संयोग की बात थी कि मैं जिस
दिन अपने वकील शिवराम के घर पहूँचा।उसी दिन मेरे मित्र के
पुत्र की वर्षगाँठ धूमधाम से मनाई जा रही थी।भोज में
निमंत्रित व्यक्तियों में वेंकेटश्वर राव को देख कर मेरी
बाँछे खिल गईं। उसी समय देखता क्या हूँ एकदम उछल कर वह मुझसे
गले मिला।
दूसरे दिन प्रात: मित्र का न्यौता पाकर नाश्ता करने उसके घर
पहुँचा। सर्वप्रथम विलायती व कीमती अलसेशियन सोनी ने हमारा
स्वागत इस तरह किया मानों वह यह जानती हो कि मैं उसके मालिक
का अभिन्न मित्र हूँ।
बाथरूम से सर पोंछते हुए वेंकेटश्वर राव सीधे बैठक में आ
पहुँचा पंखा चलाया।अखबार हाथ में थमा कर कपड़े पहनने के लिए
शयनकक्ष में चला गया।बैठक इस तरह सजाई गई थी मानो फिल्मी
शूटिंग करने के लिए अभी अभी तैयार किया गया सेट हो।मैं मन ही
मन अपने मित्र की पत्नी की अंलकारप्रियता का अभिनंदन करने
लगा।
साथ ही उससे अपनी घरवाली की
तुलना करने लगा। दीवारों पर सुप्रसिद्ध कलाकारों की पेंटिगें
सुशोभित थीं। सारी बैठक एकदम साफ सुथरी और मनमोहक थी।
मैं सोचने लगा कि हॉस्टल में रहते वेंकेटश्वर राव
कैसा लापरवाह रहा करता था। आज उसकी रूचि में ऐसा भारी परिवर्तन
क्योंकर हुआ। वह सदा अपनी चीज़ें अस्त-व्यस्त रख छोड़ता था।
उन्हें करीने से सजाने की उसकी आदत ही न थी। मैं चिढ़ कर उसे लाख
समझा देता किन्तु उसकी लापरवाही में कोई परिवर्तन न देखकर हार
मान चुका था।कभी-कभी कहा करता था ''यार तुम्हारी घरवाली ही शायद
तुम्हें बदल सकेगी।'' अचानक मुझे स्मरण आया राव में तो कोई
परिवर्तन न हुआ होगा। उसकी श्रीमती रमा की कला होगी। ''वाह रमा
तो सौन्दर्य की आराधिका होगी।
''भाई साहब नमस्ते शायद आप रास्ता भूल गए हैं जो हमारे घर आए।''
रमा एक साँस में कह गई। मैंने ब्लिट्ज को तिपाई पर रखते हुए
दृष्टि उठाई तो देखता क्या हूँ सामने हाथ जोड़े हँसमुख रमा खड़ी
है। मैंने उठ कर अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया। तभी रमा पूछ बैठी
''आप सुरेश की शादी में क्यों नहीं आए? हमने तो आपका बहुत
इन्तज़ार किया।''
''क्या सुरेश की शादी हो गई? मुझे न्यौता कहाँ मिला जो चला आता।
निमत्रंण पत्र तो भेजा नहीं उलटे मुझ पर दोषारोपण कर रही हो। वाह
उलटा चोर कोतवाल को डाँटे।''
''आप क्या कह रहे हैं? हमने पहली किश्त में ही आपके नाम पोस्ट कर
दिया था।''
''हो सकता है रमा जी, पर मुझे मिलता तब न मैं आता। सच कह रहा हूँ
मेरे नाम कोई निमंत्रण नहीं आया।'' मैंने अपनी तरफ से पूरी सफाई
देने की कोशिश की।
शायद रमा के तर्क के सामने मैं हार बैठता तभी वेंकटेश्वर राय ने
प्रवेश करके मेरी रक्षा की।
रमा नाश्ते का प्रबन्ध करने भीतर चली गई। थोड़ी देर बाद भीतर से
बुलावा आया। भोजनालय में गुड़िया जैसी सुन्दर कन्या तश्तरियों
में मिठाइयाँ सजा रही थी। वेंकटेश्वर राव ने अपनी बहू का परिचय
कराया ''यह सीमा मेरी पुत्र वधू' जानते हो इसने एम ए प्रथम
श्रेणी में किया है। विश्वविद्यालय भर में यह प्रथम आई। इसे
स्वर्ण पदक भी प्राप्त हुआ है। फिर राव ने अपनी पुत्र वधू से कहा
'' बेटी चाचा को ज़रा वह पदक तो दिखलाओ।''
सीमा को शायद पदक दिखाना पसन्द न था। वह सर झुकाए चाय के प्याले
मेज़ पर लगा रही थी। रमा दौड़ कर बैठक में गई। अलमारी से पदक
लाकर उसने मेरे हाथ में थमा दिया।
''भैया हमारी बिरादरी में आज तक किसी ने स्वर्णपदक प्राप्त नहीं
