विधु ने ख़त
पढ़ा। हाथ में लेकर सोचती रही। एक और भाषण- बाप का बेटी के नाम।
ख़त धीरे से उसने रद्दी की टोकरी में सरका दिया।
मन्दिर में
जाकर दिया जलाते ही धरणी की आँखें भीग गईं।
''प्रभु इस बच्ची का भला करो।'' उद्वेग से गला रुँध गया। कितने
व्रत- उपवास कर चुकी, कितनी मन्नतें माँगी। कितनी बार घर में
हवन- पूजा करवाई, विधु की सिर्फ़ फ़ोटो ही सामने रख कर। विधु की
मौसी आए दिन भारत से कभी कोई तावीज़, कभी किसी हवन की भस्म और
कभी किसी अंगूठी में पत्थर लगवा कर भेजती - विधु को पहनवा
देना। विधु बिन किसी चूँ- चपड़ के पहन भी लेती।
''विधु, तेरे दफ़्तर में कोई लड़का नहीं है क्या?'' धरती पूछती।
''है माँ, पर सब शादी-शुदा हैं।'' विधु दूसरी ओर देखते हुए
जवाब देती।
हर साल ''वैलेन्टाइन डे'' वाला दिन विधु पर बहुत भारी पड़ता।
खौफ़ खाती थी वह उस दिन से। लगता दफ़्तर में हर आता-जाता आदमी
जैसे उसकी ही मेज़ को घूरता था। कहीं कोई चॉकलेट नहीं, कार्ड या
फूल भी नहीं। शायद अगले साल? अब उसने सबसे बचने का तरी॔क़ा सोच
लिया। ख़ुद ही अपने को फूल भिजवा दिए।ज़ुबानें तो बन्द हो गईं।
दफ़्तर में उसके साथ काम करने वाले लड़के या उसकी अपनी सहेलियों
के दोस्त पता नहीं क्यों उससे इतना अपनापन दिखाते हैं? अपनी
प्रेमिकाओं को सगाई की अंगूठी देने के लिए उसकी राय पूछते। वह
खुशी-ख़ुशी उनकी शॉपिंग में मदद भी करवा देती। घर लौट कर अंधेरे
कमरे में बिलख-बिलख कर रोती। इन संवेदना-हीन लोगों को क्या
मेरी ख़ाली उँगली दिखाई नहीं देती?
धरणी बस विधु
के चेहरे के भाव ही देखती रहती है। समझ में नहीं आता कि क्या
करे? किसी ने बताया कि भारतीय मूल के प्रशिक्षित युवा लोगों का
कोई सम्मेलन इस बार न्यूयॉर्क में हो रहा है। उसने विधु से पूछ
कर उसका नाम भी रजिस्टर्ड करवा दिया। विधु गई तो पर ख़त्म होने
से पहले ही लौट भी आई। धरणी की आँखों में सवाल उभरा, ''कोई बात
बनी?''
विधु तीर सी आगे निकल गई। धरणी ने बाद में उसे फ़ोन पर बात करते
सुना, ''वहाँ ऐसे-ऐसे अंकल-नुमा लड़के थे कि क्या बताऊँ?
ढीले-ढाले से, पढ़ाकू, कोई चश्मे वाला, किसी के बाल उड़े हुए।
मुझ से तो अगर कोई बात करने की कोशिश भी करता तो मैं तो मुँह
ही दूसरी ओर कर लेती या फिर अपने सैल-फ़ोन से झूठ- मूठ व्यस्त
होने का बहाना करती।
दूसरी तरफ़ से पता नही किसी ने क्या कहा कि विधु तुनक गई।
''पर मैं अपनी उम्र से बहुत छोटी लगती हूँ। जब मैंने इतने
सालों तक इन्तज़ार किया है तो बेहतर है कि उस आदमी के सिर पर
बाल तो हों।''
लेटे-लेटे धरणी चुपचाप छत की ओर देखती रही। सामने अल्मारी में
गुलाबी शादी का जोड़ा वैसे ही मलमल की धोती में सहेज कर रखा हुआ
था जो उसने ख़ास विधु के लिए दस साल पहले अपनी किसी सहेली के
हाथ, चंडीगढ़ से मँगवाया था।
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आज घर में
मातम सा वातावरण था। लगा जैसे कोई ख़ुशी बहुत पास आने वाली थी
कि छिन गई। सागर को लगा था विधु को शायद आदित्य पसन्द आ गया
है। वह पीछे ही रहे हालाँकि धरणी सब बताती रही। सुदर्शन,
चिकित्सक, अमरीका का ही पढ़ा-लिखा, सभ्य और सुसंस्कृत- सभी
बातें दिखती थीं उसमें। उन्होंने ख़ुद जाकर नीना को धन्यवाद
दिया था, उनका रोम-रोम शुक्रगुज़ार था। लगता था जैसे कोई सपना
पूरा होने ही वाला है। आदित्य से मिल कर विधु रात गए लौटी तो
धरणी उसके हाव- भाव देख कर ही ठिठक गई, पर चुप रही। आदित्य दो
दिन के लिए हयुस्टन से न्यूयार्क आया था, विधु से ही मिलने। आज
सारा दिन विधु उसे लेकर बाहर घुमाने गई हुई थी। सुबह उसने
अस्वाभाविक चुप्पी के साथ नाश्ता किया और फिर घर से निकल गई।
शाम को लौटी तो यों लगा जैसे किसी का दाह-संस्कार कर के आई हो।
सागर अनमने से पियानो पर बैठे थे। मन जैसे भँवर में डोल रहा
था।
दोनों माँ-बाप की नज़रें उसकी ओर उठीं जैसे पूछ रही हों...
