होश
आया तो मैंने ख़ुद को एक सँकरी अन्धेरी गली में खड़े पाया, जिसके
दूसरे छोर पर एक तेज़ रौशनी चमचमा रही थी, मेरी आँखें चुँधिया
गईं। अपनी नज़र तिरछी किए मैं दाएँ अथवा बाएँ मुड़ जाना चाहती
थी। गति और दिशा बदलने के लिए मैंने स्टीयरिंग व्हील घुमाना
चाहा पर यह क्या? लगा कि मैं हवा में तैर रही थी, मेरा दिल बैठ
गया। यह मैं कहाँ आ गई? मेरी कार कहाँ है? डर और घबराहट के
मारे मेरा हलक़ सूख गया।
‘डरो नहीं दिव्या, सीधी चली आओ।’ जैसे किसी ने कान में कोई
फुसफुसाया। एकाएक दिमाग़ में आया कि कोई मुझे कहीं बरगला तो
नहीं रहा। मुझे पीछे की तरफ लौट जाना चाहिए। फिर ऐसा एहसास हुआ
कि जैसे कोई अपना मुझे ढाढस बंधा रहा हो, दिशा दिखा रहा हो,
‘डरने कोई बात नहीं है, दिव्या, नाक की सीध में बस चली आओ’।
कहीं मुझे कोई बरगला तो नहीं रहा? मेरे पास दो ही तो विकल्प थे
और जैसे मैं जीवन भर फ़ैसले लेती आई थी यानि कि हड़बड़ाहट में,
बिना अधिक समय व्यर्थ किए मैंने तय कर लिया कि मुझे रौशनी की
ओर ही जाना चाहिए, जो होगा देखा जाएगा।
लग रहा था कि जैसे मेरे दिमाग़ में रुई भरी हो, और बदन भी ऐसा
हल्का कि जैसे पंख उग आए हों। ख़ैर, उस तेज़ रौशनी के पार
दिलो-दिमाग़ को सुकून मिला, सारा वातावरण दूधिया रंग में तब्दील
हो गया। ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मैं एक बड़ी यात्रा के बाद
घर लौटी थी। मैंने एक लम्बी चैन की सांस ली ही थी कि देखा एक
ख़ूबसूरत सी आरामकुर्सी पर बैठे हुए महावीर जी मुझे देखकर
मुस्कुरा रहे थे। उनके आस पास और भी कई सज्जन बैठे थे। यह तो
ज़िन्दा हैं! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैं कहीं सपना तो
नहीं देख रही? शायद कार-दुर्घटना में मेरे दिमाग़ पर गहरी चोट
लगी हो!
‘तो तुम आ ही पहुँची।’ आवाज़ जानी पहचानी लगी, कमलेश्वर जी
मुस्कुराते हुए मुझसे ही मुख़ातिब थे। दिल्ली के निगमबोध घाट पर
इनकी अंत्येष्टि के समय तो मैं स्वयं उपस्थित थी!
‘भई ऐसी भी क्या जल्दी थी, दिव्या?’ अरे, यह तो कन्हैयालाल
नन्दन जी की आवाज़ थी, जिनको नेहरु केन्द्र में हाल ही में
श्रद्धांजलि दी गई थी। मुझे विश्वास हो गया कि मेरा दिमाग़
सचमुच खराब हो गया था।
‘आपने बैल्ट लगा रखी होती तो शायद आप बच जातीं।’ अपने चेहरे पर
सदाबहार मुस्कुराहट लिए स्वर्गीय डा लक्ष्मीमल्ल सिंघवी जी
बोले, जो महावीर जी के साथ ही बैठे थे, सबके सब स्वस्थ,
मुस्कुराते हुए और एक दिव्य रौशनी से ओत प्रोत।
‘यह सब कहने की बातें हैं। बैल्ट पहन भी रखी होती तो यह बच
नहीं सकती थी।’ कमलेश्वर जी बोले। यह ठीक था कि क्रैमेटोरियम
के नज़दीक पहुँचते ही मैंने बैल्ट उतार दी थी किंतु यह बात
इन्हें कैसे मालूम हुई? यदि मेरा दिमाग़ दुरुस्त होता तो मुझे
मृत लोग क्यों दिखाई देते?
