'अरे, छोड़ मुझे रांझा क्यों
कहता है? रांझा साला आशिक था कि नाई था? हीर की डोली के साथ
भैंसें हाँककर चल पड़ा। मैं होता न कहीं।'
'वाह रो माणकू! तू तो मिर्ज़ा है मिर्ज़ा!'
'मिर्ज़ा तो हूँ ही, अगर कहीं साहिबाँ ने मरवा न दिया तो!' और
फिर माणकू अपनी रत्नी को छेड़ता, 'देख रत्नी, साहिबाँ न बनना,
हीर बनना।'
'वाह रे माणकू, तू मिर्ज़ा और यह हीर! यह भी जोड़ी अच्छी बनी!'
आगे बैठा ड्राइवर हँसा।
इतनी देर में मध्यप्रदेश का
नाका गुज़र गया और महाराष्ट्र की सीमा आ गई। यहाँ पर हर एक
मोटर, लॉरी और ट्रक को रोका जाता था। पूरी तलाशी ली जाती थी कि
कहीं कोई अफ़ीम, शराब या किसी तरह की कोई और चीज़ तो नहीं ले
जा रहा। उस ट्रक की भी तलाशी ली गई। कुछ न मिला और ट्रक को आगे
जाने के लिए रास्ता दे दिया गया। ज्यों ही ट्रक आगे बढ़ा,
माणकू बेतहाशा हँस दिया।
'साले अफ़ीम खोजते हैं, शराब खोजते हैं। मैं जो नशे की बोतल ले
जा रहा हूँ, सालों को दिखी ही नहीं।'
और रत्नी पहले अपने आप में सिकुड़ गई और फिर मन की सारी
पत्तियों को खोलकर कहने लगी,
'देखना, कहीं नशे की बोतल तोड़ न देना! सभी टुकड़े तुम्हारे
तलवों में उतर जाएँगे।'
'कहीं डूब मर!'
'मैं तो डूब जाऊँगी, तुम सागर बन जाओ!'
मैं सुन रही थी, हँस रही थी
और फिर एक पीड़ा मेरे मन में आई, 'हाय री स्त्री, डूबने के लिए
भी तैयार है, यदि तेरा प्रिय एक सागर हो!'
फिर धुलिया आ गया। हम ट्रक में से उतर गए और कुछ मिनट तक एक
ख़याल मेरे मन को कुरेदता रहा- यह 'रत्नी' एक अधखिली कली-जैसी
लड़की। माणकू इसे पता नहीं कहाँ से तोड़ लाया था। क्या इस कली
को वह अपने जीवन में महकने देगा? यह कली कहीं पाँवों में ही तो
नहीं मसली जाएगी?
पिछले दिनों दिल्ली में एक
घटना हुई थी। एक लड़की को एक मास्टर वायलिन सिखाया करता था और
फिर दोनों ने सोचा कि वे बम्बई भाग जाएँ। वहाँ वह गाया करेगी,
वह वायलिन बजाया करेगा। रोज़ जब मास्टर आता, वह लड़की अपना
एक-आध कपड़ा उसे पकड़ा देती और वह उसे वायलिन के डिब्बे में
रखकर ले जाता। इस तरह लगभग महीने-भर में उस लड़की ने कई कपड़े
मास्टर के घर भेज दिए और फिर जब वह अपने तीन कपड़ों में घर से
निकली, किसी के मन में सन्देह की छाया तक न थी। और फिर उस
लड़की का भी वही अंजाम हुआ, जो उससे पहले कई और लड़कियों का हो
चुका था और उसके बाद कई और लड़कियों का होना था। वह लड़की
बम्बई पहुँचकर कला की मूर्ती नहीं, कला की कब्र बन गई, और मैं
सोच रही थी, यह रत्नी यह रत्नी क्या बनेगी?
आज तीन वर्ष बाद मैंने रत्नी
को देखा। हँसी के पानी से वह तरकारियों को ताज़ा कर रही थी,
'पालक एक आने गठ्ठी, टमाटर छह आने रत्तल और हरी मिर्चें एक आने
ढेरी।' और उसके चेहरे पर पालक की सारी कोमलता, टमाटरों का सारा
रंग और हरी मिर्चों की सारी खुशबू पुती हुई थी।
जीवी के मुख पर दु:खों की रेखाएँ थीं - वहीं रेखाएँ, जो मेरे
गीतों में थीं और रेखाएँ रेखाओं में मिल गई थीं।
रत्नी के मुख पर हँसी की बूँदे थीं- वह हँसी, जब सपने उग आएँ,
तो ओस की बूँदों की तरह उन पत्तियों पर पड़ जाती है; और वे
सपने मेरे गीतों के तुकान्त बनते थे।
जो सपना जीवी के मन में था, वही सपना रत्नी के मन में था। जीवी
का सपना एक उपन्यास के आँसू बन गया और रत्नी का सपना गीतों के
तुकान्त तोड़ कर आज उसकी झोली में दूध पी रहा था। |