''कोई बात बनी?''
''आदित्य की और मेरी बात ख़त्म, बस। अब इस बारे में कोई मुझसे
बात नहीं करेगा।'' दॄढ़ता से कह कर वह अपने कमरे में चली गई।
बड़ी ज़ोर से दरवाज़ा बन्द होने की आवाज़ हुई। पूरे घर में
निस्तब्धता इतनी कि जैसे सांस लेने की भी मनाही हो।
अगली शाम काम से विधु घिसटते क़दमों से घर लौटी। डैडी को सामने
पाकर ठिठकी, फिर आगे बढ़ गई। ज़ाहिर था कि सागर सारा दिन घर पर
ही रहे थे। कोई बोझ था उनके मन पर।
''विधु, मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ।''
''मुझे किसी से बात नहीं करनी। मेरी तबियत ठीक नहीं।''
''लेकिन हम बात करना चाहते हैं।'' धरणी ने थोड़े कठोर होकर कहा।
''आख़िर बात क्या हुई?''
''मैं बात ही नहीं करना चाहती।''
''मुझसे नहीं तो कम से कम अपनी माँ से तो कर सकती हो।'' कह कर
सागर उठ गए।
धरणी ने प्यार से हाथ बढ़ा कर विधु को अपने पास बिठा लिया।
''विधु, जब तुम छोटी थीं तो और बात थी। अब इस उम्र में कोई
ज़्यादा लड़के दिखाई नहीं देते। कितने सालों बाद तो कोई लड़का
मिला है, भला अब इस में तुम्हें क्या बात ग़लत दिखाई दी।''
''जानना चाहती हो?'' विधु आहत होकर खड़ी हो गई।
''कल जब हम सब लोग साथ थे, तो उसने तीन ड्रिन्कस लीं, फिर उसने
सिर्फ़ अपने हिस्से के पैसे निकाले।''
''यहाँ अमरीका में तो सभी लड़के पीते हैं।''
''उसकी कई गर्ल-फ़्रेन्डस भी रह चुकी हैं।''
''अब जब इतनी उम्र के हो जाओ तो स्वाभाविक ही है।''
''वह पहले एक लड़की के साथ रहता था।''
अब धरणी चुप हो गई। फिर उसने एक हारते हुए वकील की तरह कहा,
''चल अब तो नहीं रहता न। वह उसका अतीत था। हमें क्या
लेना-देना?''
''और जब कल रात को वह मुझे छोड़ने आया था तो उसने मुझे ज़बरदस्ती
'किस्स' करने की भी कोशिश की।'' विधु चोट से फ़ुंफ़कार उठी।
धरणी को जैसे किसी ने गहरे कुँए में धक्का दे दिया। धँसते हुए
उसके शब्द भी डूब गए, ''यह यहाँ की संस्कृति है।''
कई बीमारियाँ
और उनकी उतनी ही दवाइयाँ। धरणी सोती है तो बेहोश होकर। सागर को
अब ऊँचा सुनाई देता है। विधु फ़्लू से बेहाल थी। पता नहीं कब से
अपने कमरे से पुकारती रही। ''माँ... पानी''।
धरणी बाथरूम जाने के लिए उठी तो आवाज़ सुनाई दी। धीरे-धीरे
सीढ़ियाँ उतर कर रसोई-घर में आई। पानी का गिलास लेकर विधु के
कमरे में गई। हाथ बढ़ा कर उसका माथा छुआ, तप रहा था। विधु ने
हाथ झटक दिया।
उसी हालत में तैयार होकर काम पर जाने का संघर्ष करती रही।
छुट्टी लेना इतना आसन नहीं।
बाहर बर्फ़ पड़ रही थी।
''विधु चाभी दे, मैं बर्फ़ हटा कर तुम्हारी कार गर्म कर देता
हूँ।'' सागर ने कोमलता से कहा।
विधु बिना कुछ खाए पीये, अपने को घसीटती हुई, कार के ऊपर से
बर्फ़ हटाने लगी।
''मैं हटा देता हूँ।''
''नो, थैंक्स।'' उसने नज़रें उठा कर उनकी तरफ़ देखा भी नहीं।
सागर हार कर भीतर लौट आए।
सारी हताशा धरणी के सामने बिखर गई।
''क्या करेगी यह लड़की? कल को यह क्या करेगी?''
