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आत्मकथा (तीसरा भाग)

अभिज्ञात

शाप मुक्ति के लिये पंचदेव की स्मृति

पंचदेव जी की कविताएँ मैंने पहले पढ़ी थी– 'तुम्हारी ही बात’। प्रभावित हुआ था। पुस्तक का नाम भी खींचता था। अपनेपन से लबरेज। बाद में सहसा मुलाकात हुई। परशुराम जी के साथ ही वे भी मिले पहले–पहल। प्यारी–सी मुस्कुराहट वाले। मीठे–प्यारे अंदाज में असहमति व्यक्त करने वाले। एक साधारण सहज व्यक्तित्व पर सर्वहारा की भलाईकी बातों को जिद की तरह सोचने वाले। साहित्यिक समारोहों से लेकर शनिवारी बुलबुल सराय (कोलकाता का एक दक्षिण भारतीय रेस्त्रां) की जमायत और खलासी टोला (एक देसी शराबखाना) के अड्डों तक। शुरू–शुरू में अजीब लगता था देसी शराब की उठती तीव्र गंध‚ चारों तरफ गंदगी। टेबल से लेकर जमीन तक। वहाँ किसी टेबल की दोनों ओर की गंदी बेंचों पर बैठकर साहित्य‚ समाज‚ सर्वहारा से लेकर राजनीति पर बतियाना‚ जबकि हाथों में जाम हो। उसी में मुरारीलाल शर्मा प्रशांत की गजलों का जायका। उनका यह दावा कि सबसे कठिन है सरल होना। यह बात प्रशांत जी रचनाशीलता के बारे में कहा करते हैं।

मगर रचनाकारों में यह बात किसी में प्रत्यक्ष रही तो वह पंचदेव भाई में। और अपने लोगों के बीच पसंद का शायर कोई था पंचदेव जी का तो प्रशांत ही। अक्सर उनकी बातें नशे की अधिकता के बाद भी शायरी के ही इर्द–गिर्द रहा करती थी उन दिनों भी। और शराब की टेबल पर जो नशे में अपनी रचना का पाठ करना पसंद करता था उनमें प्रशांत था– 
'साहिलों पर हो भले कब्जा नदी का। 
मन तो हरदम झील रहता है किसी का’ 

वे पढ़ते थे। और पंचदेव भाईकी दाद उन्हें खूब मिलती थी। कथाकार केदार सारथी के साथ भी पंचदेव भाई के मजाक व छेड़छाड़ बदस्तूर जारी रहा करती थी। अपने लोगों के बीच मुझे कम उम्र और समझ का पाकर मुझे समझाने की कोशिश में रहा करते थे। और मैं था कि उलझने को सदा तैयार ही रहा करता था। मेरे पास तमाम वरिष्ठ लेखकों से असहमति के तमाम मुद्दे तब भी हुआ करते थे‚ अब की तरह। पर शायद यही वजह रही कि बुजुर्ग रचनाकारों के बीच संवाद और विवाद के बीच रहने का पर्याप्त अवसर मुझे मिला। जिन दिनों परिचय हुआ था‚ आलोचक अलखनारायण जी जीवित थे पर कम आया करते थे केटी। कथाकार अवधनारायण सिंह जी भी और कवि सकलदीप सिंह तो उन दोनों की तुलना में अधिक। श्रीनिवास शर्मा जी‚ कुलदीप सिंह थिंद भी कभी–कभार दिख जाया करते थे। धुवदेव मिश्र पाषाण सहसा दिख जाते तो मजा आ जाता था। अपने परशुराम भाई से उनके सीधे संवाद कम होते थे लेकिन असहमति के बिंदु हमें कभी मिले ही नहीं।