तो क्या मेरी मृत्यु हो गई? मेरा दिल बैठ गया और टांगे जवाब दे
गईं।
‘आओ बैठो।’ कमलेश्वर जी ने महावीर जी के पास ही रखी हुई एक
अन्य आरामकुर्सी की ओर इशारा किया। मुझे टिक कर बैठने में
परेशानी हो रही थी।
‘दिव्या जी, अपने तन मन को ढीला छोड़ के बैठने का प्रयत्न
कीजिए।’ सिंघवी जी ने सलाह दी किंतु मैं तो एक खिंचे तार सी
भन्ना रही थी। बहुत प्रयत्न के बाद मैं बैठ तो गई किंतु मेरे
‘बम्स’ सीट पर ठीक से टिक नहीं पा रहे थे और न ही मैं अपने
शरीर को देख पा रही थी। सभी लोग एक मनोहारी, और शांतिमय रौशनी
में धुले धुले से लग रहे थे, सजे संवरे, अलौकिक।
जीवन में मुझे पहली बार यह समझ में आया कि ‘हवाइयाँ उड़ना’
सचमुच क्या होता है। मैं हवा में थी या ख़ुद हवा थी, मुझे कुछ
समझ नहीं आ रहा था। क्या मैं सचमुच मर गई हूँ?
‘लीजिए महावीर जी, आपके पार्थिव शरीर को अब गाड़ी से उतारा जा
रहा है।’ डा सिंघवी जी बोले तो सबका ध्यान क्रैमेटोरियम के
द्वार पर पार्क्ड कार में रखी कास्केट पर गया। लोग सकपकाए से
खड़े थे जैसे वे इस घटना के लिए तैय्यार न हों। लंदन की जितनी
भी अंत्येष्टियों में अब तक मैंने भाग लिया था, मृतक के
परिवारजन और मित्र बड़े आत्मविश्वास के साथ उपस्थित रहे थे,
सुव्यवस्थित, संतुलित और सुक्रमित।
एकाएक मुझे मशहूर कवियत्री कैथलीन रेन की अंत्येष्टि की याद हो
आई, जहाँ स्वयं प्रिंस चार्ल्स पधारे थे। प्रसिद्ध ओपरा
गायिका, पैट्रिशिया रोज़ैरियो ने क्या समा बांधा था कि बस आत्मा
तृप्त हो गई थी। जाने माने न्यायाभिकर्ता और संस्कृतविद वसंत
कोठारी की अंत्येष्टि पर तो एक अच्छा ख़ासा रंगारंग कार्यक्रम
पेश किया गया था, जिसमें मंत्रोचारण के अलावा, नृत्य, वाद्य और
वाक संगीत भी सम्मिलित थे। अभी हाल ही में हमारे एक दूर के
रिश्तेदार की अंत्येष्टि पर तो उनके पुत्र और दामाद ने ऐसे
धुआँधार भाषण दिए कि लोग वाह वाह करते हुए घर लौटे।
‘सुना है कि ब्रिटेन में दफनाने के लिए जगह की कमी पड़ गई है और
एक के ऊपर दूसरी लाश दफनाई जा रही है।’ डा सिंघवी जी जैसे
मुझसे पूछ रहे थे हालांकि वह देख कहीं और रहे थे।
‘हाँ, हरित क्रांति वाले आजकल ‘ग्रीन डेथ बरियल्स’ का प्रचार
कर रहे हैं।’ ’भई वाह, ‘हरित अंत्येष्टि’ आधुनिक आविष्कार लगता
है।’ ’क्रायोमेशन अथवा रेसोमेशन नामक तकनीक के द्वारा लाश को
१९६ सेंटिग्रेड पर फ़्रीज़ कर के सुखा दिया जाता है, जिसका पाउडर
बनाकर खाद के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।’
‘मेरी मौत यदि इस समय होती तो मैं इसी तकनीक से दफनाया जाना
पसन्द करता।’
‘मेरा जाना तो बहुत दिनों से तय था, ये अरुणा न जाने क्यों
इतनी संतप्त हैं।’ अस्त-व्यस्त पत्नी को देखकर महावीर जी
परेशान थे।
‘पति की मृत्यु के बाद ही सही तौर पर पत्नी को अहसास होता है
कि उसने क्या खोया।’ सिंघवी जी को शायद कमला जी याद आ गईं, जो
उनके प्रति पूरी तरह से समर्पित थीं और मुझे वे दिन जब ब्रिटेन
में सिंघवी दम्पत्ति ने हिंदी के प्रचार और प्रसार के प्रति
हमें जागरूक किया था। उनके कैंसिंग्टन पैलेस निवास पर कवियों
और लेखकों का दरबार जुटा रहता था और स्नेहमयी कमला जी आतिथ्य
में जुटी रहती थीं।
‘मेरी मौत पर तो जी मेरी बीवी जीते जी जन्नत पहुँच गई।’ किसी
ने हल्के-फुलके अंदाज़ में कहा, मैंने मुड़कर देखना चाहा कि वह
कौन सज्जन थे, पर वह मुझे दिखाई नहीं दिए। ‘नेहरु सेंटर के
अगले महीने का कार्यक्रम छपने को देना है, इस महीने की रिपोर्ट
तक नहीं बना पाई हूँ अब तक मैं। अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी शिक्षा
सम्मेलन होने वाला है...’ एकाएक मैं घबरा गई कि कैसे होगा यह
सब!
