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पाँच बजे भी धूप इस कदर तेज थी कि लगता था जेठ की दोपहर हो, घर पश्चिम की ओर था तो सूरज सामने से आँखों में चुभ रहा था, रास्ते के इस किनारे छायादार पेड़ नहीं थे और बीच का चौड़ा नाला सड़क पार करने की अनुमति भी नहीं देता था। सोचा वापस मुड़े पर अंदर के जंजाल से मुक्ति का प्रलोभन धूप से होने वाले कष्ट से कहीं अधिक था, एक बार चल पड़ी तो चल पड़ी, कदम लौटाने वालों में वैसे भी वह नहीं थी। चलते-चलते, न जाने क्यूँ, शायद छाया के मोह में मुड़ गयी और कब्रिस्तान के बगल वाले रास्ते पर चल पड़ी।

मुख्य सड़क से कटती उस गली को अक्सर देखा था, जानती थी वह घर के पास ही निकलती है, पर मुड़ी उस पर पहली बार ही थी। ऐसा लगा मानो कोई खींचे ले जा रहा हो, गेट हल्का सा खुला देख सोचा आज अंदर भी चक्कर लगा लिया जाए लेकिन उस में निचली ओर सिकड़ी से एक ताला बंधा था। उस शांत निर्जन स्थान को देख वहाँ रुकने का मन हो आया और गेट के बाहर ही पड़े बेंचनुमा पत्थर पर टिक गयी, विचारों में डूबती-उतरती...

देखो तो कैसी शांति व्याप्त है! यहाँ आते ही एक डीलर ने समीप ही एक घर दिखाया था जिसकी बाल्कनी से पूरा कब्रिस्तान दिखता था, सब ने मना कर दिया, सुबह उठते ही यह नज़ारा देखोगी! और न चाहते हुए भी वह घर छोड़ दिया गया । आज अनायास ही मन में प्रश्न उठ आया – भला इन सुप्त आत्माओं से काहे का डर? डरना तो जीवात्माओं से चाहिए, ये बेचारे तो शांत सोये पड़े हैं। हर छल कपट से दूर, रागद्वेष से परे! जीवन की यही परिणति है तो क्यूँ इतनी आपाधापी है, क्यूँ इंसान जीवन-मूल्यों के ह्रास की ओर अग्रसर है, विश्व के लगभग हर कोने में दंगे भड़क रहे हैं, टेलीविज़न पर समाचार चैनल लगाने की इच्छा ही नहीं होती, सुखद समाचारों की कमी होती जा रही है। जिसे देखो दूसरे को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ना चाहता है।

इन्हीं सब विचारों में खोयी थी... कि नजर पड़ी एक दुबली पतली लड़की पर जो शायद पहले से वहाँ थी और एक कब्र के आसपास की ज़मीन साफ कर रही थी; छोटी सी, अन्य कब्रों की अपेक्षा बहुत साधारण किन्तु उसके चारों ओर बहुत करीने से रंग बिरंगे फूलों की क्यारियाँ सजाई गईं थीं और वह क्यारियों में गिरी पत्तियों को एक एक कर चुन रही थी, शांत, सौम्य अपने में खोई हुई, मानो कोई साधना कर रही हो, चेहरा बहुत स्पष्ट नहीं दिख रहा था पर एक तरल उदासी पूरे शरीर को लपेटे हुए थी। गेट के ताले को देखा वह अब भी यूँ ही लटका हुआ था। फिर यह अंदर कैसे पहुँची? शायद कोई दूसरा द्वार होगा। कब्र कुछ पुरानी ही दिख रही थी और उस नवयौवना का इस समय वहाँ होना किसी अचंभे से कम नहीं था, अमूमन लोग रविवार को वहाँ मोमबत्ती जलाने या फूल चढ़ने आ जाया करते हैं, या फिर बरसी पर........ रहस्यमयी सी उस युवती को कुछ समय तक देखती रही दोनों अपने से अधिक शायद दूसरे में तल्लीन!

