''विधु,
कोई मिला? कोई पसन्द आया? कोई बात बनी?''
''माँ...!'' सिर्फ़ एक शब्द का उत्तर मिलता। इस एक शब्द के पीछे
कितने मतलब हो सकते थे, वह सब जानती थी। माँ जो थी, तुतलाहट से
लेकर झल्लाहट तक की भाषा समझती थी। शब्द सिर्फ़ एक ही था - माँ,
पर लहजा अर्थ बदल देता था।
माँ, क्यों तंग करती हो? फिर वही सवाल? तुम्हें कुछ और नहीं
सूझता? परेशान मत करो! जब कोई मिलेगा तो बता दूँगी। कभी लम्बी
चुप्पी और नाराज़गी। अब यही बात करोगी तो मैं घर पर ही नहीं
रहूँगी। फिर वर्जना... तुम सीमा का उल्लंघन कर रही हो, यह मेरा
निजी मामला है। कभी हताशा और कातरता - मैं ख़ुद ही असुरक्षित और
अकेलापन महसूस करती हूँ, पूछ कर क्यों ज़ख्म को और छील देती हो?
कभी खीज... तुम मुझे चैन से क्यों नहीं बैठने देती, मैं खुश
हूँ अपनी ज़िन्दगी से।
आखिरी बार, ''माँ...?'' उसने इतने ग़ुस्से और हिकारत से कहा था
कि फिर उस लक्ष्मण-रेखा को लाँघने की, धरणी की हिम्मत ही नहीं
हुई। अब बहुत अरसे से वह सिर्फ़ चुप रहती है।
झील जैसी
गहरी आँखों और चाँदनी जैसे रंग वाली बेटी कब जवान होकर अपनी
स्वतंत्र ईकाई बन गई, पता ही नहीं चला।
कॉलेज में काफ़ी लड़के विधु के पीछे लगे रहते थे। धरणी को थोड़ी
असहजता होती। बातों-बातों में कभी इस का उदाहरण दे और कभी उस
का। ज़्यादातर अपनी ही माँ की बातों को अनजाने ही दोहरा देती।
फिर आधुनिक माँ बन जाती। कहती, अपने पाँव पर खड़ी होकर व्यस्क
निर्णय लेना। पर निर्णय क्या लेना चाहिए, अपरोक्ष रूप से यह भी
बता देती। पशु-पक्षी भी तो एक रंग-रूप की ही जोड़ी बनाते हैं।
मूल्य समान हों, अपने जैसी ही पृष्ठ-भूमि हो तो ज़िन्दगी आसान
हो जाती है। अपने देशी लड़कों में स्थिरता होती है, शादी के बाद
''बार'' में नहीं जाते, घर पत्नी और बच्चों के पास लौटते हैं।
वही बोली, वही खाना-पीना, वही मूल्य, वही रंग-रूप की समता। कम
से कम बाहरी बातों का संघर्ष तो नहीं रहता, अन्दर की हज़ार
बातें होती हैं - ताल-मेल करने को।
विधु बस
सुनती रहती थी। उसे लगता जैसे उसके ऊपर अपरोक्ष रूप से भार रखा
जाता है, जो उसे मंज़ूर नहीं। पर पटक सके, इतनी ताक़त भी तो
नहीं। उसके मानस-पटल पर अमरीकी लड़कों की तस्वीर थी। उसे छह फ़ुट
लम्बे क़द, बलिष्ठ शरीर, गहरी धँसी आँखें, चेहरे का रेखांकन
करती नुकीली ठुड्डी और जबड़े की हड्डियों में ही पुरुषत्व का
आकर्षण दीखता।
सागर और धरणी
इसे बेटी का बचपना समझते। फिर अचानक ही एक दिन बड़ी बेटी का
निमंत्रण-पत्र मिला। मुझे मालूम था कि आप कभी स्वीकृति नहीं
देंगे इसलिए मैंने आठ अगस्त को एरिक से शादी करने का निर्ण्य
कर लिया है। अगर आप चाहें तो आकर शादी में आकर आशीर्वाद दे
सकते हैं।
सागर के लिए
यह बहुत बड़ा झटका था। उन्हें लगा जैसे उनका स्वाभिमान, इज़्ज़त,
मान्यताएँ, सब कुछ, जिसमें वह विश्वास रखते थे, टूट- टूट कर
बिखर गया। नपुंसक और दयनीय क्रोध में आकर वह चीख़ते, चीज़ें पटक
डालते। विधु दरवाज़ों की ओट में खड़ी होकर काँपती।
धरणी को भी
आघात कम नहीं लगा था। सोचती उसकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई?