‘भई दिव्या, वहाँ तुम्हारी श्रद्धांजलि की तैय्यारियाँ शुरु हो
चुकी होंगी और तुम्हें अब भी इस महीने के कार्यक्रम की पड़ी
है।’ मनोहर श्याम जोशी की आवाज़ तो मैं कभी भूल ही नहीं सकती।
लन्दन में उन्होंने मेरी दो कहानियाँ बड़े मनोयोग से सुनीं थीं
और जब उन्होंने ‘ठुल्ला किलब’ को एक ऐतिहासिक कहानी का दर्जा
दिया तो मेरे लिए आसमान से नीचे उतरना मुश्किल हो गया था।
‘आप ठीक कह रहे हैं। आपने मुझसे कहा था कि मैं एक अच्छी
कहानीकार बन सकती हूँ...थी...’
‘मैंने भी ऐग्ज़ैक्टलि यही लिखा था तुम्हारे ‘आक्रोश’ के
प्राक्कथन में, तुम लेखन को थोड़ा सा भी सीरियसलि लेतीं तो तुम
अच्छा ख़ासा नाम कमा सकती थीं।’ मेरी बात काटते हुए कमलेश्वर जी
बोले।
‘तन मन धन से मैं नेहरु सैंटर के प्रति समर्पित रही, यहाँ तक
कि मेरा परिवार और लेखन भी दूसरे स्थान पर रहा। मुझे अफसोस
सिर्फ़ इस बात का है कि इसके बावजूद कुछ लोगों ने भारतीय
उच्चायुक्त को मेरे ख़िलाफ शिकायतनामें भेजे कि सरकार की
मुलाज़मत में रहते हुए मुझे हिन्दी के प्रचार और प्रसार के लिए
काम नहीं करना चाहिए।’
‘ईर्ष्यालु लोगों की बकवास पर तुम्हें ध्यान नहीं देना चाहिए
था। कीचड़ में सने लोग दूसरों को भी कीचड़ में घसीट लेना चाहते
हैं।’ मुझे महसूस हुआ कि जैसे सिंघवी जी ने अपना हाथ मेरे कंधे
पर रख दिया हो।
‘तमाशा देखने वालों से चिंगारी लगाकर छिप जाने वाले अधिक
खतरनाक होते हैं, दिव्या।’ कमलेश्वर जी बोले। उनकी बात में दम
तो था।
‘रैट्स, ब्लडी रैट्स, ऐसे लोग न ख़ुद चैन से रहते हैं न दूसरों
को रहने देते हैं।’
‘तुम्हारी जगह कोई और होता न, दिव्या, तो अब तक कहाँ से कहाँ
पहुँच गया होता।’ नन्दन जी ने कहा। मुझे सचमुच बहुत अफसोस हो
रहा था कि क्रोध और पछतावे में मैंने न जाने कितना समय व्यर्थ
गंवाया।
‘अरे देखो तो उस एक दमदार महिला को। अरे वही, जो अपने पति को
कास्केट की ओर धकेल रही है।’ कमलेश्वर जी चहके तो मैंने चैन की
सांस ली कि बात का रुख पलट गया था। शायद यही उनकी मंशा थी।
‘यह टिम्मी जादव है। उसका पति बड़ा पत्रकार बना घूमता है।
महा-बोरिंग इंसान हैं ये दोनों।’ यह वही आवाज़ थी, जिसका धारक
अदृशय था।
‘देखिए वह मेरा बेटा राजीव है और वो रही मेरी बिटिया ममता और
उसका पति एलन।’ महावीर जी अपने परिवार को देखकर प्रसन्न थे।
’सुनो जी, अपनी कमर का तो ध्यान करो। यंग लड़कों को आगे और पीछे
लगाओ, तुम तो बस कास्केट को बीच से छू भर लेना।’ बाकी सबकी
नज़रें टिम्मी पर ही टिकी थी जो अपने पति के कान में खुसर पुसर
किए जा रही थी, यह बात और थी कि सब सुन रहे थे।
‘अंकल जी आप रहने ही दीजिए, हम लोग हैं न।’ एक युवक बोला। ’अरे
कैसे रहने दें? मज़ाक थोड़े ही है, हमारा और महावीर जी का
सम्बन्ध तीस बरस से भी पुराना था।’ चारों ओर लोगों को सुनाते
हुए टिम्मी बोली।
‘भारतीयों के लिए तो अंत्येष्टि भी एक मनोरंजन का साधन है।’
जोशी जी बोले।
‘जीवन एक रंगशाला ही तो है, जीवन और मृत्यु नाटक के पहले और
आख़िरी दृश्य हैं।’ कम्लेश्वर जी बोले।
‘वाह क्या बात कही है तुमने कमलेश्वर।’ एक महिला की आवाज़ सुनाई
दी।
‘अरे प्रभा आओ बैठो। देखो, आज स्वर्ग में एक नई एँट्री हुई
है...’
