|  रास्ते में जब उर्वशी को होश आया 
                    और उसे पता लगा कि वह राक्षसों की कैद से छूट गई है, तो वह 
                    समझी कि यह काम इंद्र का है। परंतु चित्रलेखा ने उसे बताया कि 
                    वह राजा पुरुरवा की कृपा से मुक्त हुई है। यह सुनकर उर्वशी ने 
                    सहसा राजा की ओर देखा, उसका मन पुलक उठा। राजा भी इस अनोखे रूप 
                    को देखकर मन-ही-मन उसे सराहने लगे। अप्सराएँ उर्वशी को फिर से 
                    अपने बीच में पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और गदगद होकर राजा के लिए 
                    मंगल कामना करने लगीं, "महाराज सैंकड़ों कल्पों तक पृथ्वी का 
                    पालन करते रहें।" इसी समय गंधर्वराज चित्ररथ वहाँ आ पहुँचे। 
                    उन्होंने बताया कि जब इंद्र को नारद से इस दुर्घटना का पता 
                    लगा, तो उन्होंने गंधर्वों की सेना को आज्ञा दी, "तुरंत जाकर 
                    उर्वशी को छुड़ा लाओ।" वे चले लेकिन मार्ग में ही चारण मिल गए, 
                    जो राजा पुरुरवा की विजय के गीत गा रहे थे। इसलिए वह भी उधर 
                    चले आए। पुरुरवा और चित्ररथ पुराने मित्र थे। बड़े प्रेम से 
                    मिले। चित्ररथ ने उनसे कहा, "अब आप उर्वशी को लेकर हमारे साथ 
                    देवराज इंद्र के पास चलिए। सचमुच आपने उनका बड़ा भरी उपकार 
                    किया है।" लेकिन विजयी राजा ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। 
                    उन्होंने इसे इंद्र की कृपा ही माना। बोले, "मित्र! इस समय तो 
                    मैं देवराज इंद्र के दर्शन नहीं कर सकूँगा। इसलिए आप ही इन्हें 
                    स्वामी के पास पहुँचा आइए।" चलते समय लाज के कारण उर्वशी 
                    राजा से विदा नहीं माँग सकी। उसकी आज्ञा से चित्रलेखा को ही यह 
                    काम करना पड़ा, "महाराज! उर्वशी कहती है कि महाराज की आज्ञा से 
                    मैं उनकी कीर्ति को अपनी सखी बनाकर इंद्रलोक ले जाना चाहती 
                    हूँ।" राजा ने उत्तर दिया, "जाइए, परंतु फिर दर्शन अवश्य 
                    दीजिए।" उर्वशी जा रही थी, पर उसका मन 
                    उसे पीछे खींच रहा था। मानो उसकी सहायता करने के लिए ही उसकी 
                    वैजयंती की माला लता में उलझ गई। उसने चित्रलेखा से सहायता की 
                    प्रार्थना की और अपने आप पीछे मुड़कर राजा की ओर देखने लगी। चित्रलेखा सब कुछ समझती थी। 
                    बोली, "यह तो छूटती नहीं दिखाई देती, फिर भी कोशिश कर देखती 
                    हूँ।" उर्वशी ने हँसते हुए कहा, "प्यारी सखी। अपने ये शब्द याद 
                    रखना। भूलना मत।" राजा का मन भी उधर ही लगा हुआ 
                    था। जब-तक वे सब उड़ न गई; तब तक वह उधर ही देखते रहे। उसके 
                    बाद बरबस रथ पर चढ़कर वह भी अपनी राजधानी की ओर लौट गए। महाराज राजधानी लौट तो आये; 
                    पर मन उसका किसी काम में नहीं लगता था। वह अनमने-से रहते थे। 
                    उनकी रानी ने भी, जो काशीनरेश की कन्या थी, इस उदासी को देखा 
                    और अपनी दासी को आज्ञा दी कि वह राजा के मित्र विदूषक माणवक से 
                    इस उदासी का कारण पूछकर आए। दासी का नाम निपुणिका था। वह अपने 
