भूलने वाले
तुझे क्या याद भी आता हूँ मैं - स्मरण : शलभ श्रीराम सिंह
(दूसरा भाग)
उनका कहना था कि उन्होंने
मेरी किताब नामवर जी के यहाँ दिल्ली में देखी थी‚ जिसके
दूसरे दिन उनका इंटरव्यू था। मैंने उनकी बात पर उन दिनों
इसलिए भी यकीन इसलिए भी कर लिया क्योंकि वे मेरी पुस्तक के
प्रति सचमुच संजीदा दिखे। मुझसे न सिर्फ किताब ली‚ बल्कि
एक सप्ताह बाद महीन खूबसूरत हस्ताक्षर में बांड पेपर पर
चाइनीज पेन से लिखा ३२ सफों का एक लेख भी पढ़ाया जो मेरी‚
एकांत श्रीवास्तव तथा कालिका प्रसाद सिंह की कविताओं पर
लिखा गया था। इसमें तीनों को कविता की नई पौध का प्रतिनिधि
करार दिया गया था तथा काव्य जगत की संभावनाओं की दिशा तय
की गई थी।
उन्हीं दिनों उन्होंने कल्याणी सिंह‚ प्रभा खेतान की कविता
पुस्तक 'हुस्नाबानों व अन्य कविताएँ’ तथा अर्चना वर्मा की
कविताओं पर भी २८ पेज लेख तथा सकलदीप सिंह के प्रतिशब्द पर
१६ सफे का लेख लिखा था। बेशक इन सब में कवियों के बहाने
समकालीन कविता‚ उसके गतिरोध‚ उसकी नई प्रवृतियों और उसके
स्वभाव पर लम्बी जिरह थी। महिला और पुरष के काव्य विषय और
बोध पर भी कुछ अहम टिप्पणियाँ थीं। जिन्हें उन्होंने मुझे
और सकलदीप जी को पढ़कर सुनाया था। सकलदीप जी अपनी कविता पर
शलभ जी की टिप्पणियों से भावुक हो उठे थे और उन्हें सहसा
लगा था कि उनका लिखा सार्थक रहा है। शलभ जी के बारे में
उनकी राय पहले की अपेक्षा सकारात्मक हो उठी थी।
शलभ जी हालाँकि कल्याणी जी पर अपनी टिप्पणी से आश्वस्त
नहीं हो पा रहे थे। शायद अपने को समझाने के लिए हमसे कहते
थे कि कल्याणी इतना तो डिजर्व करती ही हैं। आखिर हंसराज
रहबर जैसों ने उनकी खुलकर तारीफ की है। अपने और कल्याणी जी
के रिश्ते की अड़चन पर वे कहते कि कल्याणी जी का स्वतंत्र
व्यक्तित्व है। अगर वे तारीफ के काबिल हैं तो उनकी भी
चर्चा क्यों न हो।
इन लेखों के बारे में विदिशा से अपने भेजे पत्र में
उन्होंने लिखा था कि क्यों न इन तीनों लेखों को एक पुस्तक
की शक्ल में प्रकाशित कर दिया जाए तथा उसका नाम रखा जाए
'प्रति कविता की पृष्ठभूमि’। अलबत्ता बात आई गई हो गई कभी
वह पुस्तक देखने को नहीं मिली। एक बार सकलदीप जी ने जोर
लगाया तो हम कल्याणी जी के यहाँ हो आए पता यही चला कि उसकी
पाण्डुलिपि कल्याणी जी के यहाँ ही है‚ उन्होंने हमें यह
आश्वासन देकर लौटा दिया कि वे उसकी फोटो कॉपी करवा कर हमें
देंगी हम फिर कभी आएँ। फिर वह बात वहीं दफन हो गई‚ लेकिन
इस संदर्भ में कुछ लोगों के मुँह से यह अवश्य सुना कि शलभ
जी ऐसी सनकों के लिए कुख्यात रहे हैं। वे अपनी कलम से किसी
ऐरे गैरे को महान साबित कर सकते हैं और फिर अपने लिखे को
आराम से फाड़कर फेंक सकते हैं। वे कलाकार हुनरबाज हैं। और
वे अपना हुनर इस तरह भी माँजते हैं। फिर दोस्तों से एक दिन
