मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


सुनंदा का मन हुआ कोई कड़वी बात कह दे, पर राजीव के चेहरे का अतिरिक्त अनमनापन और बेचैनी देखकर चुप हो गई। उसकी भरी-भरी आँखों में उतरे हुए आँसुओं ने एक अन्यमनस्कता और वितृष्णा का रूप ले लिया था। वह समझ नहीं पा रही थी कि कौन-सा राजीव सच्चा है? घर की चहारदीवारी में इतना प्यार करने वाला राजीव या यह बाहरवाला- इतना असम्पृक्त और बेगाना राजीव...। उसे लगा जैसे इस राजीव से उसका एक बस की सवारी-सी पहचान है। राजीव ने किसी के साथ उसका परिचय नहीं करवाया। उसकी आँखों में सुनंदा को झटकने या झिड़कने जैसी पूरी तरेर उभर आई थी पर झिझककर कहा- तुम जाओ, बस चलने वाली है।

सुनंदा जानती थी कि बस चलने में अभी देर है। यहाँ से सरककर भी बस गेट पर रुकेगी। कंडक्टर चुंगी देगा बस का नम्बर लिखवा कर आउट पास लेगा- इस सारी प्रक्रिया में भी कम से कम पन्द्रह मिनट लग जाएँगे- जो राजीव के बस पर चढ़ने से पहले काफ़ी समय दे सकते हैं...। फिर भी राजीव के कहने पर वह बिगड़ी गाड़ी के पहियों-सी सरकने लगी।

वह पीछे मुड़-मुड़कर देखती रही थी- बस अभी भी खड़ी थी और राजीव कहीं दुबक गया था। थोड़ी देर में बस गेट पर जाकर खड़ी हो गई थी। उस बस के सामने लाइन में अभी दो और बसें थीं जिसकी इस बस को इंतज़ार करनी थी। उसका जी चाह रहा था कि वह वहाँ जाए जहाँ बस खड़ी थी। वह उधर बढ़ भी चली, लेकिन बस के बिल्कुल निकट पहुँचकर उसने अपने क़दम रोक लिए थे। घर आने के लिए वह लोकल बस की तरफ़ मुड़ गई। बड़े बेमन से वह लोकल बस में बैठ गई। यह बस उसे घर से पहले डिपार्टमेंट पहुँचा सकती थी। उसके हाथ में डिपार्टमेंट जाने लायक कुछ भी नहीं था। न डायरी, न पेन, न कोई काग़ज़। फिर भी वह बिना सोचे-समझे बस में बैठ गई थी। सिऱ्फ इसलिए कि उस जाती हुई बस को अपने दिमाग़ से झटक सके जिसमें राजीव था और उसके साथ बैठी हुई हँसती किलकारियाँ भरतीं वे लड़कियाँ। और उन सबके ऊपर चिपका हुआ था- राजीव का वह अनमना और उड़ा-उड़ा चेहरा।

लोकल बस में किसी ने उसके कंधे को छुआ। वह मुड़ी तो पीछे बैठी उसकी सहेली विद्या मुस्करा रही थी। उसे पलटकर मुस्कराना पड़ा। यही नहीं अपना सौहार्द्र दिखाने हेतु उसकी ओर मुड़ना पड़ा ताकि उसका उत्साह उसकी सहेली तक पहुँच सके। वह उठकर उसके पास चली आई थी। इधर-उधर की बातें होती रही और वह खींच-खींचकर अपने ध्यान को अपनी सहेली पर केन्द्रित करती रही...।

थीसिस देखते-देखते उसका ध्यान दाम्पत्य जीवन पर एक विशिष्ट टिप्पणी पर चला गया... और कुछ दिन पहले की एक रात- जब वह और राजीव बहसते बहसते एक अनाहूत चौराहे पर खड़े थे- पर पहुँच गया। कोई भी आदमी अपनी पत्नी से शायद पूरा संतुष्ट नहीं होता- राजीव ने कहा।

तुम संतुष्ट नहीं हो ?
ऐसा क्यों कहती हो। मैं अपनी बात नहीं कह रहा। कहते-कहते राजीव जैसे हकला गया...। उसने अपनी झेंप मिटाने के लिए सुनंदा को अपनी ओर खींच लिया और अन्यथा चुलबुली टिप्पणियाँ भी कर डाली। उस घिसी-पिटी तारीफ़ ने सुनंदा को और भी उद्विग्न कर दिया था।

हर पति अपनी पत्नी को बहलावे में रखने के लिए झूठी तारीफ़ करता है।
तुम उन सबके साथ मुझे क्यों क्लास करती हो ?
तुम क्या उनसे अलग हो ?
हाँ-बिल्कुल अलग हूँ... क्योंकि मैं जो कहता हूँ महसूस करके कहता हूँ।
मुझे तो दिखाई नहीं देता... और उसने राजीव की आँखों में गहरे से ताका।
क्यों मैंने ऐसा क्या किया है ?
क्या तुम लड़कियों को वैसी ही लोलुप दृष्टि से नहीं देखते जैसे दूसरे देखते हैं ? केवल वश चलने की बात है।

अजीब और अनहोनी बातें ही करती हो...। कौन सी ग्रन्थि से पीड़ित हो कि आदमी की अच्छाई में भी तुम्हें बुराई ही पहचान में आती है ?

