ऋतुओं की झाँकी (शरद ऋतु)
-महेन्द्र सिंह रंधावा
वर्षा ऋतु समाप्त हो गयी। वायुमंडल धुंध और धूल से मुक्त होकर
निर्मल हो गया। आकाश का रंग गहरा नीला दिखायी देता है और शीतल
समीर बहने लगती है। सूर्यास्त के समय शरद् ऋतु की सुनहली
संध्या की छटा दर्शनीय होती है। धरती काँस के चाँदी–जैसे सफेद
फूलों से ढक जाती है। नदी के किनारे वे फूल हवा में चँवर की
तरह मंथर गति से डोलते रहते हैं। नीले आकाश में जल विहीन श्वेत
बादल इधर–उधर उड़ते हुए ऐसे लगते हैं, जैसे धुनिए की ताँत से
बिखरे हुए रुई के गाले। शरद् ऋतु में कचनार और कोविदार के
वृक्ष गुलाबी, बैंगनी फूलों से लद
जाते हैं, जिन पर मधुमक्खियों के
दल मँडराया करते हैं।
काँगड़ा घाटी में पद्म के वृक्षों की शोभा अविस्मरणीय है। अपने
लाल फूलों से युक्त पद्म अस्त होते हुए सूर्य की किरणों से
प्रकाशित हिमालय के नीले आकाश में ऐसे दिखायी देते हैं, मानो,
वे अग्नि के बादल हैं। पद्म कहता है, "मैं शरद् के स्वप्न में
तैरता हुआ विलास का गुलाबी बादल हूँ।"
बाँज वृक्ष की पत्तियाँ गहरे भूरे रंग की होती हैं। मैपल और
चैस्टनट अपनी सुनहली भूरी पत्तियों के कारण वन के अन्य वृक्षों
के बीच अनायास ही पहचाने जा सकते हैं। बतखों के झुंड पर्वतों
से मैदानी झीलों की ओर उतरते हुए दिखायी देते हैं। किसान धान
के खेतों की कटाई में लगे हैं। उनके घरों की छतों पर मक्का के
अम्बरी भुट्टे फैले हैं। काँस के सफेद फूलों पर चंद्रकिरणें
नृत्य करती हुई ऐसी मालूम होती हैं, मानो, उन्होंने काँसो से
जादू के खम्भे बना दिये हों। रातें रुपहली चंद्रिका से
ओत–प्रोत हो जाती हैं। पर्वतीय घाटियों में नदियों की सूखी
तलैटियों में बालू के कण हीरों के समान चमकते हैं।
माघ का महीना शीत ऋतु के आगमन की सूचना देता है। दिन छोटे हो
जाते हैं और रातें बड़ी। आकाश घोर नीले रंग का हो जाता है,
जिसमें बादल नाम को भी दिखायी नहीं देते। पर्वतों से ठंडी हवा
चलने लगती हैं और मनुष्य और पशु घरों के कोनों में उष्णता की
खोज करने लगते हैं। कचनार के वृक्षों की पत्तियाँ झड़ जाती हैं।
जैसे ही सूर्य का उदय होता है, वैसे ही जीवन में गति आ जाती
है। गाँव के लोग कम्बल लपेटे घरों के आँगनों में, ओसरों के
कोनों में या छतों पर बैठे धूप खाते हैं। शीत ऋतु की शीतल वायु
अंगूरी शराब की तरह बलवर्धक और स्वास्थ्यप्रदायिनी होती है।
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