                    काम में भी निपुण थी। उसने बहुत शीघ्र इस बात का पता लगा लिया 
                    कि महाराज की इस उदासी का कारण उर्वशी है। विदूषक के पेट में 
                    राजा के गुप्त प्रेम की बातें भला कैसे पच सकती थीं। यहीं 
                    नहीं, रानी का भला बनने के लिए उसने यह भी कहा कि वह राजा को 
                    इस मृगतृष्णा से बचाने के लिए कोशिश करते-करते थक गया है। यह 
                    समाचार देने के लिए निपुणिका तुरंत महारानी के पास चली गई और 
                    विदूषक डरता-डरता महाराज के पास पहुँचा।  तीसरे प्रहर का समय था। 
                    राजकाज से छुट्टी पाकर महाराज विश्राम के लिए जा रहे थे। मन 
                    उनका उदास था ही। विदूषक परिहासादि से अनेक प्रकार उनका मन 
                    बहलाने की कोशिश करने लगा, पर सब व्यर्थ हुआ। प्रमद वन में भी 
                    उनका मन नहीं लगा। जी उलटा भारी हो आया। उस समय वसंत ऋतु थी। 
                    आम के पेड़ों में कोंपलें फूट आई थीं। कुरबक और अशोक के फूल 
                    खिल रहे थे। भौंरों के उड़ने से जगह-जगह फूल बिखरे पड़े थे; 
                    लेकिन उर्वशी की सुंदरता ने उनपर कुछ ऐसा जादू कर दिया था कि 
                    उनकी आँखों को फूलों के भार से झुकी हुई लताएँ और कोमल पौधे भी 
                    अच्छे नहीं लगते थे। इसलिए उन्होंने विदूषक से कहा, "कोई ऐसा 
                    उपाय सोचो कि मेरे मन की साध पूरी हो सके।" विदूषक ऐसा उपाय सोचने का 
                    नाटक कर ही रहा था कि अच्छे शकुन होने लगे और चित्रलेखा के साथ 
                    उर्वशी ने वहाँ प्रवेश किया।उन्होंने माया के वस्त्र ओढ़ रखे थे, इसलिए उन्हें कोई देख 
                    नहीं सकता था, वे सबको देख सकती थीं। जब प्रमद वन में उतर कर 
                    उन्होंने राजा को बैठे देखा तो चित्रलेखा बोली, "सखी ! जैसे 
                    नया चाँद चाँदनी की राह देखता है वैसे ही ये भी तेरे आने की 
                    बाट जोह रहे हैं।" उर्वशी को उस दिन राजा पहले से भी सुंदर 
                    लगे।
 लेकिन उन्होंने अपने-आपको 
                    प्रगट नहीं किया। महाराज के पास खड़े होकर उनकी बातें सुनने 
                    लगीं। विदूषक तब उन्हें अपने सोचे हुए उपाय के बारे में बता 
                    रहा था। बोला, "या तो आप सो जाइए, जिससे सपने में उर्वशी से 
                    भेंट हो सके। या फिर चित्र-फलक पर उसका चित्र बनाइए और उसे 
                    एकटक देखते रहिए।" राजा ने उत्तर दिया कि ये दोनों ही बातें 
                    नहीं हो सकती। मन इतना दुखी है कि नींद आ ही नहीं सकती। आँखों 
                    में बार-बार आँसू आ जाने के कारण चित्र का पूरा होना भी संभव 
                    नहीं है। इसी तरह की बातें सुनकर 
                    उर्वशी को विश्वास हो गया कि महाराज उसी के प्रेम के कारण इतने 
                    दुखी हैं; पर वह अभी प्रगट नहीं होना चाहती थी। इसलिए उसने 
                    भोजपत्र पर महाराज की शंकाओं के उत्तर में एक प्रेमपत्र लिखा 
                    और उनके सामने फेंक दिया। महाराज ने उस पत्र को पढ़ा तो पुलक 
                    उठे। उन्हें लगा जैसे वे दोनों आमने-सामने खड़े होकर बातें कर 
                    रहे हैं। कहीं वह पत्र उनकी उंगलियों के पसीने से पुछ न जाय, 
