उर्वशी
के आने के बाद महाराज पुरुरवा ने राजकाज मंत्रियों को सौंप
दिया और स्वयं गंधमादन पर्वत पर चले गए। उर्वशी साथ ही थी।
वहाँ वे बहुत दिन तक आनंद मनाते रहे। एक दिन उर्वशी मंदाकिनी
के तट पर बालू के पहाड़ बना-बनाकर खेल रही थी कि अचानक उसने
देखा- महाराज एक विद्याधर की परम सुंदर बेटी की ओर एकटक देख
रहे हैं। बस वह इसी बात पर रूठ गई और रूठी भी ऐसी कि महाराज के
बार-बार मनाने पर भी नहीं मानी। उन्हें छोड़ कर चली गई। वहाँ
से चलकर वह कुमार वन में आई। इस वन में स्त्रियों को आने की
आज्ञा नहीं थी। ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर भगवान कार्तिकेय यहाँ
रहते थे। उन्होंने यह नियम बना दिया था कि जो भी स्त्री यहाँ
आएगी वह लता बन जाएगी। इसलिए जैसे ही उर्वशी ने उस वन में
प्रवेश किया, वह लता बन गई।
इधर महाराज उसके वियोग में पागल
ही हो गए और अपने मन की व्यथा प्रकट करते हुए इधर-उधर घूमने
लगे। कभी वह समझते कि कोई राक्षस उर्वशी को उठाए लिए जा रहा
है।
बस वह उसे ललकारते, लेकिन
तभी उन्हें पता लगता कि जिसे वह राक्षस समझ बैठे थे कि वह तो
पानी से भरा हुआ बादल है। उन्होंने इंद्रधनुष को गलती से
राक्षस का धनुष समझ लिया है। ये बाण नहीं बरस रहे हैं, ये
बूँदें टपक रही हैं और वह जो कसौटी पर सोने की रेखा के समान
चमक रही है, वह भी उर्वशी नहीं है, बिजली है।
कभी सोचते, कहीं क्रोध में
आकर वह अपने दैवी प्रभाव से छिप तो नहीं गई। कभी हरी घास पर
पड़ी हुई बीरबहूटियों को देखकर यह समझते कि ये उसके ओठों के
रंग से लाल हुए आँसुओं की बूँदें हैं। अवश्य वह इधर से ही गई
हैं। कभी वह मोर को देखकर उससे उर्वशी का पता पूछते, "अरे मोर!
मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि अगर घूमते-फिरते तुमने मेरी
पत्नी को देखा हो तो मुझे बता दो।"
लेकिन मोर उत्तर न देकर नाचने
लगता। महाराज उसके पास से हटकर कोयल के पास जाते। पक्षियों में
कोयल सबसे चतुर समझी जाती है। उसके आगे घुटने टेककर वह कहते,
"हे मीठा बोलने वाली सुंदर कोयल! यदि तुमने इधर-उधर घूमती हुई
उर्वशी को देखा हो तो बता दो। तुम तो रूठी हुई स्त्रियों का
मान दूर करनेवाली हो। तुम या तो उसे मेरे पास ले आओ या झटपट
मुझे ही उसके पास पहुँचा दो। क्या कहा तुमने? वह मुझसे क्यों
रूठ गई है। मुझे तो एक भी बात ऐसी याद नहीं आती कि जिस पर वह
रूठी हो। अरे, स्त्रियाँ तो वैसे ही अपने पतियों पर शासन जमाया
करती है। यह ज़रूरी नहीं कि पति कोई अपराध ही करे तभी वे क्रोध
करेंगी।"
लेकिन कोयल भी इन बातों का
क्या जवाब देती! वह अपने काम में लगी रहती। दूसरे का दुख लोग
कम समझते हैं। राजा कहते, "अच्छा बैठी रहो सुख से! हम ही यहाँ
से चले जाते हैं।"
फिर सहसा उन्हें दक्खिन की ओर
बिछुओं की सी झनझन सुनाई देती। लेकिन पता लगता वह तो राजहंसों
की कूक है जो बादलों की अंधियारी देखकर मानससरोवर जाने को
उतावले हो रहे हैं। वह उनके पास जाकर कहते, "तुम मानससरोवर बाद
में जाना। ये जो तुमने कमलनाल सँभाली है, इन्हें भी अभी छोड़
दो। पहले तुम मुझे उर्वशी का समाचार बताओ।
सज्जन लोग अपने मित्रों की
सहायता करना अपने स्वार्थ से बढ़कर अच्छा समझते हैं। हे हंस!