सुना कि शलभ जी को दिल का दूसरा दौरा पड़ा है। वे बीमार
हालत में बेलूड़ हाजिर हैं। मैं मिल आया। वे अस्वस्थ से ही
लगे पर स्वस्थ कब लगे थे? वही दुबला इकहरा बदन। जिस पर घर
में होने पर वस्त्र कम ही होते थे इसलिए पसलियाँ गिनी जा
सकती थीं। श्याम वर्ण। खिचड़ी होती सी दाढ़ी।
अगले सप्ताह इला जी ने बताया कि विजय जी कोलकाता आए हैं।
(विजय जी के सुपुत्र गिरीश पार्क के पास पुस्तक की दुकान
चलाते हैं‚ इसलिए उनका आगमन पारिवारिक वजहों से ही था) सो
एक कवि गोष्ठी हनुमान मंदिर ट्रस्ट की ओर से होनी है।
जिसकी वे संयोजिका थीं। इसके लिए शलभ जी को लाने की
जिम्मेदारी मेरी होगी। मैं शलभ जी को लाने पहुँचा तो इसके
लिए कल्याणी जी से इजाजत लेनी पड़ी‚ क्योंकि शलभ जी के
स्वास्थ्य को लेकर वे उन दिनों बेहद चिंतित थीं। शलभ जी ने
बताया था कि कहीं आने–जाने का मामला अब कल्याणी जी की
इजाजत पर निर्भर है। कल्याणी जी ने इस शर्त पर शलभ जी को
मेरे साथ जाने दिया कि उन्हें वापस पहुँचाने के लिए मुझे
स्वयं आना होगा।
शलभ जी को मैं ले तो गया पर क्या मुझ जैसा व्यक्ति शलभ जी
का गंतव्य तय कर सकता था? कवि गोष्ठी बड़ा बाजार स्थित
हनुमान मंदिर में हुई। वहाँ पहले से विजय जी पहुँच चुके
थे। और तो और वहाँ कालिका प्रसाद सिंह भी हाजिर थे‚ जो
सिलिगुड़ी से पहुँचे थे। काव्य पाठ महत्वपूर्ण रहा। विजय
जी‚ शलभ जी‚ सकलदीप जी‚ कालिका‚ इला जी‚ कोलकाता के ही ग़जल
गो मुरारीलाल शर्मा 'प्रशांत’ और मैंने काव्य पाठ किया था।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद सबने मुझे प्रेरित किया कि
परंपरा का पूरा निर्वहन होना चाहिए। सो मैंने सभी की ओर से
कार्यक्रम की संयोजिका और अपनी गुरू से कविजनों की जाम
टकराने की योजना का खुलासा किया। वे पहले तो झेंप–सी गईं
पर फिर अपने शामिल न हो पाने की क्षमा याचना करते हुए मुझे
पाँच सौ रुपए पकड़ा दिए और मेजबानी का दायित्व मुझे सौंप
दिया। अब हमारे सामने जगह की समस्या विकट थी। इतनी–सी रकम
में कोई किसी बार में घुसने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।
लेकिन प्रशांत ने हमारी समस्या का निदान कर दिया और मुसीबत
मोल ले ली। प्रशांत ने जो थोड़ी–सी समस्या व्यक्त की थी उस
पर किसी को ऐतराज न था। वह यह कि आर्थिक तंगी की वजह से वह
बिजली के बिल का भुगतान नहीं कर पाता है इसलिए उसके घर की
बिजली काट दी गई है। सो हमें अँधेरे का मुकाबला दिए से ही
करना होगा। दूसरे यह कि वह पाँचवीं मंजिल पर रहता है और
लिफ्ट नहीं है। मैंने शलभ जी से अनुरोध किया कि हमें इस
दावत में शरीक नहीं होना है।
मेजबानी प्रशांत कर लेंगे। एक तो इतनी सीढ़ियाँ उन्हें तय
नहीं करनी चाहिए‚ दूसरे शराब नहीं पीनी होगी। लेकिन वे