                    इस डर से उसे उन्होंने विदूषक को सौंप दिया। उर्वशी को यह सब 
                    देख-सुनकर बड़ा संतोष हुआ; पर वह अब भी सामने आने में झिझक रही 
                    थी। इसलिए पहले उसने चित्रलेखा को भेजा। पर जब महाराज के मुँह 
                    से उसने सुना कि दोनों ओर प्रेम एक जैसा ही बढ़ा हुआ है तो वह 
                    भी प्रगट हो गई। आगे बढ़ कर उसने महाराज का जय-जयकार किया। 
                    महाराज उर्वशी को देखकर बड़े प्रसन्न हुए; लेकिन अभी वे दो 
                    बातें भी नहीं कर पाए थे कि उन्होंने एक देवदूत का स्वर सुना। 
                    वह कह रहा था, "चित्रलेखा! उर्वशी को शीघ्र ले आओ। भरत मुनि ने 
                    तुम लोगों को आठों रसों से पूर्ण जिस नाटक की शिक्षा दे रखी 
                    है, उसी का सुंदर अभिनय देवराज इंद्र और लोक-पाल देखना चाहते 
                    हैं।"यह सुनकर चित्रलेखा ने उर्वशी से कहा, "तुमने देवदूत के वचन 
                    सुने। अब महाराज से विदा लो।"
 लेकिन उर्वशी इतनी दुखी हो 
                    रही थी कि बोल न सकी। चित्रलेखा ने उसकी ओर से निवेदन किया, 
                    "महाराज, उर्वशी प्रार्थना करती है कि मैं पराधीन हूँ। जाने के 
                    लिए महाराज की आज्ञा चाहती हूँ, जिससे देवताओं का अपराध करने 
                    से बच सकूँ।" महाराज भी दुखी हो रहे थे। 
                    बड़ी कठिनता से बोल सके, "भला मैं आपके स्वामी की आज्ञा का 
                    कैसे विरोध कर सकता हूँ, लेकिन मुझे भूलिएगा नहीं।" महाराज की ओर बार-बार देखती 
                    हुई उर्वशी अपनी सखी के साथ वहाँ से चली गई। उसके जाने के बाद 
                    विदूषक को पता लगा कि महाराज ने उसे उर्वशी का जो पत्र रखने को 
                    दिया था वह कहीं उड़ गया है। वह डरने लगा कि कहीं महाराज उसे 
                    माँग न बैठें। यही हुआ भी। पत्र न पाकर महाराज बड़े क्रुद्ध 
                    हुए और तुरंत उसे ढूँढ़ने की आज्ञा दी। यही नहीं वह स्वयं भी 
                    उसे ढूँढ़ने लगे। इसी समय महारानी अपनी दासियों 
                    के साथ उधर ही आ रही थी। उन्हें उर्वशी के प्रेम का पता लग गया 
                    था। वह अपने कानों से महाराज की बातें सुनकर इस बात की सच्चाई 
                    को परखना चाहती थीं। मार्ग में आते समय उन्हें उर्वशी का वही 
                    पत्र उड़ता हुआ मिल गया। उसे पढ़ने पर सब बातें उनकी समझ में आ 
                    गई। उस पत्र को लेकर जब वह महाराज के पास पहुँची तो वे दोनों 
                    बड़ी व्यग्रता से उसे खोज रहे थे। महाराज कह रहे थे कि मैं तो 
                    सब प्रकार से लुट गया। यह सुनकर महारानी एकाएक आगे बढ़ीं और 
                    बोलीं, "आर्यपुत्र! घबराइए नहीं। वह भोजपत्र यह रहा!" महारानी को और उन्हीं के हाथ 
                    में उस पत्र को देखकर महाराज और भी घबरा उठे, लेकिन किसी तरह 
                    अपने को सँभालकर उन्होंने महारानी का स्वागत किया और कहा, "मैं 
                    इसे नहीं खोज रहा था, देवी। मुझे तो किसी और ही वस्तु की तलाश 
                    थी।" विदूषक ने भी अपने विनोद से उन्हें प्रसन्न करने का 
                    प्रयत्न किया, लेकिन वह क्यों माननेवाली थीं। बोली, "मैं ऐसे 
                    समय में आपके काम में बाधा डालने आ गई। मैंने अपराध किया। 