किया। हमारी सीमा पर हमें गर्व है। यह तो रात दिन पढ़ती है। पी
एच ड़ भी कर रही है। कहती है कि मैं डी लिट् भ़ी करूंगी। मुझे डर
है कि रात-दिन जागने पर बहू की तबियत कहीं बिगड़ न जाए। मैं लाख
समझाती हूँ कि बहू तुम आराम करो लेकिन हमारी बात सुनती ही नहीं।
रसोई बनाती है खाना परोसती है ससुर की सेवा करती है साथ ही कॉलेज
में पढ़ाती भी है।''
''भाभी तब कोई रसोइया क्यों नहीं रख लेतीं? कमाने वाली बहू से
काम लेना तो ठीक नहीं है। लोग क्या सोचेंगे? '
''मैं भी यही सोचती हूँ लेकिन अपने हाथ का खाना ही अच्छा लगता
है। काम भी क्या है चार जने हैं। आखिर हमारा भी तो समय कटना
चाहिए। काम करने से तबियत भी अच्छी रहती है।''
''रमा झूठ बोलने की भी हद होती है। ये पराये थोड़े ही हैं।
यार असली बात यह है कि रमा रसोइए के पीछे खर्च करना बेकार मानती
है। मैंने एक दो नौकर रखे भी पर कोई न कोई बहाना बना कर इसने भगा
दिया।''
''तुम सारा दोष मुझ पर मढ़ते हो। तुम्हींने तो एक दिन नौकर को
किसी काम का नहीं बताया इसलिए मैंने हटा दिया।वरना मेरा क्या
जाता है। कमानेवाले तुम हो और खर्चने वाले भी तुम्हीं हो। मैं
आराम से बैठ जाती। मुझे क्या पड़ा है हाथ जलाने को '' रमा खीज
उठी।
मैंने बीच बचाव के ख्याल से समझाया ''अपना काम खुद करने में बुरा
क्या है। भाभी का समय भी कटेगा और तुम लोगों को बढ़िया खाना भी
मिलेगा। जब वह स्वयं खाना बनाने को तैयार हैं तो तुम रोकने की
क्यों सोचते हो।''
'' अगर वह खुद बना ले तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है मगर बेचारी बहू
से सारा दिन काम लेती है। उसे पढ़ने की फुसरत नहीं मिलती। जब वह
छह सौ रूपए मासिक कमा कर लाती है तो उसमें से एक सौ रूपए रसोइए
के पीछे खर्च करने में क्या हर्ज है। अगर अशिक्षित बहू घर आती तो
क्या होता। मेरे भाई के घर के हालात जानते हो? पचास हज़ार रूपए
लेकर मैट्रिक पास बहू को घर लाए। वह रानी की तरह बैठी रहती है।
परोसने तक का काम नहीं करती। कोई छोटा मोटा काम बता दे तो कहती
है ''मेरे पिता जी ने इसलिए पचास हज़ार रूपए नहीं दिए हैं कि मैं
आपके घर बेगारी करूँ। वे रूपए बैंक में जमा कर दो। जो ब्याज मिले
उससे नौकर रख लो।''
आखिर मेरी बहू तो ऐसी नहीं। बेचारी अपना एक भी
मिनट आराम करने में नहीं बिताती। समझो कि यह हमारी खुशकिस्मती थी
कि ऐसी बहू हमें मिली।''
पति को बहू की तारीफ़ के पुल बाधते देख रमा से रहा नहीं गया।
वह तनकर बोली ''हम ही चाकरी करने के लिए पैदा हो गई हैं न। मेरे
बाप दादे जमींदार थे। हमारे मायके में नौकर चाकर गाड़ी सब कुछ
थी। लेकिन मैं यहाँ क्या भोग रही हूँ।'' बात बढ़ते देख मैं
वेंकेटश्वर राव के साथ उठ कर बैठक में आ गया। वेंकेटश्वर राव ने
सिगरेट का केस आगे बढ़ाते हुए कहा ''यार मैं जानता हूँ तुमने
सिगरेट पीना छोड़ दिया पर मेरी कसम तुम एक सिगरेट तो पी लो। ना
मत कहो वरना मुझे दुख होगा।''
मैं उस हालत में राव को अप्रसन्न नहीं करना चाहता था। सिगरेट
जलाकर कश लेते हुए सोचने लगा। नाहक राव के घर में क्यों तनाव आ
गया। राव ने ऐश ट्रे लाकर तिपाई पर रखा। मेरी उत्सुकता जगी। वह
चांदी का बना था। उलटे जूते की आकृति का था। इस किस्म का ऐश ट्रे
मैंने पहली ही बार देखा था।पूछा ''यार तुमने इसे कहाँ से
खरीदा।''