तुम तो ऐसे ही चलते हो, जैसे उर्वशी चलती है। तुमने उसकी चाल
कहाँ से चुराई। अरे, तुम तो उड़ गए। (हँसकर) तुम समझ गए कि मैं
चोरों को दंड देनेवाला राजा हूँ। अच्छा चलूँ, कहीं और खोजूँ।"
फिर वह चकवे के पास जा
पहुँचते। उससे वही प्रश्न करते, लेकिन उन्हें लगता जैसे चकवा
उनसे पूछ रहा है -- "तुम कौन हो?" वह कहते, "अरे, तुम मुझे
नहीं जानते? सूर्य मेरे नाना और चंद्रमा मेरे दादा हैं। उर्वशी
और धरती ने अपने-आप मुझे अपना स्वामी बनाया है। में वहीं
पुरुरवा हूँ।" लेकिन चकवा भी चुप रहता। महाराज वहाँ से हटकर
कमल पर मंडराते हुए भौरों से पूछने लगते। पर वे भी क्या जवाब
देते! फिर उन्हें हाथी दिखाई दे जाता। उसके पास जाकर वह पूछते,
"हे मतवाले हाथी! तुम दूर तक देख सकते हो। क्या तुमने सदा जवान
रहनेवाली उर्वशी को देखा है। तुम मेरे समान बलवान हो। मैं
राजाओं का स्वामी हूँ। तुम गजों के स्वामी हो। तुम दिन-रात
अपना दान यानी मद बहाया करते हो, मेरे यहाँ भी दिन-रात दान
दिया जाता है। तुमसे मुझे बड़ा स्नेह हो गया है। अच्छा, सुखी
रहो। हम तो जा रहे हैं।"
और फिर उनको दिखाई दे जाता एक
सुहावना पर्वत। उसीसे पूछने लगते, "हे पर्वतों के स्वामी! क्या
तुमने मुझसे बिछुड़ी हुई सुंदरी उर्वशी को कहीं इस वन में देखा
है। उन्हें ऐसा लगता जैसे पर्वतराज ने कुछ उत्तर दिया है।
उन्हें खुशी होती, पर तभी मालूम होता कि वह पर्वतराज का उत्तर
नहीं था, बल्कि पहाड़ की गुफा से टकराकर निकलनेवाली उन्हीं के
शब्दों की गूँज थी।
यहाँ से हटे तो नदी दिखाई दे
गई। उसी से उर्वशी की तुलना करने लगे। लेकिन जब वह भी कुछ नहीं
बोली तो हिरन के पास जा पहुँचे। उसने भी उनकी बातें अनसुनी
करके दूसरी ओर मुँह फेर लिया।ठीक ही है, जब खोटे दिन आते हैं
तो सभी दुरदुराने लगते हैं। लेकिन तभी उन्होंने लाल अशोक के
पेड़ को देखा। उससे भी वही प्रश्न किया और जब वह हवा से हिलने
लगा तो समझे कि वह मना कर रहा है - उसने उर्वशी को नहीं देखा।
इसी प्रकार पागलों की तरह
प्रलाप करते हुए जब वह यहाँ से मुड़े तो उन्हें एक पत्थर की
दरार में लाल मणि-सा कुछ दिखाई दिया।
सोचने लगे कि न तो यह शेर से मारे हुए हाथी का मांस हो सकता है
और न आग की चिनगारी। मांस इतना नहीं चमकता और चूँ कि अभी भारी
वर्षा होकर चुकी है, इसलिए आग के रहने का कोई सवाल ही नहीं
उठता। यह तो अवश्य लाल अशोक के समान लाल मणि है। इसे देखकर
मेरा मन ललचा रहा है।
यह सोचकर वह आगे बढ़े और मणि को निकाल लिया। लेकिन फिर ध्यान
आया कि जब उर्वशी ही नहीं है तो मणि का क्या होगा! इसलिए उसे
गिरा दिया। उसी समय नेपथ्य में से किसी की वाणी सुनाई दी,
"वत्स! इसे ले लो, ले लो, यह प्रियजनों को मिलानेवाली है और
पार्वती के चरणों की लाली से बनी है। जो इसे अपने पास रखता है
उसे वह शीघ्र ही प्रिय से मिलवा देती है।"
यह वाणी सुनकर महाराज चकित रह
गए। उन्हें जान पड़ा कि मानो किसी मुनि ने यह कृपा की है।
उन्होंने उस अज्ञात मुनि को धन्यवाद दिया और मणि को उठा लिया।
इसी समय उनकी दृष्टि बिना फूलवाली एक लता पर पड़ी। न जाने
क्यों उनका मन उछल पड़ा। उन्हें सुख मिला। वह उन्हें उर्वशी के