                    लीजिए मैं चली जाती हूँ।" और वह गुस्से में भरकर लौट चलीं। 
                    महाराज पीछे-पीछे मनाने के लिए दौड़े। पैर तक पकड़े, पर 
                    महारानी इतनी भोली नहीं थीं कि महाराज की इन चिकनी- चुपड़ी 
                    बातों में आ जाती। लेकिन पतिव्रता होने के कारण 
                    उन्होंने कोई कड़ा बर्ताव भी नहीं किया। ऐसा करती तो पछताना 
                    पड़ता। बस वह चली गई। महाराज भी अधीर होकर स्नान-भोजन के लिए 
                    चले गए। वह महारानी को अब भी पहले के समान ही प्यार करते, 
                    लेकिन जब वह हाथ-पैर जोड़ने पर भी नहीं मानीं तो वह भी क्रुद्ध 
                    हो उठे।  देवसभा में भरत मुनि ने 
                    लक्ष्मी-स्वयंवर नाम का जो नाटक खेला था, उसके गीत स्वयं 
                    सरस्वती देवी ने बनाये थे। उसमें रसों का परिपाक इतना सुंदर 
                    हुआ था कि देखते समय पूरी-की-पूरी सभा मगन हो उठती थी। लेकिन 
                    उस नाटक में उर्वशी ने बोलने में एक बड़ी भूल कर दी। जिस समय 
                    वारुणी बनी हुई मेनका ने, लक्ष्मी बनी हुई उर्वशी से पूछा, " 
                    सखी! यहाँ पर तीनों लोक के एक से एक सुन्दर पुरुष, लोकपाल और 
                    स्वयं विष्णु भगवान आए हुए हैं, इनमें तुम्हें कौन सबसे अधिक 
                    अच्छा लगता है?" उस समय उसे कहना चाहिए था 'पुरुषोत्तम', पर 
                    उसके मुँह से निकल गया 'पुरुख'। इसपर भरत मुनि ने उसे शाप 
                    दिया, "तूने मेरे सिखाए पाठ के अनुसार काम नहीं किया है, इसलिए 
                    तुझे यह दंड दिया जाता है कि तू स्वर्ग में नहीं रहने पाएगी।" लेकिन नाटक के समाप्त हो जाने 
                    पर जब उर्वशी लज्जा से सिर नीचा किए खड़ी थी, तो सबके मन की 
                    बात जाननेवाले इंद्र उसके पास गए और बोलो, "जिसे तुम प्रेम 
                    करती हो, वह राजर्षि रणक्षेत्र में सदा मेरी सहायता करनेवाला 
                    है। कुछ उसका प्रिय भी करना ही चाहिए। इसलिए जब तक वह तुम्हारी 
                    संतान का मुँह न देखे, तब तक तुम उसके साथ रह सकती हो।" इधर काशीराज की कन्या महारानी 
                    ने मान छोड़कर एक व्रत करना शुरू किया और उसे सफल करने के लिए 
                    महाराज को बुला भेजा। कंचुकी यह संदेश लेकर जब महाराज के पास 
                    पहुँचा तो संध्या हो चली थी। राजद्वार बड़ा सुहावना लग रहा था। 
                    नींद में अलसाये हुए मोर ऐसे लगते थे जैसे किसी कुशल मूर्तिकार 
                    ने उन्हें पत्थर में अंकित कर दिया हो। जगह जगह संध्या के पूजन 
                    की तैयारी हो रही थी। दीप सजाये जा रहे थे।  अनेक दासियाँ दीपक लिए महाराज 
                    के चारों ओर चली आ रही थीं। इसी समय कंचुकी ने आगे बढ़कर 
                    महाराज की जय-जयकार की और कहा, "देव, देवी निवेदन करती हैं कि 
                    चंद्रमा मणिहर्म्य-भवन से अच्छी तरह दिखाई देगा। इसलिए मेरी 
                    इच्छा है कि महाराज के साथ मैं वही से चंद्रमा और रोहिणी का 
                    मिलन देखूँ।" महाराज न उत्तर दिया, "देवी से कहना कि जो वह 
                    कहेंगी वह मैं करूँगा।" यह कहकर वह विदूषक के साथ 