दोनों को एक साथ देखने के हम इतने अभ्यस्त थे कि अकेले देखना किसी को भी अजीब लगता था। दोनों ने मिलकर मार्कण्डेय सिंह का कहानी संग्रह निकाला– 'नई भूमिका’। उन दिनों देर से आते तो पता चला कि पुस्तक के प्रूफ देखने में देर हो जाती है। एकाएक प्रस्ताव दिया मार्कण्डेय जी ने कि उनकी पुस्तक का कवर मैं बनाऊँ। यह भी तय ही था कि पंचदेव जी और परशुराम जी का यह साझा निर्णय था। अंतिम समय में पहले से बना कवर रद्द कर दिया गया था। बाद में पंचदेव जी परशुराम जी के कहने पर मैंने दो कवर और बनाए थे लघु– पत्रिकाओं के एक का नाम था– 'पटाक्षेप’ और दूसरी थी 'कालबोध’। पता चला कि पटाक्षेप नाम पसंद नहीं आया और कालबोध नाम से ही उनके साझे संपादन में लघु पत्रिका निकली। मेरा आवरण चित्र पत्रिका के पहले ही अंक में गया था। पंचदेव के कहने पर मैंने उनके एक मित्र अब उनका नाम याद नहीं आ रहा‚ उनके पुस्तक के लिये भी आवरण चित्र बनाया था। जो किसी हद तक अर्मूत था और ठीक से समझ नहीं आने के कारण उल्टा प्रकाशित कर दिया गया था।

मितभाषी कवि पंचदेव किसी भी विषय पर अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिये पहचाने जाते थे। यह गुण उन दोनों यारों अर्थात परशुराम का रहा जिनमें फर्क करना लोगों के लिये मुश्किल रहा है। साहित्य में रचना के मामले में गणित को कभी प्रश्रय देते नहीं पाया। उनके लिये साहित्य एक ऐसा क्षेत्र था जो समझौतों की हद में नहीं आता। मुझ पर उनका जो सबसे बड़ा आरोप था वह यह कि मैं साहित्य में राजपूतवाद को प्रश्रय देता हूँ। जबकि वह इक्तफाक रहा है। मेरा मेरे श्रद्धेय चित्रकार भाऊ समर्थ पर माँग कर लिखवाया गया लेख इसलिये यह कहकर लौटा दिया था कि राजपूत लेखकों का जिक्र अधिक है। हुआ यह था कि उसमें शलभ श्रीराम सिंह से लेकर विजय बहादुर सिंह तक की चर्चा इक्तफाक से थी जिस पर मैंने गौर ही नहीं किया था। यह मुझे बहुत बाद में पता चला था कि वे स्वयं उसी जाति के हैं जिसके जिक्र का आरोप लगाया था। पत्रिका में गंभीर लेख लिखवाने के लिये मैं उन लोगों को खासा चिंतित देखा करता था। 

अलखनारायण और विमल वर्मा से उन्होंने माँग–माँग कर लिखवाया। तुर्रा ये कि अलखनारायण का लेख मेरे सामने कुछ आवश्यक सुधार के लिये लौटा दिया था। जिसका उन्होंने भी कतई बुरा नहीं माना था। और मेरे पहले काव्य संग्रह एक अदहन हमारे अंदर पर की गई ंिटप्पणी भी उनके चुस्त संपादन की भेंट चढ़ गई जो अलख जी की मुझ पर पहली और अंतिम टिप्पणी साबित हुई थी। अलख जी अपने लम्बे लेख भी छपने से पहले मुझे अक्सर पढ़ा लिया करते थे। केदार सारथी और अवध नारायण जी की कई अप्रकाशित कहानियों का मैं पहला पाठक रहा हूँ।