‘जानती हूँ, लन्दन की दिव्या माथुर।’
‘अरे आप प्रभा खेतान जी हैं। आपसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा
लगा...लगता...’ मैंने चारों ओर घूमकर देखना चाहा पर मुझे वह
दिखाई नहीं दीं।
‘कोई बात नहीं दिव्या। शरीर और शक्ल में क्या रखा है। अच्छा
लगा तुमसे मिलकर, नहीं तो यहाँ अधिकतर बुड्ढे खूसट ही आते
हैं।’ प्रभा जी बोलीं तो सब हंसने लगे। मैं आँखें फाड़े उस आवाज़
की धारिका को ढूँढ रही थी।
‘अभी तो तुम केवल उन्हीं लोगों को देख सकोगी, जिनसे तुम मिल
चुकी हो।’ नन्दन जी ने मेरी दुविधा का निदान किया।
‘यदि यह बात है तो मैं महावीर जी को कैसे देख रही हूँ? मैं तो
इनसे पहले कभी नहीं मिली।’ महावीर जी बड़े इत्मिनान से बैठे थे।
लगता नहीं था कि वह स्वर्ग में नए नए पधारे थे।
‘आपको याद नहीं है दिव्या जी, नेहरु सैंटर के एक कार्यक्रम में
हमारी भेंट हो चुकी है।’ महावीर जी का चित्र मैंने उनकी
वेबसाईट पर कई बार देखा था पर मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं
उनसे मिल चुकी थी।
‘आप हर हफ़्ते सैंकड़ों लोगों से मिलती हैं...थीं, आपको शायद याद
नहीं आ रहा।’
‘हम तो भई महावीर जी से पहली बार हैं पर लगता है कि इन्हें हम
न जाने कब से जानते हैं।’ कमलेश्वर जी ने कहा।
‘महावीर जी की वेबसाइट और ब्लौग के ज़रिए लोग इन्हें देश विदेश
में जानते हैं।’ मैने बताया।
‘वेबसाईट तो दूर की बात है, मुझे ई-मेल करना तक नहीं आया और ये
ब्लौग-व्लौग क्या बला है भई?’ सिंघवी जी ने पूछा।
‘मैं तो शुक्र मनाता हूँ कि ब्लौग के चक्कर में आने से पहले ही
मेरी मौत हो गई, कौन इस गड़बड़झाले में पड़ता।’ कमलेश्वर जी बोले।
‘यह ऐसा भी कोई मुश्किल काम नहीं है...’ महावीर जी ने
विनयपूर्वक कहा।
‘इस नाट्यशाला में श्रोतागण बहुत कम हैं, शायद ठंड की वजह से।’
इसी बीच सिंघवी जी ने क्रैमेटोरियम में बैठे मातमियों का
निरीक्षण कर डाला।
‘सिंघवी जी, महावीर जी के फ़ैन्स की श्रद्धाजलियाँ देखनी हों तो
आप इनकी वेबसाइट पर जाईए।’ मैंने कहा, ‘पंकज सुबीर, प्राण
शर्मा, दीपक मशाल, तेजेन्द शर्मा और न जाने कितने पाठकों और
लेखकों ने इन्हें स्नेहभरी श्रद्धांजलियाँ अर्पित की हैं। पंकज
सुबीर की ग़ज़ल तो मुझे बहुत ही पसन्द आई।’
‘भई हम भी तो कुछ सुने, दिव्याजी।’ सिंघवी जी सीधे होकर बैठ
गए। अंत्येष्टि के अवसर पर मुझे कुछ बोलने के लिए कहा गया था
इसलिए मैं कुछ श्रद्धाजलियाँ घर से प्रिंट करके लाई थी जो मेरे
पर्स में थीं। चश्मा ढूँढने के लिए मेरा हाथ कोट की जेब की ओर
गया तो जेब क्या मेरा कोट ही नदारद था।
‘अब तो दिव्या बस तुम ही तुम हो यहाँ। वैसे भी यहाँ
चश्में-वश्में की ज़रूरत नहीं है।’ कमलेश्वर जी ने मुझे कुछ
टटोलते हुए देखा तो बोले।
’ओह, मैं शोर्ट-मेमोरि की मरीज़ हूँ, मुझे कुछ याद नहीं रहता।
पंकज सुबीर की कुछ पंक्तियाँ मुझे याद हैं, सुनिए :
दरख़्हत कल वो हवाओं में गिर गया आखि़र, खड़ा हुआ था घनी छांव
जो लुटाता हुआ
पकड़ के हाथ वो चलना उसे सिखाता था, कोई जो राह में मिलता था
डगमगाता हुआ।
‘वाह वाह, भई बहुत अच्छा लिखा है।’ कई आवाज़ें एक साथ गूंजी।
‘...यहाँ इंटरनैट की सुविधा होती तो मैं पूरा पढ़कर सुना सकती
थी।’
‘स्वर्ग में इंटरनैट नहीं है।’
‘वैसे भी धरती पर किसे फ़ुर्सत है कि मृतकों से चैट करे?’
