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. . और रास्ता निकल आया! डैडी ने किसी एजेंट से बात की। आज तक
मैं समझती थी कि सिर्फ़ वेश्याओं के ही दलाल होते हैं। तब मुझे
पता लगा कि हर व्यवसाय में - जहाँ भी पैसा बनता है – जब भी
लड्डू टूटता है, ‘दलाल’ नाम का यह पक्षी चोंच मारने के लिये
तैयार बैठा होता है। वह अपने दाने चुगता है और फुर्र हो जाता
है। उसने हम दोनों के पासपोर्ट पर रूस का वीज़ा लगवा दिया। डैडी
ने समझाया कि यूरोप में सावधानी से काम लेना होगा। मुझे किसी
ट्रक में सामान के साथ पीछे छुप कर बैठना होगा और फिर मेरी
आँखों में आँखें गाड़ कर मुझसे बोले, “तीन चार दिन मुश्किल के
होंगे। भुगत लोगी? अगर यह नहीं कर सकती तो इंग्लैंड का ख़याल
दिमाग़ से निकाल दो।”
“आप होंगे न मेरे साथ?”
“अवश्य!”
“तब मुझे किस बात का डर? आपका साथ होगा तो मैं दुनिया की हर
मुश्किल तय कर लूँगी।”
यह मैं नहीं, मेरा अंधा विश्वास बोल रहा था !
हमारा विमान मॉस्को की एयरपोर्ट पर उतरा। एयरपोर्ट के बाहर ही
खड़े हमें मिल गए, मिस्टर जॉन मैथ्यूज़। वे एक ट्रक ड्राईवर हैं।
लगता था वे डैडी के घनिष्ठ मित्र हैं। दोनों बड़े तपाक से मिले।
फिर उन्होंने हमारा सामान टैक्सी में लदवाया और अपने ट्रक तक
ले गए। डैडी के पास तो ब्रिटिश पासपोर्ट है और उन्हें यूरोपीय
देशों के लिये वीज़ा की अवश्यकता नहीं है। वे तो बेधड़क जॉन के
साथ आगे बैठे और मुझे सामान के साथ ट्रक के पिछ्ले हिस्से में
बिठा दिया गया। डैडी को मैंने कह तो दिया था कि ‘मैं हर
मुश्किल तय कर लूँगी’ लेकिन अब मुझे महसूस हुआ कि मैं इंसान
नहीं रह गई थी, सामान बन गई थी! मेरे पास तो टाँगे फैलाने के
लिये भी जगह नहीं थी। इन्होंने सोच रखा होगा कि ट्रक में जितना
अधिक सामान होगा, मेरे पकड़े जाने की सम्भावना उतनी ही कम होगी।
मैं सिमटी, सिकुड़ी उकड़ूँ बैठी हुई थी। मगर इंसानों को तो ठंड
भी लगती है। मुझे दो कम्बल दिये गए थे और मैं फिर भी ठिठुर रही
थी। हमारा ट्रक रास्ते में कई जगह रुका जहाँ कुछ सामान उतारा
जाता और कुछ नया सामान लादा जाता। वहीं हम अपनी दैनिक
प्रक्रिया से निवृत्त होते, स्नान, भोजनादि करते और फिर से सफ़र
शुरू हो जाता।
फ़्रांस में कैले के स्थान पर ट्रक को एक ट्रेन में लादा गया जो
कि सागर के बीचों बीच निकाली गई एक लम्बी सुरंग – चैनल टनल –
से गुज़र कर डोवर के स्थान पर इंग्लैंड में प्रविष्ट हुई। यहाँ
पर ट्रक को ट्रेन से उतारा गया और तलाशी हो गई। अम्मा के पलंग
के नीचे पड़ी मैं खाँसती, छींकती घबराती थी। मैंने सोचा इस बार
फिर सामान लादा या उतारा जा रहा है। मैं ग़लत समय पर बेझिझक
छींक गई। बस फिर क्या था? मेरा अंधा विश्वास टूक टूक हो गया।
मेरे बँधे हाथों में लोहे के कंगन आ गए। डैडी और जॉन मैथ्यूज़
भी हथकड़ियों में थे।
डोवर के पुलिस स्टेशन में हम तीनों अलग अलग कमरों में ले जाए
गए और हमारी पूछताछ शुरू हुई। क्योंकि मेरी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी,
मेरी पूछताछ के लिये किसी मिस हंसा पटेल को लगा दिया गया। फिर
मुझे कहा गया कि किसी वकील को फ़ोन करना हो तो कर सकती हो।
“वकील तो डैडी करेंगे।”
“कौन डैडी?”
आदतन मुँह से निकल गया, “मिस्टर गिरिराज?”