धरणी क्या जवाब दे?
''रात बीमार थी तो माँ को पुकार रही थी, पानी देने के लिए। कल
जब माँ नहीं होगी, अकेली रह जाएगी तो किस को पुकारेगी? कौन
देगा इसको उठ कर पानी?''
सागर को लगा जैसे वह रो पड़ेंगे।
धरणी ने उन के कंधे थपथपा दिए पर कुछ कह न सकी।
अब धरणी कुछ नही कहती किसी से भी नहीं। बस जाकर अपने इष्ट-देव
के आगे हाथ जोड़ आती है।
''प्रभु, भला करो।'' प्रार्थना करने के अलावा और कोई शक्ति बची
नहीं उसमें।
एक दिन कैविन
उनकी प्रार्थना का जवाब बन कर आ ही गया। कैविन घर के बाहर कार
रोक कर, वहीं से विधु को फ़ोन करता; ''बाहर आ जाओ।''
विधु बाहर लपकती तो धरणी को भी देखने की उत्सुकता होती कि बेटी
किस के साथ जा रही है? सुरक्षा के लिए भी कार का और कार वाले
का हुलिया जानना ज़रूरी था। विधु आँखे तरेरती।
''दरवाज़ा बन्द करने आ रही हूँ,'' वह खिसियानी होकर कहती।
''मेरे चले जाने के बाद करना।'' विधु सख़्ती से कहती।
दरवाज़ा बन्द कर धरणी सीधे, सोने वाले कमरे में बनाए मंदिर की
ओर दौड़ती।
फिर एक दिन वह नीना के घर ही थी, विधु काम से लौटते वक्त उसे
वापिस लेने पहुँची।
विधु का चेहरा देख कर धरणी के दिल में हौल सा उठा। नीना ने
विधु को हाथ पकड़ कर बिठा लिया। विधु वहीं फूट-फूट कर रो पड़ी।
बहुत पूछने पर बस यही कह सकी, ''कैविन अब मुझसे कोई सम्बन्ध
नहीं रखना चाहता।''
''आखिर क्यों?''
''कहता है कि मैं बहुत अच्छी हूँ और वह मेरे लायक नहीं।''
धरणी मुँह -बाये सुनती रही। उसे यह सब बातें समझ नहीं आती।
''उसने मुझे अस्वीकार कर दिया है माँ।'' विधु ने जैसे चीख़ मार
कर उसे समझा दिया।
धरणी ने उसे सीने से लगा कर ढाँढस बँधाने की क़ोशिश की।
विधु घायल तो थी ही पर अब ग़ुस्से से जैसे फ़ुंफ़कार उठी।
''जब मैं जवान थी, आकर्षक थी, तब आप लोगों ने बेहूदा से देसी
लड़के दिखा- दिखा कर मेरा वक्त ख़राब कर दिया। होश आते ही मेरी
शादी करवाने को तुल गए। कितना विरोध करना पड़ा है मुझे। अब आप
लोग मेरी मन-पसन्द के लड़के से मेरी शादी करने को राज़ी हुए हैं
तो लड़के हैं ही कहाँ? और अगर कोई है तो वह मुझसे प्रेम नहीं
करते क्योंकि अब मैं आकर्षक ही नहीं रह गई।'' विधु फिर से
फफक-फफक कर रो उठी।
धरणी ने
चुपचाप सारे आरोप सुन लिये, स्वीकार कर लिए।
''चल, हमारी ही ग़लती सही। पर भगवान तुझे सुखी रखे।''
पता नही कितना ही समय धीरे-धीरे सरक गया। अचानक एक दिन विधु ने
ख़ुद ही माँ से कहा।
''माँ, तुम्हे कैसा लगेगा अगर मैं शादी के बिना ही किसी के साथ
रहना शुरू कर दूँ?''
