग या तो बाहर खाकर घर लौटे हैं या फिर घर पर बाहर से मँगा लिया है। डॉ. डी बहुधा क्लिनिक से काफी रात गए घर लौटते हैं।''
स्वर में एक छुपी हुई उदासी, शिकायत और थकान का मिलाजुला भाव था।
''आप अकेली शाम कैसे गुज़ारती हैं?''
''अकेली मैं कहाँ हूँ? ढेरों दोस्त। संपर्क, आत्मीय-अनात्मीय, काम-काज। दो साल पहले टेनिस खेलने चली जाया करती थी। आजकल नहीं जा पाती, थकान-सी लगती है।''
''हाँ आइलिन कहा करती थी कि आप टेनिस अच्छा खेल लेती है।''
''सच बताओ, आइलिन ने और क्या-क्या कहा मेरे लिए?''

उनकी बड़ी-बड़ी भूरी आँखें मुझपर शांत टिकी थीं। मैंने उन आँखों में झाँका और फिर चुप रह गई।
''देखो, आइलिन अब इस दुनिया में नहीं है अतः तुम उसको दगा नहीं दे रहीं। यदि तुम मेरे बारे में सबकुछ जानती हो तो हम दो दोस्त की तरह इस शाम अपना दर्द बाँट सकते हैं और यदि कुछ नहीं जानती तब...''
''नहीं, आइलिन प्रायः क्लारा ब्राउन का नाम लिया करती थी।''
''और?''
''और वह क्लारा ब्राउन से चिढ़ती थी।''
''फिर?''
''मिसेज डी...''
''मुझे एलिजा कहो।''
''एलिजा। आपकी पूछताछ...''
''अच्छी नहीं लग रही, यही न? बात यह है कि मुझे भी अच्छा नहीं लगता कि लोग हमारे बारे में बातें करें, मगर डॉ. डी का व्यवहार ही ऐसा है कि बात अब हद से गुज़रती जा रही है।''
''आप क्या कर सकती हैं?''
''कर तो बहुत कुछ सकती हूँ। तलाक, मुआवज़ा, परस्त्रीगमन का चार्ज, मैं... मैं जार्ज के पूरे कैरियर को धूल में मिला सकती हूँ।''

उनका स्वर खट्टे सिरके में डूबा हुआ था।
''मगर इससे क्या आपको डॉ. डी का प्यार मिल जाएगा?''
''वही तो नहीं मिलेगा। प्यार एक उड़ता हुआ पाखी है। वह कभी एक डाल पर बैठ ही नहीं सकता।''
''तब इसके विकल्प में आप क्या सोचती हैं?''
''कुछ नहीं, कुछ नहीं सोच पाती। मेरा श्रिंक (मनोवैज्ञानिक) मुझसे कहता है तुम जार्ज से मनोग्रस्त हो, यह प्यार नहीं बल्कि शराबी का नशा है। वह कहता है एलिजा बार-बार के इस रिजेक्शन से तुम्हारा अपना आत्म धुंधला होता जाता है। तुममें हीनभाव आता जा रहा है।''
''आप सबकुछ समझती हुई भी?''
''मैं क्या करूँ प्रभा। मैं क्लारा ब्राउन नहीं हो सकती और जार्ज को छोड़ भी नहीं सकती। मैं उससे प्यार करती हूँ बेहद, अपने से भी ज़्यादा।''
'''तब सबकुछ स्वीकार करके चलिए।''
''तुम्हारे देश में एक आम स्त्री क्या करती है?''
''वह आँसूँ बहाती है, बहाती रहती है। चेहरे पर स्वीकृति का मुखौटा लगाए रहती है, पर स्वीकारती नहीं, हाँ अस्वीकार भी नहीं कर पाती।''
''तलाक नहीं देती?''
''नहीं। कम से कम दूसरे लगाव के कारण तो नहीं।''
''ऐसा क्यों?''
''हमारे पुराणों में हर जगह बहुपत्नीत्व का प्रसंग है। वह सबकुछ हमारे सामूहिक अचेतन में हैं। शायद इसीलिए भारतीय स्त्री तमाम दर्द सहते हुए भी पत्नीत्व का हक नहीं छोड़ती।''
''मैं हक की लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं जार्ज का प्यार चाहती हूँ। वह क्या है क्लारा में जो मुझमें नहीं...?'' कहते-कहते एक गहरी

सांस, जिसमें भीतर फूटते लावे की गंध थी, निकल गई। पलकों पर ठहरे आँसुओं में क्षोभ की उष्णता, फड़कते हुए नथुने सुनहले बालों में फँसी हुई लंबी पतली उँगलियाँ और हल्के-पीले सिल्क के किमोनो में थरथराता हुआ शरीर। पता नहीं नारी का यह रूप इतना मुग्ध क्यों करता है? क्या हम सब कहीं आत्मपीड़न को अचेतन में समेटे हुए हैं?
कुछ देर बाद वे बाथरूम से स्वस्थ होकर लौटीं। पूछा, ''कॉफी लोगी?''
''जी हाँ, थैंक्स।''
''मैं ब्रैंडी ले रही हूँ।''
''ज़रूर। मैं अपनी कॉफी बना लेती हूँ। आप परेशान मत होइए।''