पर वह दिल की बात सहेलियों से कर लेती। सभी इन्हीं हादसों से
गुज़र रहीं थीं। एक-दूसरे को देख कर तसल्ली कर लेतीं।
दो-तीन दिन बाद जब आवेग थम गया तो धरणी ने कहा, ''जी, दुख तो
मुझे भी कम नहीं हो रहा, पर हम ऐसा कोई काम न करें कि दस साल
बाद हमें अफ़सोस हो।''
सागर निरीह से देखते रहे।
''शादी का तो उसने निश्चय कर ही लिया है। हम अपनी ओर से बाद
में दावत दे देते हैं ताकि बेटी से सम्बन्ध तो न टूटे।'' धरणी
ने सुझाया।
''जो तुम ठीक समझो।'' कह कर सागर शिथिलता से लेट गए।
एक अनजाने
शहर के होटल में आकर टिके पति-पत्नी एक दूसरे की ओर देखते -
चुप और बेबस।
धरणी बार-बार फ़ोन डॉयल करती। उधर से रिकॉर्डिंग मिलती। वह कई
बार संदेश भी छोड़ चुकी थी।
सागर आशा भरी नज़रों से देखते। धरणी निराशा से सिर हिला देती
जैसे डॉक्टर रोगी के बचने की उम्मीद न होने पर हिलाता है।
''वह फ़ोन उठा नहीं रही।'' धरणी हार कर बैठ गई।
''हमें इतना शर्मिन्दा भी किया और ऊपर से नाराज़गी भी, जैसे
क़ुसूरवार हम ही हों।''
''बस अब चुप कर जाइए।'' धरणी जैसे हवा में उड़ते तिनकों को
इकट्ठा करने की कोशिश कर रही थी।
वह पति के साथ सहमत थी। आख़िर दोनों ने एकमत होकर ही तो विधु की
सगाई भारत में जाकर करने का प्रयास किया था - विधु की अनुमति
से।
सागर के बचपन के दोस्त का बेटा, पढ़ा-लिखा, सुन्दर, सुसंस्कृत।
विधु ने तस्वीर भी पसन्द की थी। माँ-बेटी दोनों गई थीं तो विधु
को लगा, गिनने में तो अंक ठीक ही लगते हैं पर मन में कुछ हिलोर
नहीं उठी। कहाँ गया वह सपना कि कोई उसके प्रेम में पाग़ल है और
वह उसे अपना जीवन साथी चुनती है। सोचा, मैं तो इसे जानती भी
नहीं। इसका और मेरा वातावरण कितना अलग है? यह तो कुछ भी नहीं
जानता उस दुनिया के बारे में, जहाँ मैं रहती हूँ। पर कहा इतना
ही, ''सोच कर बताऊँगी।''
धरणी, पिता
और भाई-भाभियों के दबाव में आ गई।
''विधु, यहाँ ऐसे नहीं होता। हम सब को रिश्ता ठीक लग रहा है।
इतनी दूर से आई हो तो अब सगाई करवा ही लो।'' बड़े मामा ने विधु
को समझाया।
दो दिन में सगाई भी हो गई। विधु सकते में थी। अकेले में रात को
जब होश आया तो वह माँ से तड़प कर बोली थी ''माँ, तुम भी यहाँ
आकर इन सब से मिल गई हो? मुझे बछिया की तरह एक अनजान खूँटे से
बाँधने को तैयार हो गईं?'' माँ के विश्वास-घात की चोट ने उसे
चंडी के रूप में बदल दिया, ''अब तुम्ही तोड़ो यह सगाई।''
धरणी रोने-रोने हो गई।
''बहन जी, यहाँ हमारी इज़्ज़त का सवाल है। आप चाहे बाद में बेशक
अमरीका जाकर तोड़ दीजिएगा।'' बड़े भाई ने धरणी को समझा दिया।
विधु के रोष
का ठिकाना नहीं। सभी की इज़्ज़त... डैडी की, मम्मी की, ख़ानदान की
और बलि किसकी? मेरी!