“कौन मिस्टर गिरिराज?”
मैंने अपनी भूल सुधारी, “नहीं, मिस्टर माऊँटजॉय।”
हंसा गर्जी, “तुम्हारे दो बाप नहीं हो सकते। ठीक ठीक बताओ . .
. मिस्टर गिरिराज या मिस्टर माऊँटजॉय? तुम्हारे पासपोर्ट पर
‘गिरिराज’ लिखा है। कौन है वह? कहाँ रहता है?”
मैं बग़लें झाँकने लगी।
वह चीख़ी, “तुम नहीं बताओगी, तो भी हम ढूँढ लेंगे। हो सकता है
हमें ‘इन्टरपोल’ की मदद लेनी पड़े। पर हम उसे ज़रूर ढूँढ लेंगे।”
“मिस्टर माऊँटजॉय को प्यार से यह नाम मैंने दिया है. . . यह एक
तरह से उनके नाम का हिन्दी रूपान्तर हुआ।”
“लेकिन माऊँटजॉय तो कहता है कि वह तुम्हें ठीक से जानता भी
नहीं। अपनी संस्था के काम के सिलसिले में कई बार तुम्हें बनारस
में मिला था। फिर वह तुम्हारी रोगी माँ की सेवा में लग गया। इस
से ज़्यादा उसका तुम्हारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं।”
मुझे बताना पड़ा कि मैं एक वेश्या की बेटी हूँ।
मिस पटेल ने चोट की, “तो अपना वही धंधा यहाँ चलाने आई हो?”
मुझे तैश तो बहुत आया मगर मैं यह सब सह गई।
घंटों पूछताछ चलती रही। कभी मिस पटेल अकेली होतीं, कभी उनके
साथ कोई बड़ा अफ़सर होता। कभी उनका स्वर विनम्र होता, तो कभी वे
लोग डाँट लगाते, धमकियां देते। इसी दौरान उन्होंने मुझे बताया
कि ट्रक में मुझसे ज़रा सी दूरी पर उन्हें एक बड़ा सा लेडीज़
हैंडबैग भी मिला है। वह मेरे पास कहाँ से आया?
“कौन सा हैंडबैग?”
हाथों में रबड़ के दस्ताने पहने पुलिस का एक कर्मचारी वह बैग
उठा लाया।
“लगभग आधा किलो कोकीन है इसमें।”
“मैंने तो कभी कोकीन देखी भी नहीं, यह कैसी होती है! यह बैग
मेरा नहीं है।”
“सचमुच यह हैंडबैग तुम्हारा नहीं है?”
एक तिरस्कार भरी क्रूर मुस्कान थी उन सबके चेहरों पर!
माऊँटजॉय ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया था। मैथ्यूज़ ने तो
साफ़ कह दिया कि उसने तो इस से पहले मुझे कभी देखा ही नहीं।
ट्रक सामान ढोने, उतारने के लिये कई जगह रुका करता था। वह नहीं
जानता कब उस से नज़र बचा कर मैं चुपचाप अपने बैग के साथ उसके
ट्रक में बैठ गई।
उन दोनों ने अपना शिकंजा पूरी तरह से कस रखा था और मेरे पास
अपने बचाव के लिये कहने को कुछ भी नहीं था। मैं तो बस रोती,
चीख़ती रही।
डोवर में हमें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। हमें ज़मानत
नहीं मिल सकती थी, सो नहीं मिली। वैसे भी मेरी ज़मानत भरने वाला
कौन था? हम तीनों को हथकड़ियों में लंडन पहुँचा दिया गया। पुलिस
की गाड़ी में वे दोनों मेरे सामने बैठे रहे।
मजिस्ट्रेट के सामने और गाड़ी में दोनों मुझसे नज़रें चुराते
रहे।
माऊँटजॉय और मैथ्यूज़ ने तो बढ़िया
और महँगे वकील कर लिये थे। मेरे तो वस्त्र भी अपने नहीं थे।
मैं अपना वकील कहाँ से लाती? सरकारी ख़र्च पर मुझे मेरी वकील
मिली मिस कविता आनंद। वे मुझे जेल में मिलने आयीं और मुझे
बताया कि उनकी कम्पनी की ओर से मिस्टर मार्क डीन को मेरा
बैरिस्टर नियुक्त किया गया है।
“तो फिर मेरे दो दो वकील होंगे?”