समान दिखाई पड़ी और जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, उर्वशी सचमुच
वहाँ आ गई; पर उनकी आँखें बंद थीं। उसी तरह कुछ देर बोलते रहे।
जब आँखें खोली और उर्वशी को देखा तो वह मूच्र्छित होकर गिर
पड़े। उर्वशी भी रोने लगी और उन्हें धीरज बँधाने लगी। कुछ देर
बाद महाराज की मूर्च्छा दूर हुई तो उन्हें कार्तिकेय के श्राप
के कारण उर्वशी के लता बन जाने के रहस्य का पता लगा। यह भी पता
लगा कि पार्वती के चरणों की लाली से पैदा होनेवाली मणि से ही
इसे शाप से मुक्ति मिली है।
उर्वशी उनसे बार-बार क्षमा
माँगने लगी, "मुझे क्षमा कर दीजिए, क्यों कि मैंने ही क्रोध
करके आपको इतना कष्ट पहुँचाया।" महाराज बोले, "कल्याणी! तुम
क्षमा क्यों माँगती हो! तुम्हें देखते ही मेरी आत्मा तक
प्रसन्न हो गई है।" और फिर उन्होंने उसे वह मणि दिखाई, जिसके
कारण उसका श्राप दूर हो गया था। उर्वशी ने उस मणि को सिर पर
धारण किया तो उसके प्रकाश में उसका मुख अरुण-किरणों से चमकते
हुए कमल के समान सुहावना लगने लगा।
इसी समय उर्वशी ने याद
दिलाया, "हे प्रिय बोलनेवाले! आप बहुत दिनों से प्रतिष्ठान
पुरी से बाहर हैं। आपकी प्रजा इसके लिए मुझे कोस रही होगी।
इसलिए आइए अब लौट चलें।
महाराज ने उत्तर दिया, "जैसा तुम चाहो।" और लौट पड़े।
नंदन वन आदि देवताओं के बनों
में घूमकर महाराज पुरुरवा फिर अपने नगर में लौट आए। नागरिकों
ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और वह प्रसन्न होकर राज करने
लगे। संतान को छोड़ कर उन्हें अब और किसी बात की कमी नहीं थीं।
उन्हीं दिनों एक दिन एक सेवक महारानी के माथे की मणि ताड़ की
पिटारी में रखे ला रहा था कि इतने में एक गिद्ध झपटा और उसे
मांस का टुकड़ा समझकर उठाकर उड़ गया। यह समाचार पाकर महाराज
आसन छोड़कर दौड़ पड़े। पक्षी अभी दिखाई दे रहा था। उन्होंने
अपना धनुषबाण लाने की आज्ञा दी।
लेकिन जबतक धनुष आया तब तक वह
पक्षी बाण की पहुँच से बाहर निकल चुका था और ऐसा लगने लगा था
मानो रात के समय घने बादलों के दल के साथ मंगल तारा चमक रहा
हो। यह देखकर महाराज ने नगर में यह घोषणा करवाने की आज्ञा दी
कि जब यह चोर पक्षी संध्या को अपने घोंसले में पहुँचे तो इसकी
खोज की जाय।
यह वही मणि थी, जिसके कारण
उर्वशी और महाराज का मिलन हुआ था। इसलिए महाराज उसका विशेष आदर
करते थे। वह यह बात विदूषक को बता ही रहे थे कि कंचुकी ने आकर
महाराज की जय-जयकार की। उसने कहा, "आपके क्रोध ने बाण बनकर इस
पक्षी को मार डाला और इस मणि के साथ यह धरती पर गिर पड़ा।"
महाराज ने उस मणि को आग में शुद्ध करके पेटी में रखने की आज्ञा
दी और यह जानने के लिए कि बाण किसका है उसपर अंकित नाम पढ़ने
लगे। पढ़कर वह सोच में पड़ गए। उस पर लिखा हुआ था - यह बाण
पुरुरवा और उर्वशी के धनुर्धारी पुत्र का है। उसका नाम आयु है
और वह शत्रुओं के प्राण खींचनेवाला है।
विदूषक यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने महाराज को बधाई दी, पर
वह तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे।
यह पुत्र कैसे पैदा हुआ। वह
तो कुछ जानते ही नहीं। शायद उर्वशी ने दैवी-शक्ति से इस बात को
छिपा रखा हो। पर उसने पुत्र को क्यों छिपा रखा?