धरणी ने एक सवाल पूछा, ''तूने अगर हिन्दुस्तान के लड़के से शादी
करवानी नहीं थी, तो फिर यहाँ आने को तैयार क्यों हो गई?''
''सोचा था, शायद मेरे मन को कोई भा ही जाए? मैंने आपकी बात
मानने की क़ोशिश तो की?'' उसने खोख़ली आवाज़ में जवाब दिया।
विधु को बड़ी बहन की शादी पर हुई डैडी की प्रतिक्रिया का ध्यान
था। उसके बाद जो उन्हें दिल का दौरा पड़ा उसकी दहशत से वह कभी
उबर नहीं पाई। डैडी से बहुत प्रेम करती थी वह। अपनी वजह से
उन्हें कोई दुख नहीं देना चाहती थी। पर ज़बरदस्ती की हुई सगाई
ने उसे प्रचंड विरोधी बना दिया।
वह अपने मन
के विरुद्ध, तर्कों का साथ नहीं दे सकती। वापस चली गई थी वह
अपनी नौकरी पर, उसी बेगाने शहर में। क्रिसमस की छुट्टियों पर
सभी अपने घर गए और सिर्फ़ वह अकेली ही रही उस एपार्टमेंट
बिल्डिंग में। न थैंक्स-गिविंग पर घर गई, न ही किसी ने बुलाया।
कितना रोयी थी वह ग़ुस्से में, मजबूरी में। सोचती, मेरे ही अपने
मेरा साथ नहीं दे रहे। अपनी ज़िन्दगी के साथ जुआ न खेलने के लिए
मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं। डैडी ने तो यहाँ तक कह दिया कि अब
उस लड़के की ज़िन्दगी तो ख़राब मत करो। कम से कम उसकी पैटीशन तो
फ़ाइल कर दो, ताकि वह मंगेतर- वीसा पर तो आ सके।
उसने ज़हर का घूँट भर कर, रात-भर जाग कर वह सारे फ़ॉर्म भर दिए
थे। बस, उसके बाद से विधु ने सबसे बात करना बंद कर दिया। अकेले
में रोती रही, कोई चुप कराने वाला भी नहीं था। अब तीन महीने
बाद शायद माँ की ममता जागी होगी। यहीं शहर में आकर टिके हैं अब
फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहे हैं।
वह किसी से नहीं मिलना चाहती, बस!
धरणी को दमे
का दौरा पड़ा था। विधु ने स्वाभिमान निगल लिया। माँ का इतना
ख़्याल रखा कि धरणी ने रोम-रोम से दुआएँ दीं। उसने अपना रुख बदल
लिया। कह दिया, '' विधु जा, जो भी तुझे पसन्द है, उसी से शादी
कर ले।''
विधु को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। लगा सिर पर से कोई
चट्टान सरक गई।
''मम्मी अभी कोई नहीं है।''
''क्यों?''
''काम में बहुत व्यस्त रहती हूँ न। समय ही नहीं मिलता।''
''बेटा, हमारे पास आकर रह। इस शहर में कोई नौकरियों की कमी
है?''
''क़ोशिश करूँगी।''
धरणी आश्वस्त हुई। सोचा, यहाँ रहेगी तो किसी जान-पहचान वाले से
मुलाक़ात तो करवाई ही जा सकती है।
विधु जाने कैसे भाँप गई। बोली, ''एक शर्त्त पर, तुम लोग मुझसे
कभी शादी करवाने की बात नहीं करोगे।''
कुछ सोच कर धरणी ने कहा, ''अच्छा!''
सागर उठ कर दूसरे कमरे में चले गए। विधु उनके पास लौट आई थी।
शाम को सागर
काम से घर लौटे तो धरणी ने मेज़ पर खाना लगा दिया। उन्होंने
प्रश्न भरी आँखों से धरणी को देखा। धरणी ने होठों पर उँगली रख
कर चुप रहने का इशारा कर दिया। उसका अपना दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क
रहा था। कान ऊपर की आवाज़ों से स्थिति का अन्दाज़ा लगाने की
क़ोशिश में थे।
विधु हाथ में किसी पुरुष की फोटो लिए धड़धड़ाती हुई नीचे आई।
''यह फोटो मेरे कमरे में किसने रखी?''
''मैंने'', धरणी ने बड़े संयत स्वर में जवाब दिया।
''आपने कहा था न कि आप लोग मुझे शादी के बारे में तंग नहीं
करेंगे?''