‘बहुत से लोग होंगे जो हम मृतकों से कुछ सीख लेना चाहें। हम
प्रयत्न तो कर ही सकते हैं।’ महावीर जी बोले।
’हाँ, जैसे कि आपके सह-सम्पादक, प्राण शर्मा जी। उन्हें आपकी
वेबसाईट को अपडेट करना बहुत मुश्किल लग रहा था।’ मैंने कहा।
‘यदि यहाँ इंटरनैट की सुविधा होती तो मैं अपनी साईट यहीं से
अपडेट कर सकता था।’ उत्साहित होते हुए महावीर जी बोले।
‘महावीर जी, यदि हमें यह सुविधा मिल जाए तो आपका ई-मेल आई-डी
क्या होगा?’ मैंने चुहुलतापूर्वक पूछा।
‘आप ही बताइए।’
‘स्वर्ग@हिन्दी.कौम कैसा रहेगा?’
‘हिन्दी@स्वर्ग.इन भी हो सकता है।’ जोशी जी ने कहा।
‘बेकार की बातों में क्यों समय खराब कर रहे हैं आप लोग। आप सब
जानते हैं कि यहाँ यह सुविधा नहीं है।’
‘पता नहीं, मेरे बेटे-बहू को किसी ने खबर दी भी है कि नहीं।’
एकाएक मुझे याद आया कि बेटा-बहू मेरे लिए परेशान हो रहे होंगे।
वसुधा के रिश्तेदार दोपहर के भोजन पर आमंत्रित थे, वे सब मेरा
इंतज़ार कर रहे होंगे।’ मैं बहुत उतावली हो गई।
‘पृथ्वी के अपने जीवन को आप जितना जल्दी भूल जाएँगी आपके उतना
ही अच्छा होगा।’ सिंघवी जी ने मुझे फिर सलाह दी।
‘अभी तक तो मैं जनवरी और फरवरी का कार्यक्रम भी नहीं बना पाई
और किसी को यह भी मालूम नहीं कि...’
‘तुम क्या सोचती हो कि तुम नहीं होगी तो नेहरु सैंटर बन्द हो
जाएगा?’
‘नहीं तो पर ... प्रवासी टुडे के लिए आज सत्येन्द्र श्रीवास्तव
अपनी मासिक किश्त लाए होंगे, जिसे स्कैन करके आज ही रात को
मुझे दिल्ली भेजना है...था।’
‘या ख़ुदा, इन मोहतर्मा का रोना-गाना अब कई दिन मुसलसल चलेगा।’
अदृशय आवाज़ फिर आई। इतने बड़े बड़े लेखकों के बीच में बैठकर मैं
नेहरु केन्द्र और अपनी वसीयत के बारे में सोच रही थी। मुझे
अपनी टैं-टैं अब बन्द कर देनी चाहिए किंतु न चाहते हुए भी मेरा
ध्यान बार बार अपने घर अथवा नेहरु केन्द्र की ओर लौट रहा था।
‘अमां यार, आप जो भी हैं ख़ामोश हो जाइए। यह अभी अभी तशरीफ लाई
हैं, इनका कुछ तो लिहाज़ कीजिए।’ कमलेश्वर जी ने कहा।
शर्मिन्दगी की वजह से मैंने नज़र झुकाई तो मेरा ध्यान
क्रैमेटोरियम के बाहर खड़ी अपनी तुड़ी मुड़ी कार पर गया। आस पास
बहुत से लोग जमा थे। ख़ून से लथपथ मेरे मुड़े-तुड़े शरीर की जांच
कर रहे एक पैरा-मैडिक ने अपना सिर दाएँ से बाएँ हिलाते हुए पास
में खड़े एक पुलिसकर्मी को बताया कि अब कुछ नहीं किया जा सकता।
स्ट्रैचर पर डालकर मेरे शरीर को एम्बुलैंस में चढ़ा दिया गया,
पुलिस वाले लोगों को हटाने में लग गए।
‘तुम अभी तक अपने को निहार रही हो? उधर देखो पंडित जी शोकातुर
भीड़ को बोर करने में लगे हैं, संस्कृत और हिन्दी में समझाने के
बाद अब वह अंग्रेज़ी की भी टांग खींच रहे हैं।’ मुझे सकपकाया
हुआ देख कमलेश्वर जी ने मेरा ध्यान बँटाने की कोशिश की।
‘पंडित जी को छोड़ो, दूसरी पंक्ति में बैठे उन महाशय को देखो जो