धरणी को जैसे लकवा मार गया।
''ग्रेग यही चाहता है और मैंने उसे मना कर दिया है।''
धरणी ने फिर से साँस ली, पर बोझिल-सी। विधु आजकल अक़्सर ग्रेग
की बाते करती थी। धरणी को उम्मीद थी कि शायद ग्रेग ही विधु के
सपनों का राजकुमार हो!
विधु के भाव-हीन चेहरे के ऊपर ख़ामोशी की मोटी-सी पर्त्त पड़ गई।
मन के अंधेरे में वह कुछ टटोल रही थी। मूल्यों की इस
भूल-भुलैया में वह अपने को बेगाना-सा महसूस करती है। कुछ मूल्य
थे जो उसने इस घर से लिए हैं, कुछ उसने बाहर से उठा लिए। दोनों
ने मिलकर एक अजीब-सी यह भूल-भुलैया रच दी। वह इसके दरवाज़े पर
कब से खड़ी है। जिधर भी जाती है, फिर लौट कर वहीं अपने को खड़ा
पाती है।
धरणी विधु के चेहरे को देखती रही। कितना ग़ुस्सा करती है, पर मन
और चेहरा कितना भोला है? कहाँ, क्या गड्ड-मड्ड हो गया?
''सब गड़बड़
है, इस लड़की का सोचने का तरीक़ा ही गड़बड़ है।'' सागर परेशान होकर
कहते।
''आप क्यों परेशान होते रहते हैं? जो भगवान चाहेगा, वही
होगा।''
''कहीं भगवान ने यह चाहा कि इसकी शादी ही न हो, तो?''
''क्या...?'' धरणी अपने कानों पर विश्वास न कर सकी।
''मुझे तो लगता है कि अब इसकी शादी कभी नहीं होगी।'' सागर की
काँपती आवाज़ में हताशा थी।
''कैसे कह दी आपने इतनी बड़ी बात?'' धरणी चीत्कार कर उठी।
''आप भगवान हैं क्या? विधु की क़िस्मत आपके हाथ में है क्या? आप
जो चाहे फ़ैसला दे सकते हैं? आपने एक माँ के सामने ऐसी बात कैसे
कह दी?''
सागर सकते में खड़े थे। कभी अपने पति के सामने ऊँची आवाज़ में न
बोलने वाली धरणी हाहाकार कर उठी। जैसे उन्होंने उसकी बेटी के
लिए कोई शाप-शब्द कह दिए हों। सागर आहत मातृत्व के सामने बहुत
छोटे हो गए। सभी शब्द चुक गए। न कुछ सफ़ाई देने वाले बचे और न
क्षमा माँगने वाले ही।
धीरे से उठे, नीचे स्टडी में आकर बैठ गए... बिना रोशनी के ही।
पिछले तीन
दिनों से विधु ने छुट्टी ले रखी थी। आज उसकी माँ दमे के भारी
हमले से फिर बच कर, अस्पताल से घर आ गई थी। उसने ख़ास सफ़ाई वाली
टीम को बुलवा कर पूरा घर किटाणु-रहित करवाया। एयर-कंडीशनींग की
छाननियों में, फ़ायर-प्लेस की चिमनी में, अल्मारियों के ऊपर,
पर्दों के पीछे, कहीं धूल-किटाणु न रह जाएँ जिससे धरणी का दमा
फिर भड़क उठे। उसे हिन्दुस्तानी ढंग से खाना पकाना तो नहीं आता,
पर जो-जो समझ में आया, बाज़ार से लाकर सब फ़्रिज में भर दिया।
बड़ी मुस्तैदी से उसने घर सँभाल लिया।
विधु से
अक़्सर लोग पूछते, ख़ासकर अमरीकी लोग कि वह अभी तक अपने माँ-बाप
के साथ क्यों रह रही है?
इन अनचाहे प्रश्नों की बौछार को रोकने के लिए विधु के पास एक
बहुत बड़ा कवच था। कहती, ''माँ दमे की मरीज़ है और पिता दिल के।
अगर वह भी उन्हें छोड़ कर चली जाए तो कौन उनका ख़्याल रखेगा?''