कॉफी का कप लेकर जब मैं लौटी तो देखा वे सोफे पर अधलेटी हाथों में ब्रैंडी के गिलास को एकटक देख रही थीं। आँखों की कोरें बरसती जा रही थीं। मैंने धीरे से उनके सिर पर हाथ रखा।
''एलिजा...''
अब वे बहती हुई बाढ़ की नदी थीं। मैं गोद में उनका सिर रखे बैठी रही। औरत के इस दर्द के सामने सारे शब्द खुद ही मौन हो जाते हैं। पता नहीं कितना समय बीता। वे फिर उठीं। फिर बाथरूम में जाकर आँखें धोबी और आकर एक ही घूँट में आधा गिलास खाली कर दिया। यों लगा जैसे उनके हलक से आग का घूँट उतरा हो। गाल तप उठे। ललाट पर पसीने की बूँदें छलक आईं। बाहर बगीचे में ढलती शाम की परछाई थी।
घंटी बजी। मैंने उठकर दरवाजा खोला। पित्ज़ा का एक बड़ा-सा पैकट लिए कोई खड़ा था।
''प्रभा, उसे दस डालर दे दो और पित्ज़ा यहीं पर ले आओ। चौके में 'पित्ज़ा कटर' रखा हुआ है, वह भी ले आओ।''

पित्ज़ा के एक टुकड़े को खूबसूरत दाँतों से काटते हुए उन्होंने फिर कहा, ''पता नहीं मैं तुमसे इन सारी बातों को क्यों कह रही हूँ। तुम छोटी हो, बहुत-सी बातें नहीं समझोगी, स्त्री पुरुष का संबंध।''
''नहीं, मैं इतनी छोटी नहीं। सब समझती हूँ और आइलिन प्रायः आपके बारे में बातें किया करती थीं।''
''आइलिन मेरी माँ थी। मैं उसकी गोद में मुँह छिपाकर रो लिया करती थी. अब रोने के लिए भी हर सिटिंग में डेढ़ सौ डालर खर्च होंगे।''
''मैं समझी नहीं।''
''इन बातों को और मैं किससे कह सकती हूँ सिवाय इसके कि सप्ताह में एक दिन अपने साइकियाट्रिस्ट के पास जाऊँ और कोच पर लेटी-लेटी जो मन में आए, कहती रहूँ। और एक घंटे का सेशन पूरा होने पर घर लौट आऊँ। मन को समझा लूँ कि नहीं मैं इतनी अकेली नहीं। कोई और भी है जो मेरी बातों को सुनता है।''
''एलिज़ा आपकी कोई सहेली नहीं?''
''सब बिल्लियाँ हैं। खाली म्याऊँ-म्याऊँ करती रहेंगी।''
''आपके कोई पुरुष मित्र...?''
''वे हमदर्द होकर बात सुनते हैं और फिर शरीर पर आ जाते हैं। उनके पास एक ही जवाब... जार्ज तुमको ठगता है तुम उसको ठगो।''
''मगर खुद यों टूटकर बदला लेना, वह भी किससे?''
''प्रभा! मैं अब और किसी से प्यार नहीं कर सकती। मैं बेहद थक गई हूँ।''
''आप एक बच्चा क्यों नहीं गोद ले लेतीं?''
''जार्ज को पसंद नहीं।''

बस इसी तरह की पसंद-नापसंद की बातें होती रहीं। रात बारह बज गए थे। बुरी तरह नींद आ रही थी। मगर मेज़बान की बातों का सिलसिला चालू था।
दूसरे दिन वे शांत थीं। उठा हुआ तूफ़ान वापस लहरों में समा गया था। ब्रेकफास्ट टेबल पर डॉ. डी भी थे। रात को पता नहीं कब लौटे। बात मैंने ही उठाई, ''मिसेज डी! आइलिन के बिना मेरा मन नहीं लगता। मरील के घर जैसा कि आप जानती हैं...''
''नहीं, तुम मेरे यहाँ रह जाओ। डॉ. डी महीने भर के लिए जापान जा रहे हैं।''
''नहीं, यह बात नहीं, मुझे अब यह शहर अच्छा नहीं लगता जबकि मजबूरी लगता। मरील के घर जैसा कि आप जानती हैं...''
''नहीं, तुम मेरे यहाँ रह जाओ। डॉ. डी महीने भर के लिए जापान जा रहे हैं।''
''नहीं, यह बात नहीं, मुझे अब यह शहर अच्छा नहीं लगता जबकि मजबूरी यह है कि प्रैक्टिकल ट्रेनिंग नहीं हुई।''

पृष्ठ- . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।