ख़ुर्राटे भर रहे हैं।’ नन्दन जी ने हम सबका ध्यान एक मोटे
व्यक्ति की ओर दिलाया, जिसके नथुनों और और कानों के बाल दड़बे
से छुटी भेड़ों की तरह निकल भागने को आतुर लग रहे थे।
‘इनकी शक्ल से तो लग रहा है कि जनाब का जनाज़ा बस उठने ही वाला
है।’ जोशी जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘भई, क्रैमेटोरियम का माहौल ही कुछ ऐसा होता है कि किसी को भी
नींद आ जाए, ठंडी दीवारों से घिरे ठंड में अकड़े हुए लोग।’
सिंघवी जी बोले।
‘पता चले कि मियाँ उठावनी में आए थे और चल बसे।’ कमलेश्वर जी
को इतना ज़िन्दा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मृत्यु के बाद
शायद कोई संकोच न रहता हो। मैं भी अब जो चाहे कह सकती थी जो
मैं पृथ्वी पर न कह पाई।
‘इन लोगों को तो पता भी नहीं होगा कि नेहरु सैंटर की ओर से मैं
शोक प्रकट करने आई थी। दीपक मशाल से मैंने वादा किया था कि
शोकसभा में मैं उसकी और पंकज सुबीर की श्रद्धांजलियाँ प्रस्तुत
करूंगी।’ ‘च च च, यह तो बुरा हुआ, ज़माना एक प्रवासी लेखिका की
श्रद्धांजलि से महरूम रह गया।’ यह वही अदृश्य आवाज़ थी। कहीं यह
मेरी आत्मा ही तो नहीं जो पृथ्वी पर भी हमेशा चैं-चैं करती
रहती थी?
‘प्रवासी हिन्दी लेखकों को आजकल इतनी घास डाली जा रही है कि
भारत में लिख रहे लेखकों के चरने को कुछ बचा ही नहीं।’ प्रभा
जी बोलीं।
‘ठीक कह रही हैं आप, मैं भी कई प्रवासी लेखकों को जानता हूँ जो
माथे पर टीके लगवा कर स्टेज पर ज़बर्दस्ती चढ़ जाते हैं।’
कमलेश्वर जी ने कहा।
‘विदेश से निमंत्रण पाने के लालच में भारत के पत्रकार कचरा
लेखकों के नाम उछालेंगे तो यही होगा।’ नन्दन जी ने कहा।
‘ग़रीब पत्रकार को यदि लन्दन या अमेरिका बुलाए जाने का लालच
दिया जाए तो वह कैसे मना करे?’ जोशी जी ने पूछा।
‘भई, प्रवासियों का यह डर कि उनका परिवार, उनके मित्र अथवा
उनका देश कहीं उन्हें भुला न दे, उन्हें देश के चक्कर लगवाता
रहता है और वे जब तब पहुँच जाते हैं अपने रिश्तेदारों और
दोस्तों की छाती पर मूँग दलने।’
‘क्या मतलब?’
‘आप जानतीं हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ। डौलर्स और पाउंड्स
दिखा दिखा कर प्रवासियों के सब काम हो जाते हैं।’
‘तो आप यह मानते हैं कि आपके पत्रकारों को लालच देकर कुछ भी
लिखवाया जा सकता है।’ मैंने पूछा।
‘मुझे तो यही लगता है, क्यों नन्दन?’
‘इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि प्रवासी ढँग का कुछ लिख
ही नहीं रहे, सिर्फ़ पत्रकारों को लालच देकर अपना नाम उछलवा रहे
हैं।’
’हमने ऐसा नहीं कहा, दिव्या। कुछ हैं जो ऐसा करते रहे हैं, कुछ
ऐसे भी हैं जो कुछ भी घसीट कर लेखक बने फिर रहे हैं। कुछ
प्रवासी तथाकथित कवि कविता के नाम पर घटिया संग्रह छपवा रहे
हैं और देश-विदेश के लोगों को बोर करते फिर रहे हैं...’