“नहीं। इंग्लैंड में सॉलिसिटर – मतलब वकील – सिर्फ़ मुवक्किल के
काग़ज़ तैयार करता है। वह जज के सामने मुक़द्दमे की बहस नहीं कर
सकता। यह काम बैरिस्टर
का होता है। मैं वहाँ मौजूद रहूँगी और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें
लिखित सलाह देती रहूँगी किन्तु तुम्हारा केस मिस्टर डीन
लड़ेंगे।”
कविता जी ने मुझे समझाया कि पुलिस के सामने दिये गए मेरे बयान
कोई मतलब नहीं रखते। जो भी मैं कविता जी को बताऊँगी, वही सब
कोर्ट मानेगी। फिर उन्होंने दोहराने शुरू किये वही प्रश्न
जिनका उत्तर मैं डोवर के पुलिस स्टेशन में दे चुकी थी। कोकीन
मैंने कहाँ और किस से ख़रीदी और इसके दाम मैंने कैसे चुकाए?
इतना पैसा मेरे पास कहाँ से आया? क्या यह माल मैंने भारत में
ख़रीदा था या ऐम्स्टर्डाम, हॉलैंड में? इंग्लैंड में किस किस के
साथ हैं मेरे सम्बन्ध और यह माल मैं किसको बेचने वाली थी?
जब यह माल मेरा था ही नहीं, तो मैं क्या जवाब देती? मैंने तो
हॉलैंड के उस नगर का नाम भी पहली बार सुना था। मैं फूट फूट कर
रोने लगी।
कविता जी कड़े स्वर में बोलीं, “बेवक़ूफ़ लड़की, क़ानून भी माना है
कभी आँसू बहाने से? . . . इंसाफ़ भी सुनता है कहीं शोर मचाने
से?? हमें ठोस सबूत चाहिये होते हैं। हम जानते हैं कि नन्हे
मासूम बच्चों को और सुन्दर लड़कियों को ड्रग्ज़ की स्मगलिंग में
लगाया जाता है। कोई मामूली आरोप नहीं लगा है तुम पर! कई देशों
में तो इसकी सज़ा मौत होती है। यह भी क़िस्मत समझो कि तुम पर यह
केस यहाँ चल रहा है और यहाँ लम्बी क़ैद तो हो जाती है, फांसी
नहीं दी जाती। आधा किलो कोकीन कम नहीं होती। तुम्हें भी लम्बी
क़ैद मिलने वाली है। अगर शुरू शुरू में ही सच सच बतादोगी, तो हम
तुम्हारी सज़ा कम करवाने की कोशिश करेंगे। सोच लो, मैं शाम को
फिर आऊँगी।”
ट्रक ड्राईवर मैथ्यूज़ ने मुझे पहचानने से इनकार कर भी दिया तो
कोई ग़म नहीं। लेकिन मेरा अपना गिरिराज. . . मेरे विश्वास का
हिमालय. . . मुझी पर टूट गिरा है और मेरी वकील भी मुझपर यकीन
नहीं करती। बैरिस्टर मेरा केस क्या ख़ाक लड़ेगा?
लेकिन मैं सच कहती हूँ कहानियों सी कहानी नहीं हूँ मैं, हकीकत
हूँ! वहाँ बाहर कोई है जो सुन रहा है? अपने उसी फ़रेबी हिमालय
के मलबे तले दबी मैं पुकार रही हूँ, मुझे यहाँ से निकालो!
. . . नहीं तो, बेईमानी के समन्दर में एक बूँद और बढ़ा दो। समझ
लो कि बीते कल के अख़बार में छपी एक कहानी थी मैं! मुझे फाड़-फूड़
कर फेंक दो!! फांसी पर चढ़ा दो. . . क्योंकि बीच का रास्ता मुझे
मंज़ूर नहीं!!!
अब कोई मेरी अंतिम इच्छा भी पूछ ले। मैं अपनी आँखों से उस आदमी
की लाश झूलती हुई देखना चाहती हूँ जिसने बाप-बेटी के पवित्र
रिश्तो को गाली देकर मुझे यहाँ तक पहुँचा दिया।
जिस थके हुए दुःखी हाथ से सुरभि ने यह कहानी लिखी थी, उसी की
उँगलियों ने कोर्ट में सच उगल दिया। कोकीन वाले उस हैंड बैग पर
सुरभि की उँगलियों के निशान नहीं थे। डीएनए परीक्षण भी हुए थे।
उस बैग पर तो उसकी परछाई भी नहीं पड़ी थी। अब वह मुक्त है
क्यों कि इंगलैंड में उसका अवैध प्रवेश जुर्म नहीं था, मजबूरी
थी। एक बार वह अपने तथाकथित पिता से जेल में मिली भी थी और
पूछा भी था –
“मुझसे पहले कितनी बेटियों के बाप पन चुके हो तुम?”
उसकी गर्दन तो झुक गई परंतु मुख से कोई आवाज़ नहीं निकली।
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