मुक़दमा
शुरू हुआ। सभी अपराधियों को उन पर लगे आरोप पढ़कर सुनाए गए।
दूसरे आरोपियों की तरह मैंने भी कह दिया, “नॉट गिल्टी!”
मुक़दमा चलता रहा। सरकार की ओर से प्रॉज़ीक्यूटर ने मुझपर फेंक
मारा एक और पत्थर और जज साहिब से कह दिया-
“लड़की का बैकग्राऊँड भी तो देखिये।”
मेरा तो बैकग्राऊँड ही मुझपर एक इलज़ाम है। कल की अख़बारों में
सब छपेगा और मैं नंगी की जाऊँगी! मैं आज ही बता देती हूँ सब
कुछ!!
मैं एक वेश्या नहीं हूँ, एक वेश्या की बेटी हूँ - नाम, सुरभि;
उम्र सोलह साल ।
मेरी अम्मा का नाम, माया। अब वे इस संसार में नहीं रहीं।
पैंतीस वर्ष की अपनी छोटी सी उम्र में वे मुझे अनाथ छोड़ गयीं।
वे कलकत्ता की सोना गाछी में रहा करती थीं। वे चौदह साल की रही
होंगी जब एक औरत ने – जो उनकी कुछ भी नहीं थीं, मगर अपने को
उनकी मौसी कहा करती थी – उन्हें एक हज़ार रुपए में बेच दिया। वे
बिहार पहुँच गयीं। फिर वे
मजबूरी में स्वयं ही अपने को बेचने लग गयीं और बिकते बिकते
वाराणसी में आ बसीं।
सुन्दर, लुभावने, प्रलोभक
होते हैं वेश्याओं की गलियों के नाम, जैसे – सोना गाछी, हीरा
मंडी, मीना बाज़ार, बाज़ार-ए-हुस्न! लेकिन वाराणसी में वेश्याओं
की इस नगरी का नाम है, शिवदासपुर। मालूम नहीं यहाँ का यह नाम
वेश्याओं के आगमन से पहले का है या बाद का। लेकिन शिवजी अपने
और अपने भक्तों के नाम के इस दुरुपयोग पर तांडव नहीं करते,
प्रलय नहीं लाते। लगता है उनकी भृकुटी भी नहीं तनती !
वाराणसी के शिवदासपुर की एक तंग अन्धेरी कोठरी में रहा करते थे
हम माँ-बेटी। वहाँ और कोई नहीं था . . . भगवान भी नहीं! बस
वहाँ एक पलंग था और एक मेज़-कुर्सी। पलंग पर बिछी रहती थी एक
लम्बी चौड़ी चादर. . . चारों ओर से फ़र्श को छूती हुई। वह पलंग
मेरा नहीं था। वह अम्मा का था या उनके ग्राहकों का। जब कोई
ग्राहक नहीं होता था तो मैं कभी कभार अम्मा के साथ सो लिया
करती थी। उस पलंग के नीचे चादर से घिरे फ़र्श पर मेरा बिस्तर
हुआ करता था। जब मैंने होश संभाला तो अपने को उसी फ़र्शी बिस्तर
पर पड़ा पाया। मुझे सख़्त हुक्म था कि ग्राहकों के होते हुए मैं
बिलकुल चुप चाप पलंग के नीचे पड़ी रहूँ। अम्मा की आहों कराहों
के बावजूद । एक बार जब एक साँप पलंग पर अम्मा
के साथ लिपटा हुआ था एक दूसरा
साँप मेरे ऊपर से निकल गया। सर्प-दंश की दहशत से या अम्मा की
डाँट के डर से मैं तब भी चुपचाप सुन्न पड़ी रही। जब भी मैं अपने
उस फ़र्शी बिस्तर पर होती, मुझे तो खाँसते, छींकते हुए भी डर
लगता था।
रंडियों की औलाद के पिता नहीं हुआ करते। उनके जनक तो बेनाम
ग्राहक होते हैं। फिर भी निकोलस माऊँट्जॉय मेरे डैडी का स्थान
पा गए। वे मेरी अम्मा के विवाहित पति नहीं थे। वे एक