‘और आप जैसे विशिष्ट लेखक ऐसे ही कई संग्रहों के प्राक्कथन भी
लिख कर उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं...’ शायद मुझे ऐसा नहीं कहना
चाहिए था।
‘तुम ठीक कह रही हो, ताली एक हाथ से नहीं बजती। बहुत से
प्रवासी कहानीकार सचमुच बहुत अच्छा लिख रहे हैं।’
‘तो फिर उन सबका ज़िक्र पत्र-पत्रिकाएँ क्यों नहीं करती? आप
जैसे लेखकों के पास समय ही नहीं हम लेखकों को ठीक से
पढ़ने-गुनने का। जाने माने लेखक भी एक-आध कहानी और कविता पढ़कर
अपने को प्रवासी-एक्स्पर्ट कहलवाने लगते हैं।’ लगभग सभी
साहित्यकार मुझे घूर कर देखने लगे। मैंने सोचा कि एक नई जगह पर
मुझे किसी से पंगा नहीं लेना चाहिए।
‘हम सभी को एक ही फीते से नहीं नाप सकते, कमलेश्वर।’ मैंने
सोचा कि चलो मेरी बात का कुछ तो असर हुआ।
‘भई मुझे तो लगता है कि पुरुष प्रधान पृथ्वी पार करके हम
पुरुष-प्रधान स्वर्ग में आ गए। सोचा था कि स्वर्ग हमें बराबारी
का दर्जा मिलेगा पर ...’ बहुत देर से चुप बैठी प्रभा जी बोलीं।
‘आप ठीक कह रही हैं प्रभाजी। धरती पर अच्छी से अच्छी महिला
लेखक भी पुरुष लेखक से टक्कर नहीं ले सकती।’
‘ठीक कह रही हो दिव्या, तरह तरह के उद्यमों से पुरुष उसे दोयम
दर्जे पर ही रखते हैं।’ सब चुप हो गए।
‘सच बात तो यह है, प्रभा कि ‘वन ट्रैक माइंड’ होने की वजह से
मर्द लेखन के प्रति एकनिष्ठ रह पाते हैं। मोहब्बत होगी तो लेखन
के नाम पर, घर और बच्चों को इग्नोर करेंगे तो लेखन के नाम पर।
औरत का दिलो-दिमाग़ हज़ार जगह पर लगा रहता है, मैहरी के बर्तन
मांजने से लेकर धोबी के ठीक से प्रैस न किए गए कपड़ों तक, सब्ज़ी
खरीदने से लेकर भोजन तक, फिर पति क्या कहेगा, ससुराल और
मुहल्ले वाले क्या कहेंगे, बच्चे कहीं गुमराह न हो जाएँ आदि
आदि। लेखन के प्रति महिलाएँ पुरुष की तरह एकनिष्ठ नहीं रह
पातीं।’ कमलेश्वर जी ने कहा।
‘आप ठीक कह रहे हैं कमलेश्वर जी, मैं अपनी आत्मकथा इसीलिए नहीं
लिख पाई कि मेरे दुश्मनों की मृत्यु हो जाए तो मैं लिखूँ...’ न
जाने किस बात पर प्रभा जी खिन्न हो उठीं और उठकर चल दीं। मन
हुआ कि मैं उनके पीछे जाऊँ पर कहाँ और कैसे?
‘वो तो भई बड़ी हस्ती हैं, तुम्हारे अच्छे भाग्य हैं कि आते ही
दर्शन हो गए।’
‘ख़ैर, दिव्या तुम सुनाओ, आजकल क्या लिख रही थीं? सुना है कि
यमुना नगर में तुम्हारी नई कहानी, ‘२०५०’ का मंचन होने जा रहा
है।’ नन्दन जी ने पूछ
‘अरे, आपको किसने बताया?’ ‘राजेन्द्र यादव ने।’ ‘अरे, वह तो
अभी ज़िन्दा हैं।’
‘भगवान उनकी उम्र दराज़ करे। उनसे हमारी आध्यात्मिक स्तर पर, वो
क्या कहते हैं, ‘सर्फ़िंग’ होती रहती है।’ ‘क्या यह संभव है,
नन्दन जी?’ ‘क्यों नहीं।’
‘मुझे भी बताइए न प्लीज़।’ ‘नए पधारे मृतकों की बस यही एक
समस्या है, हर बात फटाफट जान लेना चाहते हैं। अभी यहाँ पहुँचे
तुम्हें एक घंटा भी नहीं हुआ है और तुम ‘आध्यात्मिक-सर्फ़िंग’
की बात कर रही हो?’