वह इसी उधेड़बुन में थे कि
च्यवन ऋषि के आश्रम से एक कुमार को लिये किसी तपस्विनी के आने
का समाचार मिला। महाराज ने उन्हें वहीं बुला भेजा और कुमार को
देखते ही उनकी आँखें भर आईं। हृदय में प्रेम उमड़ पड़ा और उनका
मन करने लगा कि उसे कसकर छाती से लगा ले। पर ऊपर से वह शांत ही
बने रहे। उन्होंने तापसी को प्रणाम किया आशीर्वाद देकर तापसी
ने कुमार से कहा, "बेटा, अपने पिताजी को प्रणाम करो।"
कुमार ने ऐसा ही किया। महाराज
ने उसे गदगद होकर आशीर्वाद दिया और तब तापसी बोली, "महाराज! जब
यह पुत्र पैदा हुआ तभी कुछ सोचकर उर्वशी इसे मेरे पास छोड़ आई
थी। क्षत्रिय-कुमार के जितने संस्कार होते है वे सब भगवान
च्यवन ने करा दिए हैं। विद्याधन के बाद धनुष चलाना भी सिखा
दिया गया है, लेकिन आज जब यह फूल और समिधादि लाने के लिए
ऋषिकुमारों के साथ जा रहा था तो इसने आश्रम के नियमों के
विरुद्ध काम कर डाला।"
विदूषक ने घबराकर पूछा, "क्या
कर डाला?"
तापसी बोली, "एक गिद्ध मांस का टुकड़ा लिए हुए पेड़ पर बैठा
था। उस पर लक्ष्य बाँधकर इसने बाण चला दिया। जब भगवान च्यवन ने
यह सुना तो उन्होंने उर्वशी की यह धरोहर उसे सौंप आने की आज्ञा
दी। इसलिए मैं उर्वशी से मिलने आई हूँ।"
महाराज ने तुरंत उर्वशी को
बुला भेजा और पुत्र को गले से लगाकर प्यार करने लगे। उर्वशी ने
आते ही दूर से उसे देखा तो यह सोच में पड़ गई, पर तापसी को
उसने पहचान लिया। अब तो वह सबकुछ समझ गई। पिता के कहने पर जब
पुत्र ने माता को प्रणाम किया तो उसने पुत्र को छाती से चिपका
लिया। तापसी ने उसके स्वामी के सामने उसका पुत्र उसे सौंपते
हुए कहा, "ठीक से पढ़-लिखकर अब यह कुमार कवच धारण करने योग्य
हो गया है, इसलिए तुम्हारे स्वामी के सामने ही तुम्हारी धरोहर
तुम्हें सौंप रही हूँ और अब जाना भी चाहती हूँ। आश्रम का
बहुत-सा काम रुका पड़ा है।"
जाते समय कुमार भी साथ जाने
के लिए मचल उठा, पर जब सबने समझाया तो वह आश्रम-जैसी सरलता से
तापसी से बोला, "तो आप बड़े-बड़े पंखों वाले मेरे उस मणिकंठक
नाम के मोर को भेज देना। वह मेरी गोद में सोकर मेरे हाथों से
अपना सिर खुजलाये जाने का आनंद लिया करता था।"
तापसी हँस पड़ी और ऐसा ही
करने का वचन देकर चली गई।महाराज पुत्र पाकर बड़े प्रसन्न हुए
परंतु उर्वशी रोने लगी। यह देखकर महाराज घबरा उठे और इस विषाद
का कारण पूछने लगे। उर्वशी बोली, "बहुत दिन हुए, आपसे प्रेम
करने पर भरत मुनि ने मुझे शाप दिया था। उस शाप से मैं बहुत