एकाएक जैसे बिजली कौंधी। सुनंदा उठकर बैठ गई। उसने राजीव का रुख अपनी ओर करते हुए- उस रात की मद्धिम रोशनी में राजीव की आँखों में उतरते हुए एक मजबूत आवाज़ में कहा- राजीव, सुनो- मेरी बात ध्यान से सुनो। अपनी सारी ताक़त बटोरते हुए बोली राजीव, देखो आदिम काल से आज तक आदमी की फितरत में कोई अंतर नहीं आया। आदिम-जंगली आदमी अपनी भूख खुलेआम, सरेआम मिटाता था। वह आज भी वही करता है। केवल सभ्यता का ओढ़न ओढ़कर लुक-छिपकर। सभ्यता के नये आवरण में वह जंगलों और कबीलों से उठकर होटलों में आ गया है।

आज परिवार की सत्ता इस ख़तरे में डोल रही है। सभ्य सुसंस्कृत समाज में अपने भविष्य को ताक पर रखने की अपेक्षा अगर आदमी को उसकी छूट मिल जाय तो शायद शर्म के मारे वह पूरी तरह घर लौट आए। सुन रहे हो न राजीव... ?

राजीव मात्र बुत बना सुनंदा को देख रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि सुनंदा आख़िर कहना क्या चाहती है। सुनंदा का बात-बात पर बिगड़ना, किसी की ओर देखने भर से बिदक-बिदक पड़ना और किसी के पास से निकलते जरा सी भी असावधानी हो जाने से बडबड़ाना- उसकी हर क्षण चौकस आँखें... और वही सुनंदा आदमी को पूरी छूट देने की बात कर रही है।

मैं नहीं मानता।
पर किसी और दृष्टि से देखने की भी दृष्टि तुम्हारे पास है न... !
प्रगट में उसने सुनंदा को झिंझोड़ा- तुम्हारा दिमाग़ तो नहीं चला गया... ज़रूर तुम्हारा कोई पुर्जा ढीला हो गया है... दुनिया भर के लोगों के साथ मुझे क्यों गिरा रही है।

राजीव क्षण भर के लिए चुप हो गया। उसे लगा जैसे रंगे हाथों पकड़ा गया हो या किसी ने उसे नंगा कर दिया हो। राजीव, इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। दोष तो मेरा है। मैंने कभी साहस ही नहीं दिखाया कि चौखट के बाहर झाकूँ। इसलिए मेरी दुनिया तुम तक सीमित रह गई और अपने लिए जीना नहीं आया।

राजीव उसे घूर रहा था जैसे कह रहा हा- तुम हमेशा रही हो... मैं ज़रूरी नहीं तुम्हारी हर बात में हामी भरूँ... पर अन्दर ही अन्दर वह आज पहली बार अपनी पत्नी के सामने स्वयं को निरावरण और शर्मिन्दा महसूस कर रहा था। वह हैरान था कि सुनंदा ने कैसे आदमी को तह तक पहचान लिया है।

मेरा दिमाग़ बिल्कुल ठीक है। इस नश्वर शरीर के लिए इतना पॉसेसिव होना व्यर्थ है। इस शरीर के लिए इतना मोह क्यों ? समय आ गया है कि स्त्री उस घेरे से बाहर निकलकर अपना दायरा विस्तृत करे। राजीव ! यह विचार मैंने सोच-समझकर बनाया है। मैं अन्दर से आज तक जितनी कच्ची थी आज उतनी ही अपने आपको सुदृढ़ महसूस करती हूँ। बस एक वायदा तुमसे चाहूँगी।
वह क्या !
जो भी करो छिपा कर मत करो। क्या इतना भी नहीं कर सकते ? अन्यथा मैं इसे विश्वासघात समझूँगी।
आज़ादी का यह बहुत ग़लत तरीका है। यह रिश्ते की पवित्रता पर दाग़ लगाने वाली बात है सुनंदा !
छुप-छुप करो तो सब पवित्र है ?
तुम दूसरे को तोड़ देती हो।
मैं सच कहने में हिचकिचाती नहीं।
हर आदमी को एक ही फीते से नापती हो।
हर आदमी का फीता चाहे एक न हो लेकिन उसकी लंबाई-चौड़ाई एक ही है राजीव ! तुम कितनी अस्वाभाविक और अनहोनी बातें करती हो कभी-कभी।
तुम्हारे कभी-कभी को भरने की बात कर रही हूँ। खींचकर भी बात छोटी रह जाय तो क्या लाभ...। क्या मान सकते हो मेरी बात ?

मैं तुम्हारी हर बात मानने का कायल नहीं हूँ। कायल न सही- पर मन ही मन सराहना ज़रूर कर रहे हो...। राजीव बरबस मुस्करा दिया था। वही मुस्कान बाद में उसकी झेंप बन गई थी। सुन्न जैसी पड़ी निगाहों से राजीव ने उन आँखों में देखा जो कहीं दयार्द्र होने जैसी भाप उड़ा रही थीं।

सुनंदा उसकी ओर देख रही थी जैसे कह रही हो- मैंने तुम्हें खुली रोप (रस्सी) दे दी है- इतनी खुली कि चाहो तो फाँसी लगा लो...।

तब अचानक सुनंदा उठी और सर की अलमारी की चाबी चपरासी को देकर सीढ़ियाँ उतर गई। क्षणांश में जैसे अपने मानस में चलते दृश्यों को पोंछ कर सोचा तुमसे जब मैं इतनी खुली आज़ादी की बात कर सकती हूँ- तो उस आज़ादी के साथ तुम्हें नि:शंक दूसरों के साथ जाते क्यों नहीं देख सकती...।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।