अचानक घड़ी पर नजर पड़ी और वह झटके से उठकर चलने लगी, सुजीत के उठने से पहले पहुँच जाये तो अच्छा है। आज तो फोन भी नहीं था साथ में, बच्चे भी इंतजार कर रहे होंगे।

घर पहुँच कर दैनंदिन कार्यों में लग गयी पर मस्तिष्क पर उस युवती की तरल उदासी छाई रही। देर रात तक सोचती रही, शायद उसका कोई परिजन वहाँ सोया होगा। कितनी अजीब बात है कि कितनी बार इंसान जीवन भर किसी के पास रहते हुए उससे दूर रहता है और एक रोज़ जब वह दूर हो जाता है तो उसकी कमी इस तरह खलती है कि सब अर्थहीन लगता है। अगले कुछ दिन वह उसके मस्तिष्क में बनी रही, एक दिन तो सुजीत ने मज़ाक में कह दिया "बच्चों लगता है उस दिन माँ कब्रिस्तान से किसी को साथ ले आई है" पर उसकी मुख मुद्रा देख आगे कुछ न कहा। लेकिन सच्चाई यही थी की वह युवती एक रहस्य की तरह उसके मन पर छाई हुई थी। न जाने क्यूँ चाह कर भी वह उसे भूल नहीं पा रही थी। परिवार, प्रेम, बंधन सभी तो हैं इस देश में फिर भी सब बड़ा असंपृक्त हैं, मानों जीवन जी कर अपना कर्तव्य निर्वहन कर रहे हों, अपने और मित्रों के प्रति कुछ ऊष्मा दिखाई भी पड़े; परिवार नाम की व्यवस्था से लोग कम खुश दिखते हैं।

आखिर अगले सप्ताह में फिर अवसर मिल गया, सुजीत को दफ्तर से देर से आना था और वह पाँच बजते ही चल पड़ी उसी राह पर, सोच रही थी जाने वह वहाँ होगी या न होगी? लेकिन उसने उसे जिस मुद्रा में छोड़ा था ठीक वैसे ही पाया, मानो वह उधर से हटी ही न हो....मानो बीच के दिन रहे ही न हों; एक एक पत्ती चुन कर एक छोटे से थैले में एकत्र करते। सौम्या की रीढ़ में एक सिहरन दौड़ गयी, नहीं वह कोई प्रेत नहीं हाड़-माँस की युवती थी। उसने कब्र के इर्द गिर्द पड़े पत्ते और फूल चुनने के बाद एक कपड़े से पत्थर पोंछा और अपने पर्स से मोमबत्ती निकाल कर जलायी; कुछ देर आँख मूँद प्रणाम किया और चल दी।

फिर यह रोज़ का सिलसिला सा बन गया, पाँच बजते ही सौम्या के पाँव अपने आप उस स्थान की ओर बढ़ जाते, और वह थोड़ी दूर से ही उसे देख कर आगे बढ़ जाती थी। एक रोज़ विचारों में जरा सा खो गयी थी कि पीछे से आवाज़ आई – "नमस्ते, मैं ग्रेस हूँ, आप कई रोज़ से इधर आ रहीं हैं, कुछ जानना चाहती है शायद?"
सौम्या सकपका गयी, जैसे चोरी पकड़ी गयी हो - : " नहीं बस तुम्हारी तन्मयता देखकर अच्छा लगता है। शायद वहाँ तुम्हारे परिवार का कोई...."
"नहीं वह मेरे कुछ भी नहीं, कोई रिश्ता नाता नहीं, पर... एक उधार बाकी है।"
उधार!!!

सुंदर गौरवर्णा की आँखों से दो मोटे मोटे आँसू ढुलक गए। " जी एक उधार! खुशी का, उस खुशी का जो मेरी माँ को कभी नहीं मिली थी लेकिन इस व्यक्ति ने मेरी माँ के अंतिम दिनों में उसे वह सारा दुलार दिया जिसके लिए वह जीवन भर तरसती रही थी... और तभी से वह मेरे लिए देव समान हो गए। " वह बोलती जा रही थी, जैसे बरसों पुरानी पहचान हो ..."हम दो बहनें थी, मैं छोटी हूँ और लगभग 6 बरस की रही होऊँगी.... बहुत कटु यादें हैं, एक शख्स – जो हमारा पिता कहा जाता था,…… अब सोचती हूँ तो लगता है किसी भी रूप से इस लायक न था, बस नानी की ज़िद थी माँ को हिन्दुस्तानी परिवार में ही ब्याहने की, उनके गाँव का था, तो माँ को ब्याह दिया उसके साथ। हमारा जन्म उसके लिए महज एक हादसा था, हर दिन एक नई कहानी तो होती थी लेकिन एक कहानी जो सदा हरी थी वह थी नाना से पैसों की मांग!!! आखिर एक दिन नाना के सब्र का बाँध टूट गया और वह हाथ पकड़ कर हम तीनों को अपने घर ले आए । पिता नाम के उस शख्स को तब तक हमारी याद नहीं आई जब तक वह अशक्त हो अस्पताल में भर्ती हुआ।
कहने में अच्छा तो नहीं लगता लेकिन शायद यह उसके कर्मों की गति थी। मुझे उस से बिलकुल संवेदना नहीं थी। उसकी मृत्यु पर भी कहीं कुछ नहीं छू गया, साक्षी भाव से उसकी क्रिया में शामिल अवश्य हुई थी पर बस उतना ही।
उसके चेहरे के दर्द को सौम्या देख रही थी....