नहीं माने। किसी तरह सहारा देकर मैं उन अँधेरी सँकरी
सीढ़ियों से पाँचवीं मंजिल पर प्रशांत के आवास तक ले गया।
जहाँ वे अपनी माँ‚ सांस्कृतिक मामलों से दूर गृहिणी पत्नी
और पाँच बच्चों वाले परिवार में रहते थे। एक हॉलनुमा कमरे
के अलावा एक और कमरा था। उस छोटे वाले कमरे में विजय जी‚
कालिका‚ शलभ जी‚ प्रशांत और मैं जम गए। सकलदीप जी ने हमसे
यह कह कर पहले ही किनारा कर लिया था कि अब ७०वें में नहीं
पचती। सामान प्रशांत ने राह में ही खरीद लिया था। नमकीन
भी। उसे पता था घर में पानी के अलावा और कुछ हासिल होने
में दिक्कतें हैं। खुद उसकी रोटी बमुश्किल जुटती रही है।
पर अपने घर ले जाकर वह अपने को धन्य महसूस कर रहा था। वह
शलभ जी की बड़ी कद्र करता था और विजय जी के बेटे से उसके
संपर्क दोस्ताना थे सो विजय जी के प्रति भी सहज अनुराग था।
दरअसल‚ वह शलभ जी को अपनी गजलें दिखाना चाहता जिसका अनायास
अवसर उसे मिला था।
शलभ जी को मैं इस शर्त पर ऊपर ले गया था कि वे केवल हमारे
साथ बैठेंगे लेंगे नहीं‚ पर वे इसे भूल गए। वे तुच्छ लगती
बातों के बदले बड़ी बातें करने के मूड में थे। विजय जी मेरी
कविताएँ सुनना चाहते थे। 'गांगी का हाल’ कविता पर उन्होंने
मुझे लताड़ा था और मुझ पर कवि केदारनाथ सिंह की कविता के
प्रभाव से बचे रहने की हिदायत दी थी‚ हालाँकि शलभ जी उनसे
सहमत नहीं थे। वे मानते थे कि केदार जी ने अपनी कविता जहाँ
खत्म की है मैं वहाँ से शुरू कर रहा हूँ। इसलिए वह कविता
और उसकी परंपरा का क्रमिक विकास माना जाना चाहिए।
इस बीच जो कुछ पाँच सौ में प्रशांत ले आए थे वह खत्म हो
चुका था। शलभ जी ने पुराने तरीके से मेरा पर्स हथिया लिया
था। जो कुछ थोड़ा बहुत निकला। उससे दूसरा दौर भी चला। शलभ
जी ने बहुत तो नहीं ली थी‚ पर जबान लड़खड़ाने लगी थी। इधर
प्रशांत बेचैन थे शलभ जी को अपनी ग़जलें सुनाने के लिए। और
यह कयामत की घड़ी थी। प्रशांत ने अपनी एक ग़जल पूरी नहीं की
थी और शलभ जी उखड़ चुके थे। वे न सिर्फ ग़जल की परंपरा पर
भाषण देने लगे थे‚ बल्कि ग़जल के वजन और बहर पर भी भिड़ गए।
उनकी आवाज न सिर्फ तेजतर होती गई थी‚ बल्कि वे लगभग चीखने
लगे थे। और उनके मुँह से माँ बहन की गालियाँ निकल रही थीं।
उन्हें प्रशांत तथा हमारी समझाने की कोशिश बेकार साबित हो
रही थी कि घर में बुजुर्ग माँ भी है और पत्नी भी जिन्हें
अब तक यह भी पता नहीं था कि उनके घर में मैकशी चल रही है।
उन्हें लगा था सभ्य लोग बैठे हैं और पढ़ने लिखने की बात चल
रही है। प्रशांत की माँ कमरे में झाँकने लगी थी कि आखिर
उनके बेटे ने मेहमानों से क्या कह दिया कि वे उसी पर इतना
बिफरे हुए हैं। प्रशांत उन्हें समझा पाने में विफल रहा था
कि उसकी खता यह थी कि उसने एक महान शायर के सामने
परंपराच्युत और वजन तथा बहर से खारिज गजल पढ़ने की गुस्ताखी
