मैं सोचने लगा कि हॉस्टल में रहते वेंकेटश्वर राव
कैसा लापरवाह रहा करता था। आज उसकी रूचि में ऐसा भारी परिवर्तन
क्योंकर हुआ। वह सदा अपनी चीज़ें अस्त-व्यस्त रख छोड़ता था।
उन्हें करीने से सजाने की उसकी आदत ही न थी। मैं चिढ़ कर उसे लाख
समझा देता किन्तु उसकी लापरवाही में कोई परिवर्तन न देखकर हार
मान चुका था।कभी-कभी कहा करता था ''यार तुम्हारी घरवाली ही शायद
तुम्हें बदल सकेगी।'' अचानक मुझे स्मरण आया राव में तो कोई
परिवर्तन न हुआ होगा। उसकी श्रीमती रमा की कला होगी। ''वाह रमा
तो सौन्दर्य की आराधिका होगी।
''भाई साहब नमस्ते शायद आप रास्ता भूल गए हैं जो हमारे घर आए।''
रमा एक साँस में कह गई। मैंने ब्लिट्ज को तिपाई पर रखते हुए
दृष्टि उठाई तो देखता क्या हूँ सामने हाथ जोड़े हँसमुख रमा खड़ी
है। मैंने उठ कर अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया। तभी रमा पूछ बैठी
''आप सुरेश की शादी में क्यों नहीं आए? हमने तो आपका बहुत
इन्तज़ार किया।''
''क्या सुरेश की शादी हो गई? मुझे न्यौता कहाँ मिला जो चला आता।
निमत्रंण पत्र तो भेजा नहीं उलटे मुझ पर दोषारोपण कर रही हो। वाह
उलटा चोर कोतवाल को डाँटे।''
''आप क्या कह रहे हैं? हमने पहली किश्त में ही आपके नाम पोस्ट कर
दिया था।''
''हो सकता है रमा जी, पर मुझे मिलता तब न मैं आता। सच कह रहा हूँ
मेरे नाम कोई निमंत्रण नहीं आया।'' मैंने अपनी तरफ से पूरी सफाई
देने की कोशिश की।
शायद रमा के तर्क के सामने मैं हार बैठता तभी वेंकटेश्वर राय ने
प्रवेश करके मेरी रक्षा की।
रमा नाश्ते का प्रबन्ध करने भीतर चली गई। थोड़ी देर बाद भीतर से
बुलावा आया। भोजनालय में गुड़िया जैसी सुन्दर कन्या तश्तरियों
में मिठाइयाँ सजा रही थी। वेंकटेश्वर राव ने अपनी बहू का परिचय
कराया ''यह सीमा मेरी पुत्र वधू' जानते हो इसने एम ए प्रथम
श्रेणी में किया है। विश्वविद्यालय भर में यह प्रथम आई। इसे
स्वर्ण पदक भी प्राप्त हुआ है। फिर राव ने अपनी पुत्र वधू से कहा
'' बेटी चाचा को ज़रा वह पदक तो दिखलाओ।''
सीमा को शायद पदक दिखाना पसन्द न था। वह सर झुकाए चाय के प्याले
मेज़ पर लगा रही थी। रमा दौड़ कर बैठक में गई। अलमारी से पदक
लाकर उसने मेरे हाथ में थमा दिया।
''भैया हमारी बिरादरी में आज तक किसी ने स्वर्णपदक प्राप्त नहीं
किया। हमारी सीमा पर हमें गर्व है। यह तो रात दिन पढ़ती है। पी
एच ड़ भी कर रही है। कहती है कि मैं डी लिट् भ़ी करूंगी। मुझे डर
है कि रात-दिन जागने पर बहू की तबियत कहीं बिगड़ न जाए। मैं लाख
समझाती हूँ कि बहू तुम आराम करो लेकिन हमारी बात सुनती ही नहीं।
रसोई बनाती है खाना परोसती है ससुर की सेवा करती है साथ ही कॉलेज
में पढ़ाती भी है।''
''भाभी तब कोई रसोइया क्यों नहीं रख लेतीं? कमाने वाली बहू से
काम लेना तो ठीक नहीं है। लोग क्या सोचेंगे? '
''मैं भी यही सोचती हूँ लेकिन अपने हाथ का खाना ही अच्छा लगता
है। काम भी क्या है चार जने हैं। आखिर हमारा भी तो समय कटना
चाहिए। काम करने से तबियत भी अच्छी रहती है।''
''रमा झूठ बोलने की भी हद होती है। ये पराये थोड़े ही हैं।
यार असली बात यह है कि रमा रसोइए के पीछे खर्च करना बेकार मानती
है। मैंने एक दो नौकर रखे भी पर कोई न कोई बहाना बना कर इसने भगा
दिया।''
''तुम सारा दोष मुझ पर मढ़ते हो। तुम्हींने तो एक दिन नौकर को
किसी काम का नहीं बताया इसलिए मैंने हटा दिया।वरना मेरा क्या
जाता है। कमानेवाले तुम हो और खर्चने वाले भी तुम्हीं हो। मैं
आराम से बैठ जाती। मुझे क्या पड़ा है हाथ जलाने को '' रमा खीज
उठी।
मैंने बीच बचाव के ख्याल से समझाया ''अपना काम खुद करने में बुरा
क्या है। भाभी का समय भी कटेगा और तुम लोगों को बढ़िया खाना भी
मिलेगा। जब वह स्वयं खाना बनाने को तैयार हैं तो तुम रोकने की
क्यों सोचते हो।''
'' अगर वह खुद बना ले तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है मगर बेचारी बहू
से सारा दिन काम लेती है। उसे पढ़ने की फुसरत नहीं मिलती। जब वह
छह सौ रूपए मासिक कमा कर लाती है तो उसमें से एक सौ रूपए रसोइए
के पीछे खर्च करने में क्या हर्ज है। अगर अशिक्षित बहू घर आती तो
क्या होता। मेरे भाई के घर के हालात जानते हो? पचास हज़ार रूपए
लेकर मैट्रिक पास बहू को घर लाए। वह रानी की तरह बैठी रहती है।
परोसने तक का काम नहीं करती। कोई छोटा मोटा काम बता दे तो कहती
है ''मेरे पिता जी ने इसलिए पचास हज़ार रूपए नहीं दिए हैं कि मैं
आपके घर बेगारी करूँ। वे रूपए बैंक में जमा कर दो। जो ब्याज मिले
उससे नौकर रख लो।'' |