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पुरूष स्वर – कबीर के साथ बहुत लोग रहे हों पर कबीर तो अकेले थे। अपना घर जला, मुराड़ा हाथ लिए अकेले ही चल दिए थे। उनके साथ जो चला, उसका भी घर जला। उन्होंने तो इस कागज़–सी पुड़िया जैसे संसार में रहना कभी नहीं चाहा।

रहना नहीं देस बिराना है।
यह संसार काग़ज़ की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कांट की बाड़ी, उलझ–पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ और झांखर, आग लगे जरि जाना है।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।।

(प्रतिध्वनि) सतगुरू नाम ठिकाना है

बिना सतगुरू के ज्ञान कहां और बिना ज्ञान अच्छे–बुरे, सत्य–असत्य, न्याय–अन्याय आदि का विवेक कैसे जागृत होगा। इसलिए तो गुरू ईश्वर से भी श्रेष्ठ है। इसलिए ही तो गुरू गोविंद दोउ खड़े हो तो पहले गुरू के पांव ही तो लगना है। पर गुरू कैसा? क्या वो जो स्वयं अंधा है और जिसका चेला खरा निरंध है। अंधा अंधे को मार्ग दिखाएगा तो दोनों माया मोह और अज्ञानता के कुंएं में ही तो पड़ेंगे। इसलिए तो, सतगुरू नाम ठिकाना है। वो सतगुरू जो किताबी ज्ञान नहीं देता, व्यावहारिक ज्ञान देता है। वो गुरू जो अपने चेले के अंदर प्रकाश भर देता है। ऐसे गुरू रामानंद को पाने के लिए ही तो कबीर गंगाघाट की सीढ़ियों पर लेट गए थे। ऐसे ही गुरू का पैर जब लेटे हुए कबीर के सर पर लगा और गुरू के मुख से राम नाम निकला। यही राम नाम तो कबीर का मंत्र है। इसी मंत्र ने तो उन्हें राम का कूता बना दिया। यह उस राम के नाम का मंत्र है जो दशरथ का सुत नहीं, निर्गुण निराकार ब्रह्म है। जिसे पाने के लिए मन को मथुरा, दिल का द्वारका और शरीर को काशी जानना होता है। वह तो एक ऐसी लाली है जिसे देखने वाला, जिसे आत्मसात करने वाला उसी के रंग में रंग जाता है।

लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।

नारी स्वर – कबीर इस लाली में ऐसे रंगे कि उन्हें कोई मोह नहीं बांध सका – न अपने पूत कमाल, पुत्री कमली का और न अपनी पत्नी लोई का। कबीर ने नारी के कामिनी रूप की, मायावी रूप की, सदैव निंदा की, उसकी परछाई पड़ने पर सांप तक अंधा हो जाता है फिर कबीरा उनकी क्या गति जो नित नारी के संग। पर कबीर ने नारी के पतिव्रता रूप का, उस रूप का जो सतगुरू की तरह सतमार्ग पर ले जाता है, सदैव सम्मान ही किया। 'पतिव्रता मैली भली, काली कुचित कुरूप।' कहते हैं कि लोई कबीर की शिष्या बन आजन्म उनके साथ रही।

पुरूष स्वर – कबीर जीवन भर अंधविश्वासों और कर्मकांडों का विरोध शब्दों में ही नहीं, अपने कर्मों द्वारा भी करते रहे। यहां तक कि अपने अंत समय को भी उन्होंने इसी का सूचक बनाया। काशी को मोक्षपुरी कहा जाता है और मोक्ष की कामना में लोग वहां जाकर अपना तन त्याग करते हैं। इसके विपरीत मगहर में शरीर त्याग करने वाला नरकवासी होता है। कबीर इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए अपने अंतकाल में काशी से मगहर चले गए थे।

जस कासी तस मगहर उसर हृदय राम सति होई।

कबीर की मृत्यु संवत 1575 (सन 1518 ई) को मगहर में हुई थी। कहते हैं कि कबीर की मृत्यु के बाद हिंदू और मुसलमान दोनों अपने–अपने तरीके से उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे। इस बात पर दोनों लड़ पड़े। झगड़ा यहां तक बढ़ा कि तलवारें चलने की नौबत आ गई। पर जब कबीर के शरीर से चादर उठाई गई तो वहां केवल फूल थे। ये फूल दोनों ने बांट लिए।

झीनी झीनी बीनी चदरिया।
काहै कै ताना काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया।
आठ कंवल दल चरखा डोलै, पांच तत्त गुन तीनी चदरिया।
सांइ को सियत मास दस लागे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े, ओढ़ के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।

(प्रतिध्वनि) दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया

नारी पुरूष स्वर – और हमने क्या किया उस चादर का कभी सोचा कितनी मैली है हमारी चादर हम तो अपनी मैली चादर में ही सुख की नींद लेकर कितने सुखी है और अज्ञानी कबीर का कर्म देखो जिसने जतन से ओढ़ कर जस की तस धर दी, फिर भी रात भर जाग कर वो रोता है, दुखी है।

सुखिया सब संसार है, खावै औ सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवे।।

(प्रतिध्वनि) दुखिया दास कबीर है . . .दुखिया दास कबीर है . . .दुखिया दास कबीर है . . .

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16 जून 2005

 
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