की है।
स्थिति जब काबू से बाहर हो गई तो विजय जी उठकर चलते बने।
कालिका प्रसाद भी उठकर जाने लगे तो मैंने उनसे गुजारिश की
कि शलभ जी को नीचे ले जाने में मेरी मदद करें‚ क्योंकि शलभ
जी की हालत नशे तथा बीमारी की कमजोरी से ऐसी हो चली थी कि
वे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पा रहे थे। मैंने कालिका को
यह भी याद दिलाने की कोशिश की कि इस बैठक के पहले उसने
वादा किया था कि शलभ जी को लेकर वह बेलूड़ चला जाएगा। वहीं
शलभ जी के साथ दो एक दिन वह गुजारना चाहता था। इस तरह मुझे
बेलूड़ जाने से मुक्ति मिल जाएगी। मैं देर रात को बेलूड़
जाने से इसलिए बचना चाहता था‚ क्योंकि मेरा घर जल्द
पहुँचना आवश्यक था। मैं टीटागढ़ में अपने नाना जी के साथ
रहता था। वे मंदिर में रहते थे और मैंने किराए पर एक कमरा
ले रखा था। हालाँकि मंदिर में मैं उनके साथ दो साल तक रहा
था‚ लेकिन वहाँ बिजली न होने की वजह से पढ़ने–लिखने में
दिक्कत पेश आती थी। मुश्किल यह थी कि उन दिनों मैंने उनके
मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया था‚ जिसके कारण वे मेरे कमरे
में रह रहे थे। उनकी देखभाल आवश्यक थी। हालाँकि मैंने इस
बैठक से पहले बैरकपुर में अपनी एक कवयित्री मित्र पार्वती
स्वर्णकार को फोन कर दिया था कि वे मेरे नाना जी को खाना
खिला दें और बता दें कि मेरे आने में कुछ विलंब हो सकता
है।
खैर जैसे तैसे मैं उस पाँच मंजिला मकान की संकरी और अँधेरी
तथा खड़ी सीढ़ियों से नीचे ले आया। प्रशांत ने मदद की कोशिश
की थी‚ मगर सीढ़ियों की जगह इतनी संकरी थी कि दो व्यक्ति ही
एक साथ गुजर सकते थे। मेरी मुश्किल यह थी कि मैं खुद पूरी
तरह से ठीक न था। नशे का असर किसी हद तक मुझ पर भी तारी
था। तब तक पीने का अंदाज नहीं मिला था कि कितनी लेने पर
मैं ठीक–ठाक रह सकता हूँ। फिर उस दिए की रोशनी में कितना
स्टील के गिलास में ढाला गया है अनुमान लगाना भी मुश्किल
था। सो सीढ़ी से उस हालत में उस तरह उतरना मौत से खेलने की
तरह था। यदि शलभ‚ प्रशांत पर इस तरह न उखड़े होते तो यह
गुंजाइश थी कि शलभ जी को उस हालत में वहीं छोड़ दिया जाता
और वे सुबह वहाँ से जाते।
नीचे उतरने पर मैंने एक टैक्सी की और उसमें शलभ जी को साथ
बैठाते हुए हावड़ा चलने को कहा तो शलभ जी अड़ गए। वे बोले
मुझे हावड़ा या बेलूड़ नहीं जाना है मुझे सोनागाछी ले चलो।
शलभ जी ने बताया कि वहाँ उनकी कई परिचित हैं‚ जो उनकी
ग़जलों को भी पसंद करती हैं। मैं भी रात में उनके साथ ऐश
करूँ। मेरे लिए अपने गुस्से पर काबू पाना मुश्किल हो रहा
था। मेरे आगे एक तरह कल्याणी जी से किया गया वादा था कि
मैं उन्हें घर पहुँचा जाऊँ। दूसरी तरफ मेरे चौरासी साल के
नाना जी थे जो मेरे आने का इंतजार कर रहे होंगे‚ क्योंकि
