उससे खरीदी हुई तरकारी जब मैं
काटती, धोती और पतीले में डालकर पकाने के लिए रखती-सोचती रहती,
उसका पति कैसा होगा! वह जब अपनी पत्नी को देखता होगा, छूता
होगा, तो क्या उसके होंठों में पालक का, टमाटरों का और हरी
मिर्चों का सारा स्वाद घुल जाता होगा?
कभी-कभी मुझे अपने पर खीज
होती कि इस स्त्री का ख़याल किस तरह मेरे पीछे पड़ गया था। इन
दिनों मैं एक गुजराती उपन्यास पढ़ रही थी। इस उपन्यास में
रोशनी की लकीर-जैसी एक लड़की थी-जीवी। एक मर्द उसको देखता है
और उसे लगता है कि उसके जीवन की रात में तारों के बीज उग आए
हैं। वह हाथ लम्बे करता है, पर तारे हाथ नहीं आते और वह निराश
होकर जीवी से कहता है, "तुम मेरे गाँव में अपनी जाति के किसी
आदमी से ब्याह कर लो। मुझे दूर से सूरत ही दिखती रहेगी।" उस
दिन का सूरज जब जीवी देखता है, तो वह इस तरह लाल हो जाता है,
जैसे किसी ने कुँवारी लड़की को छू लिया हो कहानी के धागे लम्बे
हो जाते हैं, और जीवी के चेहरे पर दु:खों की रेखाएँ पड़ जाती
हैं इस जीवी का ख़याल भी आजकल मेरे पीछे पड़ा हुआ था, पर मुझे
खीज नहीं होती थीं, वे तो दु:खों की रेखाएँ थीं, वही रेखाएँ जो
मेरे गीतों में थीं, और रेखाएँ रेखाओं में मिल जाती हैं पर यह
दूसरी जिसके होठों पर हँसी की बूँदे थीं, केसर की तुरियाँ थीं।
दूसरे दिन मैंने अपने पाँवों
को रोका कि मैं उससे तरकारी ख़रीदने नहीं जाऊँगी। चौकीदार से
कहा कि यहाँ जब तरकारी बेचनेवाला आए तो मेरा दरवाज़ा खटखटाना
दरवाजे पर दस्तक हुई। एक-एक चीज़ को मैंने हाथ लगाकर देखा।
आलू-नरम और गड्डों वाले। फरसबीन-जैसे फलियों के दिल सूख गए
हों। पालक-जैसे वह दिन-भर की धूल फाँककर बेहद थक गई हो।
टमाटर-जैसे वे भूख के कारण बिलखते हुए सो गए हो। हरी
मिर्चें-जैसे किसी ने उनकी साँसों में से खुशबू निकाल ली हो,
मैंने दरवाज़ा बन्द कर लिया। और पाँव मेरे रोकने पर भी उस
तरकारी वाली की ओर चल पड़े।
आज उसके पास उसका पति भी था।
वह मंडी से तरकारी लेकर आया था और उसके साथ मिलकर तरकारियों को
पानी से धोकर अलग-अलग रख रहा था और उनके भाव लगा रहा था। उसकी
सूरत पहचानी-सी थी इसे मैंने कब देखा था, कहाँ देखा था- एक नयी
बात पीछे पड़ गई।
"बीबी जी, आप!"
"मैं पर मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।"
"इसे भी नहीं पहचाना? यह रत्नी!"
"माणकू रत्नी।" मैंने अपनी स्मृतियों में ढूँढ़ा, पर माणकू और
रत्नी कहीं मिल नहीं रहे थे।
"तीन साल हो गए हैं, बल्कि महीना ऊपर हो गया है। एक गाँव के
पास क्या नाम था उसका आपकी मोटर खराब हो गई थी।"
"हाँ, हुई तो थी।"
"और आप वहाँ से गुज़रते हुए एक ट्रक में बैठकर धुलिया आए थे,
नया टायर ख़रीदने के लिए।"
"हाँ-हाँ।" और फिर मेरी स्मृति में मुझे माणकू और रत्नी मिल
गए।
रत्नी तब अधखिली कली-जैसी थी
और माणकू उसे पराए पौधे पर से तोड़ लाया था। ट्रक का ड्राइवर
माणकू का पुराना मित्र था। उसने रत्नी को लेकर भागने में माणकू
की मदद की थी। इसलिए रास्ते में वह माणकू के साथ हँसी-मज़ाक
करता रहा।
रास्ते के छोटे-छोटे गाँवों
में कहीं ख़रबूजे बिक रहे होते, कहीं ककड़ियाँ, कहीं तरबूज़!
और माणकू का मित्र माणकू से ऊँची आवाज़ में कहता, "बड़ी नरम
हैं, ककडियाँ ख़रीद ले। तरबूज तो सुर्ख लाल हैं और खरबूजा
बिलकुल मिश्री है ख़रीदना नहीं है तो छीन ले वाह रे रांझे!" |