राव दार्शनिक की भांति गंभीर हो गया। फीकी मुस्कान उसके चेहरे पर
खिल उठी।
''दोस्त मैं तुमसे क्यों छिपाऊं? यह ऐश ट्रे मेरे थोथे आदर्शों
का उपहास करने वाला अविस्मरणीय चिह्न है। तुम जानते हो हमने
कॉलेज में पढ़ते समय शपथ ली थी कि हम भूलकर भी दहेज न लेगें। यह
भी जानते हो हमने अपने विवाह के समय इसका पालन भी किया। पर क्या
बताऊं जब मेरे पुत्र सुरेश के विवाह का प्रश्न उठा तब मैंने बिना
दहेज के एक मित्र की कन्या का रिश्ता पक्का किया।
मेरी श्रीमती को वह रिश्ता पसन्द नहीं आया। कई अच्छे परिवारों की
लड़कियों के पिताओं ने मेरे घर की अनेक बार परिक्रमाएं कीं
किन्तु देवी रमा उन भक्तों की दक्षिणा पर प्रसन्न नहीं हुई। आखिर
मैंने यह रिश्ता तय किया। रमा ने सीमा को देखा। पसन्द भी किया।
रिश्ता पक्का भी हो गया। निमन्त्रण-पत्र भी छपे।
विवाह के केवल पन्द्रह दिन रह गये थे। रमा सोच रही थी कि सीमा के
पिता सिविल सप्लाई अफ़सर हैं उसने दोनो हाथों खूब कमाया होगा।
बिना माँगे हज़ारों की दक्षिणा मिल जाएगी। आखिर न मालूम कैसे
उसके कानों में भनक पड़ी कि सीमा के पिता बड़े भद्र पुरूष हैं।
प्रतिष्ठित भी हैं पर ईमानदार हैं। उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली
है इसलिए यह विवाह ठाठ से तो करेगे किंतु दहेज में एक पैसा न
देंगे। जब सुन्दर सुशील एवं योग्य कन्या को हम 'कन्यादान' की
रस्म अदा कर सौंपते हैं तो दक्षिणा क्यों चुकाएँ।
मैंने भी कभी सीमा के पिता से दहेज की माँग नहीं की थी। रमा मुझ
पर दबाब डालने लगी कि मैं सीमा के पिता से दहेज की रक़म की बात
पक्की कर लूँ। आखिर मैं विवश हो गया। झिझकते हुए मैंने सीमा के
पिता के कानों में यह बात डाल दी। मैंने सिर्फ इतना ही कहा ''भाई
साहब कई लोग दो लाख रूपयों के दहेज का लोभ दिखाते मेरे घर आए
लेकिन मैंने उन सभी रिश्तों को ठुकरा दिया। मैं सिर्फ लड़की को
योग्य सुशील और सुन्दर देखना चाहता था। मेरी श्रीमती कुछ और
सोचती है। मैं यही कहूँगा कि हम दोनों परिवारों की प्रतिष्ठा को
ध्यान में रखते हुए उचित रकम अवश्य दें।''
ये शब्द कहकर मैं घर लौट आया। वह भले मानुस थे मुझ पर नाराज़ भी
नहीं हुए। लेकिन मैंने घर लौटकर रमा को सूचना दी कि अच्छी ख़ासी
रकम दहेज में मिल जाएगी तुम फिक्र मत करो। विवाह के दिन तक रोज़
वह मुझे तंग करती रही कि तुमने यह क्यों नहीं कहा कि पचास हज़ार
रूपयों का दहेज मिलने पर ही हम आपकी कन्या को ब्याहेंगे। मैंने
एक सप्ताह बाद सुना कि सीमा के पिता ने राइस मिलर्स ऐसोसिएशन के
सदस्यों को अपने घर बुलाया था। राइस मिलर्स ऐसोसिएशन ने कन्या को
एक बहुत बड़ा चाँदी का बरतन भेंट किया। वही बरतन हमें दहेज में
प्राप्त हुआ।
मेरी श्रीमती ने विवाह सम्पन्न होते ही वह बरतन लेकर कमरे में
सुरिक्षत रख दिया।मुझे अलग बुलाकर बरतन का ढक्कन खोल दिया। उसकी
आंखे विस्मय से चमक उठीं। नोटों के बंडलों से वह बरतन भरा हुआ
था। रमा ने सारे बंडल ज़मीन पर उड़ेल दिए। उसने कुल मिलाकर साठ
हज़ार एक सौ सोलह रूपए थे। रमा सीमा के पिता की उदारता की
प्रशंसा करती रही। वे सभी नोट एकदम नए थे। मुझे तो डर लगा कि
कहीं ये जाली नोट तो नहीं।
रमा रूपयों के बंडल एक बक्स में सजाने लगी। मैंने बरतन में हाथ
डाला तो कोई चीज़ हाथ लगी वह ''चाँदी का जूता'' था। मेरे समधी ने
वह जूता मेरे सिर पर नहीं दिल पर मारा था।'' |