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झाड़न से
तस्वीरों पर की धूल हटाते-हटाते, धरणी के हाथ रुक गए। बाबू जी
की तस्वीर के सामने आकर उसकी आँखें अपने आप झुक गईं। बाबू जी
की आँखें जैसे अभी भी किसी के आने का इंतज़ार करती हों। एक ही
प्रश्न होता था उनका। उस दिन भी यही हुआ था।
''कोई बात बनी?''
प्रश्न सुनते ही सभी ठठा कर हँस पड़े थे। यह प्रत्याशित प्रश्न
था। बेटे का परिवार अभी दरवाज़े से घर में दाखिल भी नहीं हो
पाया कि न नमस्ते न जय राम जी की। सीधे-सादे बाबू जी की
उत्कंठा एकदम औपचारिकता के सारे जाल को लाँघ कर प्रगट हो उठी।
सब लोगों के हँसने से थोड़ा वह झेंप गए और थोड़ा समझ गए कि जवाब
ना में है।
ना हँस सकी तो धरणी। जी चाहा, बाबू जी को छोटे बच्चे कि तरह
बाहों में भर ले और सहला कर कहे कि मैं समझती हूँ आपकी बेचैनी,
पर कुछ कर नहीं सकती।
अब तो यह घटना भी यादों वाली कोठरी में पड़ी धूल फाँक रही होगी।
कितना वक्त बीत गया, बाबू जी को बीते भी कई बरस हो गए। धरणी
ख़ुद भी उम्र के इस पड़ाव पर खड़ी होकर, पीछे मुड़-मुड़ कर देखती
है। आगे देखते डर जो लगता है। बात तो अभी तक नहीं बनी। वह तो
बस इंतज़ार ही कर रही है। एक बहुत हल्की-सी आशा की लौ, अभी भी
उसके शरीर में कंपकंपाती है। |