‘देर हो जाने पर तो कोई फ़ायदा नहीं है न।’ ‘पहले तो तुम्हें
अपने दिमाग़ी झंझटों से मुक्त होना होगा।’ ‘लीजिए हो गई।’ ‘तो
बोलो किस से बात करना चाहती हो?’ ‘बेटी से।’ ‘लो पहुँच गई न
वापिस पृथ्वी पर।’ ‘मुझे तो लगता है, नन्दन, कि तुम्हारे इसी
‘आध्यात्मिक स्तर’ की वजह से ही दिव्या का ध्यान बँटा और
दुर्घटना हो गई।’ कमलेश्वर जी बोले।
‘अरे तो क्या आपने देखी थी वह दुर्घटना? क्या आप जानते थे कि
मैं ...’
‘अरे नहीं भई, हमें मौतें देखने का कोई शौक नहीं है पर हमें जब
पता लगा कि किसी हिंदी सेवी की मृत्यु हो गई है और वह भी लन्दन
में तो हम सब इकट्ठे हो गए। काली लिमोसीन अभी बाहर रुकी ही थी
कि तुम दिखीं।’
‘ओह, तो आप लोगों ने मेरा ध्यान बँटाया था, मैं भी सोच रही थी
कि इतनी बड़ी वैन मुझे कैसे दिखाई नहीं दी।’
‘नहीं दिव्या, तुम्हारा समय आ गया था। हमारी सरफ़िंग से
तुम्हारा क्या सम्बंध हो सकता है?’
‘ख़ैर, जो कुछ होना था हो गया पर अब कम से कम मुझे आप
‘आध्यात्मिक-सर्फ़िंग’ के बारे में तो बताइए। बिना कहे सुने आप
कहीं चल दें और मैं टापती रह जाऊँ।’
‘अरे नहीं, विश्वकर्मा एक बार प्रतीक्षा सूची पर डाल दें तो
फिर लोग सालों पड़े रहते हैं यहाँ।’
‘ओह! हैरानी तो मुझे इस बात की है कि मैंने कोई ऐसे अच्छे कर्म
भी नहीं किए कि मुझे स्वर्ग में भेजा जाता। यह स्वर्ग ही है
न?’
‘हिन्दी लेखक पन्ने भरने के अलावा ऐसा कुछ कर भी क्या सकता है
कि उसे नर्क में झोंक दिया जाए?’ ‘मैंने तो लिखने के अलावा भी
बहुत कुछ किया है...था तो...’
‘नर्क के लायक आपने ऐसा कुछ नहीं किया। राजनीतिज्ञ, सरकारी
अधिकारी और हत्यारे ही इधर उधर भटकते हैं और पहुँचते हैं सीधे
नर्क। हम तो भैय्या नाक की सीध में सीधे चले आए, दाएँ बाएँ
भटके नहीं और मुझे विश्वास है कि जब भी हमारा नम्बर आएगा,
विश्वकर्मा हमें स्वर्ग में ही भेजेंगे।’ कमलेश्वर जी ने कहा।
‘दाएँ बाएँ क्या है?’
‘बाएँ नरक है, दाएँ स्वर्ग और बीच में हमारी यह ‘नो मैन लैंड’
यानि कि दोनो के मध्य, जो भगवान से दो चार होने के इंतज़ार में
पड़े हैं।’ ‘तो क्या भगवान हैं?’ ‘अब तक तो दर्शन हुए नहीं।’
‘तो यहाँ का प्रशासन कैसे चलता है?’
‘कोई तो होगा ही कि बिना हाथ-पाँव हिलाए सब हाज़िर हो जाता है।’
‘कमलेश्वर जी, कभी पीने-पिलाने का मन नहीं होता?’
‘क्यों नहीं। स्वर्ग में रहने का फिर फायदा ही क्या हुआ?
अंतर्मन में झाँको और जो चाहिए मांग लो।’
‘यानि कि खाना पीना सब अलौकिक है?’ ’जी हाँ, खाना, पीना,
सेक्स...ज़रा आँख झुकाई नहीं कि सब हासिल।’ फिर वही अद्र्श्य
आवाज़, कौन हैं यह साहब?
‘प्रभा जी और मेरे सिवा यहाँ कोई और महिला दिखाई नहीं दे रही।’
मैंने बात बदलने की ख़ातिर पूछा।
फिर तो हर तरफ से कटाक्ष और फब्तियाँ सुनाई देने लगीं। यकायक
सबका मूड बदल गया था। अपने सिरों को सीने पर लटकाए सब के सब न
जाने क्या क्या मज़े ले रहे थे।
मैंने भी अपने अंतरमन में झाँका और ठंडे अनन्नास के जूस में
मैलिबू पीने की इच्छा ज़ाहिर की। ‘हम सभी को स्वर्ग की प्राप्ति
हो।’ यकायक मेरा सिर सीने पर लटक आया और लगा कि जैसे मैंने
सचमुच अमृत चख लिया हो। |