उन्हें नींद दो बजे से पहले नहीं आती। तीसरी तरफ ये शलभ जी
थे और उनकी ख्वाहिशें थीं।
मैंने कहा –'अपनी तबीयत पर गौर करें। और घर लौट जाएँ।’ पर
वे कह रहे थे –'मैं राजकमल चौधरी सा जीना चाहता हूँ।’ –'तो
राजकमल सा मरना भी सीखिए।’ मैंने झल्ला कर कहा था और पर्स
में इसी शलभ जी द्वारा खंगाले जाने के बाद छोड़े गए पचास
रुपए टैक्सी वाले को देकर कहा था –'ये जहाँ जाना चाहें छोड़
दो। और मैं टैक्सी से उतर गया था।’
मैं उस रात गिरीश पार्क के पास प्रशांत के मकान के पास से
पैदल सियालदह आया था। बस के पैसे भी जेब में नहीं थे।
गनीमत तो यह थी कि ग्यारह चालीस की आखिरी लोकल छूटते–छूटते
पकड़ में आ गई थी। ट्रेन देखते ही टिकट का भी खयाल जेहन से
उतर गया था और याद भी आता तो कौन खरीदने की हालत में था।
पर हाँ‚ बगैर टिकट के यात्रा का अभ्यास न होने से जो
अस्वाभाविकता आ सकती थी‚ उससे मैं बचा रहा‚ लेकिन हाँ इस
रात जिक्र फिर कभी हमारे बीच नहीं हुआ और न ही उसका कोई
असर ही हमारी बातचीत या संबंधों पर पड़ा। मुझे नहीं पता वे
उसके बाद कहाँ गए और कब घर पहुँचे। अगली मुलाकात शायद दस
दिन बाद गीतेश शर्मा के कार्यालय में हुई‚ राजीव सक्सेना
कोलकाता आए हुए थे और वहाँ एक काव्य–पाठ का आयोजन
प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से अलखनारायण व उनके भाई कपिल
आर्य ने किया था। मैं बस अंतिम खेप का जिक्र करना चाहूँगा
जिसके बाद उनसे मुलाकात की कोई गुंजाइश नहीं बची थी।
इस बीच यह उल्लेख जरूर करना चाहूँगा कि वे कवि कुमारेंद्र
पारसनाथ सिंह के प्रति अगाध प्रेम भाव रखते थे। हिन्दी
संडे मेल में कुमारेंद्र जी की पुस्तक बबुरीबन पर समीक्षा
प्रकाशित हुई थी जिससे वे संतुष्ट नहीं थे। उनकी नजर में
वे मेरी समझ की तुलना में बड़े कवि थे। और मुझे उनके काव्य
मर्म से परिचित कराने और अपनी राय से सहमत कराने का भरपूर
प्रयास किया था। दूसरे नवल जी कोलकाता में जो पुस्तक
प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे थे वे इसके प्रशंसक थे
और मानते थे कि नवल जी में सुरचि है। तीसरे यह कि वे मेरी
नई कविताओं से कुछ शब्दों और बिम्बों को हटावाना चाहते थे
जिसके लिए मैं राजी न था।
कल्याणी जी ने हमारी लम्बी बहसें सुनी थी। और बाद में धीरे
से कहा था अभिज्ञात जी नागार्जुन और शलभ जी के सामने अपनी
अप्रकाशित कविताएँ न पढ़ें और न उनके कहने पर बदलें। ये नए
कवियों की खूबियाँ चुरा लेते हैं और उनके छपने से पहले ही
अपनी कविता में उसका इस्तेमाल कर उसे प्रकाशित करवा देते
हैं। मैं नहीं जानता कि कल्याणी जी का इस मामले में क्या
अनुभव रहा है‚ पर उनकी यह बात अजीब सी लगी थी।
तो बात शलभ जी से अंतिम खेप की मुलाकात की चल रही थी। इस
मुलाकात से काफी पहले शलभ जी का पत्र आया था कि विदिशा में