घबरा गई थी तब देवराज इंद्र ने मुझे आज्ञा दी थी कि जब हमारे
प्यारे मित्र राजर्षि तुमसे उत्पन्न हुए पुत्र का मुँह देख लें
तब तुम फिर मेरे पास लौट आना। आपसे बिछोह होने के डर से ही मैं
इस कुमार को पैदा होते ही च्यवन ऋषि के आश्रम में पढ़ने-लिखाने
के बहाने छोड़ आई थी। आज उन्होंने इसे पिता की सेवा करने के
योग्य समझकर लौटा दिया है। बस आज तक ही मैं महाराज के साथ रह
सकती थी।"
यह कथा सुनकर सबको बड़ा दुख
हुआ। महाराज तो मूर्छित हो गए।जब जागे तो उन्होंने तुरंत ही
पुत्र को राज्य सौंपकर तपोवन में जाकर रहने की इच्छा प्रगट की।
लेकिन इसी समय नारद मुनि ने वहाँ प्रवेश किया। आकाश से उतरते
हुए पीली जटावाले, कंधे पर चंद्रमा की कला के समान उजला जनेऊ
और गले में मोतियों की माला पहने, वह ऐसे लगते थे जैसे सुनहरी
शाखावाला कोई चलता-फिरता कल्पवृक्ष चला आ रहा हो। पूजा-अभिवादन
के बाद उन्होंने कहा कि मैं देवराज इंद्र का संदेशा लेकर आया
हूँ। वह अपनी दैवी शक्ति से सबके मन की बातें जाननेवाले हैं।
उन्होंने जब देखा कि आप वन जाने की तैयारी कर रहे हैं तो
उन्होंने कहलाया है -- "तीनों कालों को जाननेवाले मुनियों ने
भविष्यवाणी की है कि देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध
होनेवाला है। युद्ध-विद्या में कुशल आप हम लोगों की सदा सहायता
करते ही रहें इसलिए आप शस्त्र न छोड़े। उर्वशी जीवन भर आपके
साथ रहेगी।"
देवराज इंद्र का यह संदेश
सुनकर उर्वशी और पुरुरवा दोनों बहुत प्रसन्न हुए। इंद्र ने
कुमार आयु के युवराज बनने के उत्सव के लिए भी सामग्री भेजी थी।
उसी से रंभा ने आयु का अभिषेक किया।
अभिषेक के बाद कुमार ने सबको
प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद पाया। लेकिन बड़ी महारानी वहाँ
नहीं थीं। इसलिए उर्वशी ने आयु से कहा, "चलो बेटा! बड़ी माँ को
प्रणाम कर आओ।" और वह उसे लेकर बड़ी महारानी के पास चली।
महाराज बोले, "ठहरो, हम सब लोग साथ ही देवी के पास चलते हैं।"
लेकिन चलने से पहले नारद मुनि ने उनसे पूछा, "हे राजन। इंद्र
आपकी और कौन सी इच्छा पूरी करें।"
राजा बोले, "इंद्र की प्रसन्नता से बढ़कर और मुझे क्या चाहिए।
फिर भी मैं चाहता हूँ कि जो लक्ष्मी और सरस्वती सदा एक-दूसरे
से रूठी रहती हैं, सज्जनों के कल्याण के लिए सदा एकसाथ रहने
लगें। सब आपत्तियाँ दूर हो जाय, सब फलें-फूलें, सबके मनोरथ
पूरे हों और सब कहीं सुख-ही-सुख फैल जाय। |