विधु को लगता है कि कहीं शायद मम्मी-डैडी के मन में बेटा न
होने का मलाल भी छिपा हुआ है। वह अपनी ओर से उन्हें यह बात
महसूस नहीं होने देना चाहती। बड़ी बहन ने तो शादी के बाद इधर
आकर झाँका भी नहीं और विधु से तो उसकी बोल-चाल भी नहीं है। वही
है बस अब सब कुछ मम्मी-डैडी की। विधु ने झाँका तो माँ
लेटे-लेटे छत की ओर निहार रही थी।
धरणी के मन में आजकल कबीर की यह पंक्तियाँ घुमड़ती रहती हैं:
''माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर। आशा तॄष्णा न मुई, यों
कहि गया कबीर॥
''माँ बूढ़ी हो गई है।'' विधु सोचती है। धीरे से पास आकर लेट
गई।
धरणी उसका सिर सहलाने लगी। ऐसे में विधु को बहुत अच्छा लगता
है। उमर के साथ माँ-बेटी के सम्बन्धों से ऊपर उठा एक रिश्ता।
बस औरत होने का साँझापन।
''मैं चली गई तो इसका क्या होगा?'' धरणी सिहरी।
''यह चली गई तो मेरा क्या होगा?'' विधु अकुला उठी। एक ख़ामोशी
थी पर संवादों से बोझिल।
धरणी ने चुप्पी की दीवार को सरकाया, ''विधु मैं कब तुम्हें
दुल्हन बनी देखूँगी?''
''माँ,'' विधु ने घुड़का पर नक़ली ग़ुस्से से।
''सोचती हूँ अब तो तेरी सहेलियों के बच्चे भी किशोर हो गए। तुझ
से छोटी तेरी चचेरी, ममेरी बहनों की शादी भी कब की हो गई।''
''शायद मेरी क़िस्मत में कोई है ही नहीं।''
''ऐसा नहीं कहते बेटे।''
''कोई नज़र आता है क्या?''
''एक बात कहूँ, तू बुरा तो नहीं मानेगी?''
''आगे कौन-सी बात भला तुमने नहीं कही?''
धरणी थोड़ा
झिझकी। फिर काफ़ी अरसे से मन में आ रही बात को थोड़ा साधा।
''विधु अब तुम्हारी उमर के हिसाब से कोई कुँआरा लड़का मिलना
मुश्किल ही लगता है। अगर कोई विधुर या तलाक़-शुदा ही हो...।''
''अब यही बचे हैं मेरे लिए? '' विधु ने घायल होकर कहा। कुछ देर
अनमनी-सी रही।
''अब यह हालत आ गई है।'' रुँआसी-सी होकर उसने हथियार डाल दिए।
''नहीं बेटा, मैं तो व्यवहारिकता की बात कर रही हूँ। तुम चालीस
को पार कर चुकी हो और...।''
''माँ, आँकड़ों पर मत जाओ।'' विधु तड़प कर उठ बैठी।
''जब मैंने इतना इंतज़ार किया है तो थोड़ा और सही। इतनी साधारण
लड़कियों को भी इतने अच्छे पति मिल जाते हैं तो मैं इतनी
गई-गुज़री तो नहीं। मैं सिर्फ़ शादी करने के लिए अपने दिल से
समझौता नहीं करूँगी। इतनी हताश नहीं हुई अभी मैं।''
धरणी की आँखों में हताशा का भाव देख कर, विधु उसे समझाने लगी
या शायद अपने को ही।
''जो सपना होश आने के बाद से ही देख रही हूँ उसे कैसे ध्वंस कर
दूँ? अभी भी मैं आकर्षक हूँ, पढ़ी-लिखी हूँ, अच्छा कमाती हूँ,
और...।'' उसने पल भर के लिए आँखें माँ पर टिका दीं। ...और अभी
तक कुमारी भी हूँ। बहुत कम लड़कियाँ मिलती हैं मुझ जैसी।''
विधु की
लम्बी पतली गर्दन और ऊँची हो गई। तराशी हुई चेहरे की रेखाएँ
कोमल हो गईं और गहरी आखों में एक चमक झिलमलाई। गुलाबी भरे हुए
होंठ शब्दों को राह देने लगे।
''माँ, तुम देखना, एक दिन ज़रूर आएगा वह। छह फ़ुट लम्बा, सुन्दर,
आकर्षक, गठीला शरीर, बेहद पढ़ा-लिखा, अमीर, ख़ानदानी, हँसमुख,
मुझ पर जान छिड़कने वाला, हाज़िर-जवाब, दिलचस्प, गम्भीर, उदार
विचारों वाला, बिल्कुल अमरीकी मॉडल लगेगा पर मूल्य बिल्कुल
भारतीय होंगे, मैं उसे देखते...ही पहचान लूँगी और वह...।''
विधु के होंठ बुदबुदा रहे थे और गाल पर ढुलक आए आँसू का उसे
पता ही नहीं चला। |