"और यह शख्स हमारी जाति का भी नहीं था, एक डच मूल का व्यक्ति था जिससे माँ की मृत्यु के कुछ वर्षों पहले जान पहचान हुई। लगभग साठ वर्ष की मेरी माँ को जीवन व्यतीत होने पर एक साथी मिला। हमने कईं बार माँ से पूछा कि उन्होंने दोबारा विवाह क्यों नहीं किया और उनका उत्तर होता था कि वह अपनी बच्चियों को किसी कठिनाई में नहीं डालना चाहती थी। बचपन के रहस्य युवावस्था में और युवावस्था के रहस्य प्रौढ़ावस्था में सरलता से खुलते चले जाते हैं। जब तक यह सब हमारी समझ में आया माँ की उम्र सुबह से निकली चिड़िया सी थक कर साँझ की देहरी पर थी।

आप भी सोच रही होंगी कि उनके विवाह से हमें क्या मुश्किल होती, दरअसल यह समाज जो कि उन गिरमिटिया मजदूरों के वंशज हैं जो सुख संपन्नता की खोज में अनुबंध पर इस देश पहुँचे थे। ये अपने धर्म संस्कृति को तो सहेजते रहे हैं, लेकिन समय की मार, दैहिक व मानवी आवश्यकताओं तथा असंयम से उपजी पशुता से नहीं बच पाये। एक समय में यहाँ महिलाएँ कम भी थीं और गोरे बागान मैनेजरों द्वारा शोषित भी थीं, वहाँ से शुरू हुई पाशविकता आज तक इस समाज को जकड़े है, न जाने कितनी युवतियाँ कितनी महिलाएँ इसका शिकार हुई हैं किन्तु इस समाज के भय ने उन्हें गूँगा बना दिया है।

दूसरे विवाह में पत्नी के साथ दो युवा पुत्रियाँ किसी भी पुरुष के लिए एक लौटरी के समान थीं और हमें बचाते बचाते माँ स्वयं को जलाती गयी। भारत से दूर पश्चिम में रहकर भी हमारा समाज पश्चिम का नहीं हो पाया है, जूझ रहा है आधुनिकता और संस्कारों के बीच! वे हिन्दुस्तानी संस्कार जो हमारे पूर्वज उठा लाये थे आज भी कूट कूट कर तो भरे जाते हैं अपने बच्चों में लेकिन उन संस्कारों का और इस समाज का तालमेल किस तरह बैठाया जाये इसकी कोई तरकीब नज़र नहीं आती। हम ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ समाज व्यक्ति से ऊपर है और समाज के नियम हैं और इनसे इतर व्यक्ति की खुशी कोई मायने नहीं रखती, पर कुछ उधार सदैव रह जाते है जो इस जीवन में तो क्या आने वाले जीवन में भी चुकाए नहीं जा सकते।

साठ वर्ष की मेरी माँ हृदयाघात के पश्चात चलने फिरने से लाचार बस बाल्कनी पर बैठी आते जाते मुसाफिरों को ताकती दिन गुज़ार रही थी। कईं बार गुमान होता कि वह किसी को भी नहीं देख रही बस शून्य में ताक रही है मानो किसी के इंतज़ार में। मैं उसे देख घबरा जाती थी, बेबसी से दम घुटता था, इतना लाचार बेबस कभी महसूस नहीं किया था मैंने। यह श्रीमान कॉलोनी में नए आए थे, सुबह शाम सैर पर जाना शुरू किया था तो आते जाते बाल्कनी पर बैठी मेरी माँ को हाथ हिला दिया करते थे। धीरे धीरे माँ ने प्रतिक्रिया देनी आरंभ की, एक उंगली व फिर हाथ हिला , और एक रोज़ दफ्तर से लौटते हुए मैंने पाया कि श्रीमान बस गुजरे ही थे कि माँ के होंठ हल्की सी स्मित में ढल गए। स्वयं को रोक न सकी और उन्हें चाय के लिए आमंत्रित कर लिया। माँ की स्मित कुछ और गहराई, और फिर हमने निर्णय किया कि शाम कि चाय वह हमारे साथ ही पिए और इस तरह शुरू हुआ यह सिलसिला।

