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                      हर रोज़ झोपड़ी के चबूतरे पर 
                      बैठी हुई सुलू पिता को पगडण्डी से ऊपर जाते हुए देखकर सोचती 
                      है - मेरी माँ कब आएगी? 
                      कल रात उसने सपने में माँ को 
                      फिर देखा। माँ ने पास आ कर सुलू को गले से लगाया। हर रोज़ वह 
                      यही सपना देखती है - माँ आती है, उसे गले से लगाती है, गोद 
                      में बैठाती है, उसके बालों को सहलाती है। रोज़ सपने में माँ 
                      को देखती तो है पर माँ का चेहरा याद नहीं रहता। फिर भी मिलने 
                      का संतोष बना रहता है। वह रोज़ सुबह पिता से कहती 
                      है, ''अप्पा, मैंने एक सपना देखा।'' उस समय तामि भी नहीं 
                      पूछता कि चार साल की सुलू ने सपने में क्या देखा। उसे मालूम 
                      है कि सुलू कौन सा सपना देखती है। वह रोज़ एक ही सपना तो 
                      देखती है और काम पर जाते समय याद दिला देती है कि वह माँ को 
                      वापस लाने की याद रखे।  हर रोज़ ऐसे ही सुबह होती 
                      है। सुलू का सारा दिन झोपड़ी के बाहर इस चबूतरे पर बीतता है, 
                      माँ का इंतज़ार करते, अकेले खेलते हुए, भूखे पेट कभी कभी 
                      कांजी पी कर, देर तक शाम ढले पिता के काम से वापस लौटने तक
                      मालिक की हवेली के सामने कड़ी दोपहर में तपते हुए सूरज के 
                      नीचे तामि खड़ा है। दूर छायादार वृक्ष उसे हाथ हिला कर अपनी 
                      ओर बुलाते हैं लेकिन तामि को ज़मींदार का इंतज़ार है।
                      
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