                    मणिहर्म्य-भवन की ओर चल पड़े। चंद्रमा उदय हो रहा था। उसे 
                    प्रणाम करके वे वहीं बैठ गए और उर्वशी के बारे में बातें करने 
                    लगे। उसी समय माया के वस्त्र ओढ़े उर्वशी भी चित्रलेखा के साथ 
                    उसी भवन की छत पर उतरी और उनकी बातें सुनने लगी, लेकिन जब वह 
                    प्रगट होने का विचार कर रही थी, तभी महारानी के आने की सूचना 
                    मिली। वह पूजा की सामग्री लिए और व्रत को वेशभूषा में अति 
                    सुंदर लग रही थीं। महाराज ने सोचा कि उस दिन मेरे मनाने पर भी 
                    जो रूठकर चली गई थी, उसी का पछतावा महारानी को ही रहा है। व्रत 
                    के बहाने यह मान छोड़कर मुझ पर प्रसन्न हो गई है। महारानी ने आगे बढ़कर महाराज 
                    की जय-जयकार की और कहा, "मैं आर्यपुत्र को साथ लेकर एक विशेष 
                    व्रत करना चाहती हूँ, इसलिए प्रार्थना है कि आप मेरे लिए कुछ 
                    देर कष्ट सहने की कृपा करें।" महाराज ने उत्तर में ऐसे प्रिय 
                    वचन कहे कि जिन्हें सुनकर महारानी मुसकुरा उठीं। उन्होंने सबसे 
                    पहले गंध-फलादि से चंद्रमा की किरणों की पूजा की, फिर पूजा के 
                    लड्डू विदूषक को देकर महाराज की पूजा की। उसके बाद बालीं, "आज 
                    मैं रोहिणी और चंद्रमा को साक्षी करके आर्यपुत्र को प्रसन्न कर 
                    रहीं हूँ। आज से आर्यपुत्र जिस किसी स्त्री की इच्छा करेंगे और 
                    जो भी स्त्री आर्यपुत्र की पत्नी बनना चाहेगी, उसके साथ मैं 
                    सदा प्रेम करूँगी।" 
                    यह सुनकर उर्वशी को बड़ा संतोष 
                    हुआ। महाराज बोले, "देवी! मुझे किसी दूसरे को दे दो या अपना 
                    दास बनाकर रखो, पर तुम मुझे जो दूर समझ बैठी हो वह ठीक नहीं 
                    है।" महारानी ने उत्तर दिया, "दूर हो या न हो, पर मैंने व्रत 
                    करने का निश्चय किया था वह पूरा हो चुका है।"  यह कहकर वह दास-दासियों के 
                    साथ वहाँ से चली गईं। महाराज ने रोकना चाहा, पर व्रत के कारण 
                    वह रुकी नहीं। उनके जाने के बाद महाराज फिर उर्वशी की याद करने 
                    लगे। उदार-हृदय पतिव्रता महारानी की कृपा से अब उनके मिलने में 
                    जो रुकावट थी वह भी दूर हो चुकी थी। उर्वशी ने, जो अबतक सबकुछ 
                    देख-सुन रही थी, इस सुंदर अवसर से लाभ उठाया और वह प्रकट हो 
                    गई। उसने चुपचाप पीछे से आकर महाराज की आँखें मींच लीं। महाराज 
                    ने उसको तुरंत पहचान लिया और अपने ही आसन पर बैठा लिया। तब 
                    उर्वशी ने अपनी सखी से कहा, "सखी! देवी ने महाराज को मुझे दे 
                    दिया है, इसलिए मैं इनकी विवाहिता स्त्री के समान ही इनके पास 
                    बैठी हूँ। तुम मुझे दुराचारिणी मत समझ बैठना।" चित्रलेखा ने भी महाराज से 
                    अपनी सखी की भली प्रकार देखभाल करने की प्रार्थना की, जिससे वह 
                    स्वर्ग जाने के लिए घबरा न उठे। फिर सबसे मिल-भेंटकर वह स्वर्ग 
                    लौट गई। इस प्रकार महाराज का मनोरथ 
                    पूरा हुआ। खुशी-खुशी वह भी विदूषक और उर्वशी के साथ वहाँ से 
                    अपने महल क ओर चले गए। |