पुरूष स्वर मेरे पास में! पर मैं
तो तुझे ढूंढ़ने को निरंतर बाहर ही भटक रहा हूं। तू तो मेरा अंतरंग है,
पर मैं तो तुझे बाहरी दुनिया में तलाश रहा हूं। क्या इसलिए वर्षों से
मेरा भटकाव जारी है! आज तक मैं सोचता रहा मैंने तुझे पा लिया, पर
पा कभी नहीं सका। क्या विसंगति है? वर्षों से हम भटके रहे हैं और
भटकाव को उपलब्धि मान रहे हैं।
नारी स्वर हम भटकने के मोह में
बांधकर खोजी न हुए। "खोजी होय तो तुरतै मिलिहां, पल भर की
तलास में।" पर हम उसकी तलाश में होते ही कहां है? हम तो मंदिर,
मस्जिद, गिरजे आदि में अपने भौतिक सुखों की तलाश में रहते हैं।
प्रत्येक ज्ञानी, संत, ऋषिमुनि, मौलवी, पादरी आदि ने भगवान
को सर्वव्यापी माना पर उसे आदमी ने अपने अंदर कम देखा, बाहर खुद ढूंढ़ा
और दूसरों से भी ढूंढवाया।
('मोको कहां ढूंढ़े बंदे' उभरता होता है)
पुरूष स्वर यह निडर स्वर एक ऐसे
संत का है जिसने ईश्वर को मात्र सर्वव्यापी कहा ही नहीं, माना भी।
नारी स्वर जिसने हर सांस में,
हर आंस में बसने वाले ईश्वर को मात्र देखा नहीं, उसका अनुभव भी
किया।
पुरूष स्वर कबीर के सार्थक शब्दों
में आध्यात्म, पाखंडविरोध तथा समाज सुधार की एक त्रिवेणी प्रवाहित
हो रही है। कबीर एक ऐसे सच्चे साधक हैं जो ब्रह्म से लौ लगाने के
साथसाथ इस मानव समाज को सही रास्ते पर ले जाना चाहते हैं। उनका
आध्यात्म समाज सापेक्ष है। वह चाहते हैं कि इस समाज में प्रत्येक प्राणी
एकदूसरे से मिलजुलकर रहे। मनुष्य में परहित का भाव रहे और जाति
धर्म संप्रदाय के आधार पर ऊंचनीच न रहे।
जांतपांत पूछे नहीं कोय, हरि को भजे
सो हरि का होई।
नारी स्वर कबीर का एक मात्र लक्ष्य
समाज में आपसी सद्भाव को फैलाना रहा है। इसके लिए आपसी प्रेम को
महत्व देते हैं।
पोथि पढ़ी पढ़ी जग मुंआ, पंडित भया न
कोय।
ढ़ाइ आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
सच्चा ज्ञानी वही है जो मनुष्यों में
प्रेम भाव विकसित करता है। यदि मानव समाज से घृणा के स्थान पर प्रेम
जन्म ले ले तो समाज का स्वरूप ही बदल जाएगा। कबीर तो प्रेम भाव प्राप्त
करने के लिए अपने सर का मोल चुकाने को तैयार बैठे हैं। कबीर मनुष्य
को अहं त्यागने को संदेश दे रहे हैं। प्रेम का उचित विकास समाज में
तब तक नहीं हो सकता है जब तक आप अपने सिर का अर्थात अहं का बलिदान
नहीं करते हैं।
कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नांहि।
सीस उतारे हाथि करि, सो ऐसे घर मांहि।।
पुरूष स्वर कबीर ने अच्छे समाज के
लिए निर्मल मन की कामना की है। मन का स्वभाव चंचल है। जब मन
निश्छल होता है तो उसमें किसी विषय की उतेजना नहीं रहती है। व्यक्ति
के मन का सुधार होगा तो समाज अपने आप सुधर जाएगा। यह निर्मल
स्वभाव का मन ही तो समाज को सुधार सकता है। गीता में अर्जुन ने
कृष्ण को कहा था, "चंचल आत्मनिर्भर वहि मन कृष्ण।" कबीर ने
समाज में एक पूर्ण मनुष्य की कल्पना की है। पूर्ण मनुष्य वही है जो
आत्मनिर्भर है। मन यदि पवित्र नहीं तो धार्मिक कर्मकांड करने का क्या लाभ!
बिना मन परिवर्तन के मानवीय समाज को कैसे बदला जा सकता है। यही
कारण है कि कबीर ने सभी धर्मों के कर्मकांड का सार्थक एवं रचनात्मक
विरोध किया। कबीर की धर्मनिरपेक्षता में पलायन नहीं हैं अपितु निडर
आलोचना का आक्रमण है। वे पत्थर पूजने वाले पुजारी को चक्की पूजने की
सलाह देकर अपना आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं तो कांकर पत्थर जोड़ कर मस्जिद
बनाने वाले मुल्ला को भी लताड़ सकते हैं।
नारी स्वर 'मैं भी भूखा न रहूं,
साधु न भूखा जाई।"
कहकर कबीर एक ऐसे समाज के निर्माण की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं जिसमें
शोषण, संग्रह और हिंसा के लिए स्थान नहीं है। आज अगर माटी को तुच्छ
मान तू रौंदेगा तो कल यही तुच्छ माटी तुझे रौंद डालेगी। कबीर ने अच्छे
समाज के निर्माण के लिए जहां एक ओर अपनी आवश्यकताएं सीमित करने पर
बल दिया है, वहां दूसरे की सहायता का सद्भाव भी रखा है। कबीर ने
संग्रह के भाव का कभी समर्थन नहीं किया है, 'मांगण को मरण समान'
कहकर कबीर आवश्यकता से अधिक संग्रह का विरोध करते हैं। मनुष्य अधिक
सुख की आशा में ही तो परतंत्र हो जाता है। वह भौतिक वस्तुओं का गुलाम
हो जाता है। अधिक सुख की आशा में वह संग्रह करता है। संग्रह चाहे दुख का
हो या सुख का, बुरा ही है।
दुखिया मूवा दुखा को, सुखिया सुख को
झूरि
सदा आनंद राम के, जिनि सुख दुख गेल्हे दूरि।
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