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                  आखिर मेरी बहू तो ऐसी नहीं। बेचारी अपना एक भी 
                  मिनट आराम करने में नहीं बिताती। समझो कि यह हमारी खुशकिस्मती थी 
                  कि ऐसी बहू हमें मिली।''पति को बहू की तारीफ़ के पुल बाधते देख रमा से रहा नहीं गया।
 वह तनकर बोली ''हम ही चाकरी करने के लिए पैदा हो गई हैं न। मेरे 
                  बाप दादे जमींदार थे। हमारे मायके में नौकर चाकर गाड़ी सब कुछ 
                  थी। लेकिन मैं यहाँ क्या भोग रही हूँ।'' बात बढ़ते देख मैं 
                  वेंकेटश्वर राव के साथ उठ कर बैठक में आ गया। वेंकेटश्वर राव ने 
                  सिगरेट का केस आगे बढ़ाते हुए कहा ''यार मैं जानता हूँ तुमने 
                  सिगरेट पीना छोड़ दिया पर मेरी कसम तुम एक सिगरेट तो पी लो। ना 
                  मत कहो वरना मुझे दुख होगा।''
 
 मैं उस हालत में राव को अप्रसन्न नहीं करना चाहता था। सिगरेट 
                  जलाकर कश लेते हुए सोचने लगा। नाहक राव के घर में क्यों तनाव आ 
                  गया। राव ने ऐश ट्रे लाकर तिपाई पर रखा। मेरी उत्सुकता जगी। वह 
                  चांदी का बना था। उलटे जूते की आकृति का था। इस किस्म का ऐश ट्रे 
                  मैंने पहली ही बार देखा था।पूछा ''यार तुमने इसे कहाँ से 
                  खरीदा।''
 
 राव दार्शनिक की भांति गंभीर हो गया। फीकी मुस्कान उसके चेहरे पर 
                  खिल उठी।
 ''दोस्त मैं तुमसे क्यों छिपाऊं? यह ऐश ट्रे मेरे थोथे आदर्शों 
                  का उपहास करने वाला अविस्मरणीय चिह्न है। तुम जानते हो हमने 
                  कॉलेज में पढ़ते समय शपथ ली थी कि हम भूलकर भी दहेज न लेगें। यह 
                  भी जानते हो हमने अपने विवाह के समय इसका पालन भी किया। पर क्या 
                  बताऊं जब मेरे पुत्र सुरेश के विवाह का प्रश्न उठा तब मैंने बिना 
                  दहेज के एक मित्र की कन्या का रिश्ता पक्का किया।
 
 मेरी श्रीमती को वह रिश्ता पसन्द नहीं आया। कई अच्छे परिवारों की 
                  लड़कियों के पिताओं ने मेरे घर की अनेक बार परिक्रमाएं कीं 
                  किन्तु देवी रमा उन भक्तों की दक्षिणा पर प्रसन्न नहीं हुई। आखिर 
                  मैंने यह रिश्ता तय किया। रमा ने सीमा को देखा। पसन्द भी किया। 
                  रिश्ता पक्का भी हो गया। निमन्त्रण-पत्र भी छपे।
 
 विवाह के केवल पन्द्रह दिन रह गये थे। रमा सोच रही थी कि सीमा के 
                  पिता सिविल सप्लाई अफ़सर हैं उसने दोनो हाथों खूब कमाया होगा। 
                  बिना माँगे हज़ारों की दक्षिणा मिल जाएगी। आखिर न मालूम कैसे 
                  उसके कानों में भनक पड़ी कि सीमा के पिता बड़े भद्र पुरूष हैं। 
                  प्रतिष्ठित भी हैं पर ईमानदार हैं। उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली 
                  है इसलिए यह विवाह ठाठ से तो करेगे किंतु दहेज में एक पैसा न 
                  देंगे। जब सुन्दर सुशील एवं योग्य कन्या को हम 'कन्यादान' की 
                  रस्म अदा कर सौंपते हैं तो दक्षिणा क्यों चुकाएँ।
 
 मैंने भी कभी सीमा के पिता से दहेज की माँग नहीं की थी। रमा मुझ 
                  पर दबाब डालने लगी कि मैं सीमा के पिता से दहेज की रक़म की बात 
                  पक्की कर लूँ। आखिर मैं विवश हो गया। झिझकते हुए मैंने सीमा के 
                  पिता के कानों में यह बात डाल दी। मैंने सिर्फ इतना ही कहा ''भाई 
                  साहब कई लोग दो लाख रूपयों के दहेज का लोभ दिखाते मेरे घर आए 
                  लेकिन मैंने उन सभी रिश्तों को ठुकरा दिया। मैं सिर्फ लड़की को 
                  योग्य सुशील और सुन्दर देखना चाहता था। मेरी श्रीमती कुछ और 
                  सोचती है। मैं यही कहूँगा कि हम दोनों परिवारों की प्रतिष्ठा को 
                  ध्यान में रखते हुए उचित रकम अवश्य दें।''
 
 ये शब्द कहकर मैं घर लौट आया। वह भले मानुस थे मुझ पर नाराज़ भी 
                  नहीं हुए। लेकिन मैंने घर लौटकर रमा को सूचना दी कि अच्छी ख़ासी 
                  रकम दहेज में मिल जाएगी तुम फिक्र मत करो। विवाह के दिन तक रोज़ 
                  वह मुझे तंग करती रही कि तुमने यह क्यों नहीं कहा कि पचास हज़ार 
                  रूपयों का दहेज मिलने पर ही हम आपकी कन्या को ब्याहेंगे। मैंने 
                  एक सप्ताह बाद सुना कि सीमा के पिता ने राइस मिलर्स ऐसोसिएशन के 
                  सदस्यों को अपने घर बुलाया था। राइस मिलर्स ऐसोसिएशन ने कन्या को 
                  एक बहुत बड़ा चाँदी का बरतन भेंट किया। वही बरतन हमें दहेज में 
                  प्राप्त हुआ।
 
 मेरी श्रीमती ने विवाह सम्पन्न होते ही वह बरतन लेकर कमरे में 
                  सुरिक्षत रख दिया।मुझे अलग बुलाकर बरतन का ढक्कन खोल दिया। उसकी 
                  आंखे विस्मय से चमक उठीं। नोटों के बंडलों से वह बरतन भरा हुआ 
                  था। रमा ने सारे बंडल ज़मीन पर उड़ेल दिए। उसने कुल मिलाकर साठ 
                  हज़ार एक सौ सोलह रूपए थे। रमा सीमा के पिता की उदारता की 
                  प्रशंसा करती रही। वे सभी नोट एकदम नए थे। मुझे तो डर लगा कि 
                  कहीं ये जाली नोट तो नहीं।
 
 रमा रूपयों के बंडल एक बक्स में सजाने लगी। मैंने बरतन में हाथ 
                  डाला तो कोई चीज़ हाथ लगी वह ''चाँदी का जूता'' था। मेरे समधी ने 
                  वह जूता मेरे सिर पर नहीं दिल पर मारा था।''
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