मेरे दफ्तर से घर पहुँचने से पहले जोस माँ के पास पहुँच जाते और धीरे धीरे माँ के स्वास्थ्य में होने वाले सुधार से डाक्टर तक अचंभित हो गए। जोस हमेशा कहते "सी माई मैजिक"...... सच उस व्यक्ति में जादू था!!! वह मेरी माँ को बारह बरस और जिला गया। एक बार कौतूहलवश पूछ लिया था उसके परिवार के बारे में वह मुस्कुरा कर बोले – "जो मेरे कारण मुस्कुरा पाएँ या जिनके कारण मैं मुस्कुरा पाऊँ वहीं हैं मेरा परिवार, और वर्तमान में इस दायरे में और कोई हो न हो तुम अवश्य हो मेरी गुड़िया"...... अपने आँसू नहीं रोक पायी कोमल शब्दों की आदत नहीं थी मुझे, किन्तु ऐसा कहने में भी जोस की आँखों में जैसे एक सर्द शाम ठहर गयी, मैं उन्हें उदास नहीं देखना चाहती थी इसलिए फिर कभी इस बारे में बात नहीं की। और आज तक उनके बारे में बस यही जानती हूँ कि हम उनके साथ होने से मुसकुराते थे। पहचान के कुछ समय बाद एक बार अकस्मात उन्हें अंकल पुकार उठी तो उन्होने तुरंत कहा ग्रेस मुझे किसी भी रिश्ते में मत बाँधो; मैं जोस हूँ मुझे बस जोस रहने दो, मैं रिश्तों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाऊँगा, मुझे इस बोझ से मत लादो! और तब से एक भावनात्मक परिवार से हम हर शाम चाय पर मिलते रहे।

चार वर्ष पूर्व मेरी माँ के देहांत होने तक ऐसा ही चलता रहा। फिर धीरे धीरे मैं अपने कामों में उलझती गयी, यदा कदा मुलाक़ात होती थी, किन्तु शाम की चाय का सिलसिला बंद हो गया। मैंने नौकरी बदली और दफ्तर घर से दूर होने के कारण पहले से भी व्यस्त हो गयी, पहले कुछ सप्ताह फोन पर बात हो जाती थी किन्तु दायित्व बढ़ने के कारण बहुत समय तक जोस का खयाल न आया... फिर न जाने क्यूँ एक दिन बड़ी बेचैनी हुई, कुछ पुरानी तस्वीरें देख रही थी और उन्हीं में बीच में आ गयी जोस की और माँ की तस्वीर जो शायद मैंने चुपके से कभी ली थी दोनों बच्चों की भांति निश्छल बैठे हुए शांत; कोई कुछ न कहता हुआ किन्तु जीवन से तृप्त, और अचानक मेरा मन जोस से मिलने को हुआ, तो मैंने उन्हें फोन किया। कई घंटी जाने के बाद बहुत क्षीण से आवाज़ आई, हेलो..... मन भीग गया, दो चार शब्दों में बात पूरी कर मैं दौड़ गयी उनके घर! शायद दो माह बाद देख रही होउँगी; किन्तु लगता था सदियाँ गुज़र गईं हैं, हमेशा ज़िंदादिल जोस बमुश्किल अपने पलंग से उठ पा रहे थे किन्तु फिर भी मेरा स्वागत एक मुस्कान ने ही किया, किसी गिले शिकवे से नहीं; मैं असीम ग्लानि से भरी यह भी न कह पायी कि 'मुझे बुलाया क्यों नहीं' मैं खुद ही तो भूल गयी थी।

तुरंत डॉक्टर को बुलाया और डॉक्टर ने आते ही फैसला किया उन्हें अस्पताल में भर्ती करना होगा! शरीर में रक्ताल्पता थी और उस दिन पहली बार जाना कि वह हृदय के भी मरीज हैं। विश्वास ही नहीं हुआ, इतना खुशदिल व्यक्ति भी हृदयरोगी हो सकता है। सप्ताह भर में ही वे अलविदा कह गए और तब से अब तक मैं रोज़ उनके पास आती हूँ, अपनी अनदेखी का प्रायश्चित करने। जोस ने तो कुछ न कहा लेकिन मैं उनके ऋण से कभी उऋण न हो पाऊँगी। वह उधार बाकी रहेगा!!!... जीवन पर्यंत।"

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२ अप्रैल २०१२

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