पंचदेव अक्सर कहा करते थे कि तुम्हारे घर टीटागढ़ चलना है एक दिन। मगर वह हो नहीं पाया। वे कूच कर गए। १९४४ में जन्मे पंचदेव भाई की जीवन यात्रा २८ अप्रैल ९५ को समाप्त हो गई। मृत्यु के कुछ पहले हम केटी का अड्डा बदल चुके थे। अलखभाईकी मौत के बाद वह इतना उदास लगने लगा था कि उसके बदले अमूमन बंदूक गली में अड्डा जमता था। कम ही लोग रह गए थे। पंचदेव भाई मुझे समझाते रहते थे जल्द–जल्द पुस्तकें न निकाला करो। हमें देखो हम कितना धैर्य रखते हैं। यह विरासत है न‚ यही तो छोड़ जाना है। सो संभालकर। बड़े जतन से निकलनी चाहिए पुस्तक। साहित्य में जल्दी–जल्दी नहीं चलता। और आहिस्ता–आहिस्ता के अंदाज में उनकी कुल दो पुस्तकें आई थीं– 'पच्चीस कविताएँ’ं तथा 'तुम्हारी ही बात’। उनसे बरसों हफ्तावारी मुलाकात के बाद भी पारिवारिक बातें कभी नहीं हईं। इसलिये वह पक्ष मेरे लिये आज भी अनजाना है। कोलकाता के अधिकांश लेखकों का यह सच है कि हम एक–दूसरे के जीवन के बारे में बहुत ही कम जानते हैं। मैं इस अपराध में बराबर का शरीक रहा हूँ। अंतिम संस्कार आदि हो चुकने के बाद ही पता चला था। पेशे से सेल्स टेक्स ऑफिसर पंचदेव की लाश कोठारी मेडिकल सेंटर की महंगी चिकित्सा के बाद उनकी मौत के ३० घंटे बाद बिल के बकाए के लिये बंधक पड़ी रही थी। गीतेश शर्मा‚ श्रीहर्ष‚ परशुराम‚ हर्षनाथ‚ विजयशंकर मिश्र जैसे लेखकों की कोशिशों से वह समस्या हल हुई थी।

बाद में पंचदेव भाईकी याद में उनके अनन्य परशुराम जी ने 'कालबोध’ का अंक ५ प्रकाशित किया। इस बीच मैं इतना अस्त–व्यस्त रहा था कि चाहकर भी उनके ऊपर समय रहते कुछ लिख न सका। मगर कालबोध का वह अंक ऋण की याद दिला जाता है। यह और क्या है ऋण नहीं तो? जिनके बीच जिया ऐसा की जीने जैसा लगे। जिनसे ऐसा बहुत कुछ उसके बिना कहे लिया जो जीने को मतलब देता है। जो देता है यह यकीन कि उसका होना कुछ न कुछ है हममें भी सुरक्षित। और हम हैं कि उसका पता तक न चलने दें। क्योंकि वे उनमें से थे ही नहीं‚ जिनके रिश्ते किसी लेन–देन की धुरी पर टिके हों‚ पर मैंने तो लिया ही लिया। केवल ऋण स्वीकार भी न हो सका इसका दंश महसूस करता हूँ। 

यह लिखकर लग रहा है कि नहीं–नहीं यह तो हुआ नहीं। पर लिखना अब भी नहीं आया। शब्दों में कहने का सलीका नहीं आया। नहीं आया अपनी ही बात कहना। फिर भी पंचदेव भाईकि एक कविता के साथ उन पर अपनी ही बात लिखने का मन बनाता हूँ– 
'तुम्हारी छाया में पलता हूँ
सूर्यमुखी हूँ 
दुखी हूँ 
तुम्हारी निगरानी में ही
ऊपर से रोक रखता है
कोई तुम्हारी छाया
और दीमक
मेरी जड़ों में घर बनाने लगते हैं
असुरक्षा से थरथराने लगते हैं मेरे प्राण
और तुम सरल मुग्धकारी मुस्कान फेंकते हो
मेरी संक्रामक उदासी से दूर–दूर रहते हो
अब तुम्ही निर्णय करो
शाप–मुक्ति के लिये
मैं किस ईश्वर की शरण में जाऊँ?

१ अक्तूबर २००२

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