रामकृष्ण प्रकाशन से वे जुड़ गए हैं। इसलिए अब किताबें
प्रकाशित कराने का संकट नहीं रह गया है। एक पत्रिका
उत्तरशती भी निकल रही है। उसके लिए मैं इधर के बांग्ला
साहित्य और हिन्दी साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर १८–२०
सफे का लेख उन्हें भेजूँ। अपनी पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ
भी तैयार करूँ। मुझसे उनके माँगे गए विषय पर लेख लिखना न
हो सका। और न ही पाण्डुलिपि तैयार हो सकी। मेरे पास लिखने
को भले वक्त किसी प्रकार निकल आए कहीं भेजने की जहमत नहीं
उठाते बनती है। लिखने भर से लगता है कि अपना काम पूरा हुआ।
ऐसा अब भी है।
मैं पत्रकारिता में आ चुका था। नाना जी गुजर चुके थे। उनकी
विरासत में मिली एन.जे.एम.सी. की मिलों की ठेकेदारी और
ट्रांसपोर्टेशन का काम जी के जंजाल सा लगने लगा था। मैं
धीरे–धीरे साठ साल में तैयार की गयी व्यावसायिक विरासत
डुबाने में तल्लीन था और लगभग डूबने की स्थिति में आ चुका
था। कर्ज बढ़ने लगा था और तगादे में कमी की वजह से वसूली
नहीं हो पा रही थी। 'जनसत्ता’ में पलाश विश्वास का कहना था
अक्सर शलभ जी से उनकी खतो किताबत होती रहती है और वे बार–
बार अपने खतों में मुझे याद करते हैं। पलाश जी उनसे अपनी
किताबें प्रकाशित करवाने की फिराक में थे और ईश्वर की गलती
नाम से पलाश विश्वास का कहानी संग्रह रामकृष्ण प्रकाशन ने
संभवतः प्रकाशित भी किया।
इधर जनसत्ता के ही अरविंद चतुर्वेद ने एक दिन बताया कि
मेरे बारे में शलभ जी ने उनके खत में लिखा है कि अभिज्ञात
जी तुम्हारे यहाँ है। और मेरे बारे में अरविंद जी को
उन्होंने 'हैंडल विथ केयर’ की हिदायत दी थी‚ जिसका वे मतलब
नहीं समझ पाए।
फिर जनसत्ता में ही शलभ जी का फोन आया कि वे बेलूड़ पहुँचे
हुए हैं। अरविंद जी ने ही मुझे इसकी जानकारी दी। अरविंद जी
ने यह भी बताया कि उनके लेकटाउन आवास पर एक छोटी–सी बैठक
तय है जिसमें पलाश जी होंगे और मुझे भी पहुँचना है‚ पर मैं
पहुँच नहीं सका। मेरी अनुपस्थिति से शलभ जी खफा थे। सो मैं
एक शाम अकेले ही बेलूड़ पहुँच गया। घर से थोड़ा पहले ही एक
दुकान पर वे दिख गए साथ ही उनकी छोटी बेटी भी थी जो किसी
अँग्रेजी स्कूल में पढ़ाने लगी थी। उसके लिए वे कुछ सामान
खरीद रहे थे। दाढ़ी और बाल पूरी तरह सफेद हो चले थे और सफेद
लम्बे कुर्ते पायजामे में फब भी रहे थे। मुझसे कहा–'घर चलो
मैं पहुँच रहा हूँ।’ मैं घर पहुँचा तो मैंने पाया कि
कल्याणी जी के घर में समृद्धि झाँक रही थी। अनुमान तो यही
लगा कि यह शलभ जी के अंदर आए किसी परिवर्तन की वजह से भी
हो सकता है। थोड़ी देर में शलभ जी लौटे तो दोसे भी लाए थे।
घर में पहले से मौजूद एक युवती से उन्होंने परिचय कराया–
मेरी भतीजी प्रज्ञा सिंह। यह कविताएँ भी लिखती है। और मेरे