''विधु देख, हमने कुछ भी नहीं किया। नीना आंटी ने तेरे लिए यह
फ़ोटो दी है। कहती हैं, ''बहुत हैंडसम है, अपना बिज़नेस है, बहुत
अमीर हैं और लड़का स्वभाव का बहुत ही अच्छा है। मैंने तो कुछ
नही कहा। जो फोटो उन्होंने दी, मैंने तेरे कमरे में रख दी।''
''तो वह अपनी बेटी की शादी क्यों नहीं इससे कर देतीं?''
फ़ोटो को ज़मीन पर पटक कर विधु क़सरत के लिए चली गई। उसे जब भी
तनाव होता है वह भागना शुरू कर देती है। तब तक भागती रहती है
जब तक बिल्कुल बेदम न हो जाए।
सागर अब तक
चुपचाप कौर निगलते रहे थे अब और नहीं खा पाए।
''क्या होगा इसका, धरणी क्या होगा?'' उनका गला रुँधने लगा।
धरणी क्या उत्तर देती?
''मैं बहुत मजबूर महसूस करता हूँ। कर्त्ता आदमी हूँ, पर इस
लड़की ने मेरे हाथ-पैर बाँध दिए हैं।''
''जब वक्त आएगा, इसका संयोग होगा तो अपने-आप कुछ हो जाएगा।''
''क...ब?'' सागर अधीरता वश ज़ोर से बोल गए।
''तीस से ऊपर की हो गई है। हम ढूँढ नहीं सकते, कोई बताता है तो
इसका दुश्मन हो जाता है, ख़ुद इसे कोई मिलता नहीं।''
''मिलते हैं, पर यह उनमें भी नुक़्स निकाल देती है।''
''क्यों?
''पता नहीं किस इन्द्र-धनुष के पीछे भाग रही है? वह ऐसा
राजकुमार ढूँढ रही है, जो है ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से?''
धरणी चिंता में खो सी गई।
अगले दिन सागर ने बेटी के नाम एक ख़त लिखा।
''प्रिय
विधु,
तुम मुझसे बात नहीं करना चाहती इसलिए एक घर में रहते हुए भी
मुझे तुमसे पत्र लिख कर बात करनी पड़ रही है। बेटा, मैं बस इतना
चाहता हूँ कि मेरे जीते-जी तुम्हारा एक सुखी परिवार हो, कोई
तुम्हारा ख़्याल करने वाला, सुख-दुख बाँटने वाला हो और मैं अपनी
ज़िम्मेदारी से छुट्टी पाऊँ। जो भी लड़का तुम्हें पसन्द हो, तुम
उससे शादी कर लो। मैं सिर्फ़ तुम्हें अपनी घर-गृहस्थी में ख़ुश
देखना चाहता हूँ।
विधु कोई भी इन्सान सर्व-गुण सम्पन्न नहीं होता। किसी न किसी
लड़के में कोई न कोई कमी तो होगी ही। तुम कोई एक या दो बातें
चुन लो जो तुम्हारे लिए अहमियत रखती हों। बस, उन्हीं पर ध्यान
केन्द्रित करो। छोटी- मोटी बातों को जाने दो। सभी गुण तो
द्रौपदी को भी एक पति में नहीं मिले थे, इसे पाँच पति मिल कर
ही पूरा कर पाए।
उम्र तो अपनी
गति से चलती है, बढ़ेगी ही। ज्यों-ज्यों तुम्हारी उम्र बढ़ती
जाती है, त्यों-त्यों तुम्हारे लिए वर मिलने की उम्मीद फीकी
होती जाती है। चाहता हूँ कि किसी तरह हाथ बढ़ा कर किसी अनहोनी
की आशंका को रोक सकूँ।
हम लोग उम्र के आख़िरी पड़ाव पर हैं। कल नहीं होंगे तो कौन
तुम्हारा खयाल रखेगा? यह विचार जब आता है तो मैं नींद से उठ कर
बैठ जाता हूँ। मेरी बच्ची, बिना मतलब इतनी ज़िद, इतनी कट्टरता
और विरोध कहीं नहीं ले जाएगा। थोड़ा विचारों में लचीला पन लाओ
और व्यावहारिक बनो। हम तुम्हारे शुभ-चिन्तक हैं, इसका विश्वास
रखो।
ढेर सारे प्यार सहित,
तुम्हारा डैडी |