साथ विदिशा में रहकर पढ़ रही है। मुझे अच्छा लगा शलभ भी
पारिवारिक हुए।
शलभ जी ने उसे बताया इसी अभिज्ञात ने अपनी किताब 'सरापता
हूँ’ मुझे समर्पित की है। मुझे लगा शलभ जी का गणितीय पक्ष
वैसा ही है। मुझे खुद याद नहीं कि मैंने शलभ जी को किताब
समर्पित की है या नहीं। वह तो पुस्तक प्रकाशित होते वक्त
जो मनोवेग होता है‚ जो मन चाहता है लिखवा लेता है। पर उस
क्षण के साथ व्यक्ति कितनी देर टिकता है। याद आया कि अपने
को समर्पित पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने लिखा
था कि 'मुझ नराधम को आपने पुस्तक समर्पित करने योग्य समझा
इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।’ इस बीच यह बात भी हो गई
कि उनका एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ था कि पुरुष पत्रिका शलभ
विशेषांक निकाल रही है। मैं उन पर कोई लेख पत्रिका को भेज
दूँ। वह भी मुझसे नहीं हो पाया था। बाद में पलाश जी ने
बताया कि यह विशेषांक किसी और पत्रिका ने निकाला है। मैं
वह देख नहीं सका।
शलभ जी ने उस दिन रामकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित अपनी कई
पुस्तकें मुझे दिखाई। मुझे सुखद लगा कि हिन्दी कवि की
पुस्तकें इतने सुंदर ढँग से प्रकाशित हुई थीं। और शलभ जी
का लिखा प्रकाशित होने पर यह भी संतोष हुआ कि उनका
मूल्याँकन अब हो सकेगा। उन्होंने यह भी आश्वस्त किया कि अब
तुम्हारी भी कई किताबें आएँगी। तुम्हें मैंने अपनी सभी
पुस्तकों की पाण्डुलिपि तैयार करने को कहा था वह कहाँ है।
तैयार नहीं है सुन कर झल्लाए भी और एक सप्ताह का समय दिया।
बाद में पाण्डुलिपि के लिए उनके तगादे आते रहे मैं नहीं दे
सका। और एक दिन सुना कि वे बेलूड़ से निकल चुके हैं। मुझे
नहीं पता था कि यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। पर कोई खत
भी फिर नहीं मिला। यह जरूर बीच में सुना था कि रामकृष्ण
प्रकाशन से भी उनकी अनबन हो गई है और वे विदिशा छोड़ चुके
हैं। इसके पहले विजय जी से भी उनकी अनबन का समाचार विजय जी
के पत्र से ही मिला था। मैं इस बीच जालंधर चला आया था।
'अमर उजाला’ में ही मेरे सहकर्मी और रूमपार्टनर तथा कथाकार
हरिहर रघुवंशी ने दिल्ली से लौटकर बताया कि शलभ श्रीराम
सिंह पर शोकसभा थी‚ तो मैं सकते में रह गया। जैसे मेरे
भीतर कुछ एकाएक टूट गया। मुझे लगा मेरे बारे में जो वे
कहते थे 'हैंडल विथ केयर’ वह उनके बारे में ही था या फिर
हम एक ही बिरादरी के हैं। जागरण के एक पत्रकार मित्र ने एक
दिन बताया कि शलभ जी उनके गाँव के पास के थे। उनकी मौत
गाँव में हुई। उनकी मौत मेरे लिए एक तरह के आदमी की मौत
है। मेरे अंदर कुछ मरने की भी आशंका मुझे लगती है। मैं
उनके बारे में सोचना बंद नहीं कर पाता।
१ नवंबर
२००२ |