अन्तर्राष्ट्रीय लोक-कल्याण संस्था की ओर से भारत भेजे गए थे
जिसने हमारी बस्ती में और नगर के दूसरे इलाक़ों में हम जैसे
बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध कर रखा था। मैं भी उसी संस्था
द्वारा स्थापित एक स्कूल की शिष्या थी। मिस्टर माऊँटजॉय
निरीक्षक के रूप में महीने में एकाध बार शिवदासपुर का चक्कर
लगा लिया करते थे और अम्मा के देहान्त से कुछ ही दिन पहले उनसे
मिले थे। वे पहले भी भारत
आते रहे थे और कहा करते थे कि उन्हें इस देश के साथ विशेष मोह
है। वे अच्छी हिन्दी बोल लेते हैं।
अम्मा को एड्ज़ हो गई थी। तब से वे रोज़ हमारे घर आने लग गए और
उनके अन्तिम दिनों में अम्मा की सेवा, सहायता . . . जो भी वे
कर सकते थे, करते! एड्ज़ के हर रोगी का जो हश्र होता है, अम्मा
का भी हुआ। अम्मा के अन्तिम संस्कार के दिन वे मेरे साथ थे।
चौदह साल की कच्ची उम्र में जब एक लड़की की माँ गुज़र जाए, तो वह
क्या करती है? मैं भी क्या करती? रंडियों के रिश्तेदार नहीं
हुआ करते। मेरा भी कोई नहीं था . . . कोई संगी, साथी, सहारा .
. . कोई भी नहीं! आँखों के आगे अन्धेरा छाया हुआ था और आँसुओं
की बाढ़ रोके नहीं रुकती थी। उस समय निकोलस साहिब ने मुझे गले
लगा लिया और मेरी आँखें पोंछ डालीं।
“लड़की, घबराती क्यों हो।
आज से मुझे अपना डैडी समझो।”
अब तक तो मेरी ज़िन्दगी
में अन्धेरा ही अन्धेरा था। तब मैंने मिस्टर माऊँटजॉय कि आँखों
में देखी भोर की झिलमिल! उन आँखों में से झाँकता सा लगा एक
पिता का पवित्र स्नेह जिससे मैं अब तक वंचित रही थी। उनकी
इच्छानुसार मैंने उन्हें ‘डैडी’ का सम्बोधन दे दिया और हम
दोनों के बीच यह नया रिश्ता क़ायम हो गया। अम्मा की मृत्यु के
बाद सबसे पहले उन्होंने मेरी पूरी मेडिकल जाँच करवाई कि कहीं
उनका भयानक रोग मुझको तो नहीं लग गया। मैं पूरी तरह से स्वस्थ
और निरोग निकली।
कुछ दिनों के बाद डैडी मुझे देहली ले आए। इससे पहले तो मैंने
कभी कोई सफ़र किया नहीं था। वाराणसी का रेलवे स्टेशन कभी देखा
होगा – वह भी बाहर से। अचानक देहली की चकाचौंध देखकर तो मेरा
दिमाग़ चकरा गया। डैडी ने ग्रीन पार्क में तीन कमरों का एक
फ़्लैट किराए पर ले लिया था। कहाँ हम माँ-बेटी की वारणसी वाली
वह कोठरी और कहाँ यह इतना बड़ा फ़्लैट! जीवन में पहली बार मुझे
अपना अलग कमरा मिला और मेरा अपना पलंग। फिर उन्होंने मुझे बहुत
से बढ़िया नए कपड़े ख़रीद दिये। वहाँ वाराणसी में तो मैं सलवार,
कमीज़ में हुआ करती थी। उन्होंने मुझे स्कर्ट, ब्लाऊज़ पहना
दिये। पैरों में साधारण चप्पल के स्थान पर पहनने को मिले ऊँची
एड़ी के सैंडल और जूते। शुरू शुरू में तो मैं यह सब पहन कर बहुत
सकुचाती, घबराती, थी। ऊँची एड़ी में तो मेरा पैर लचक जाता था।
लेकिन उन्होंने मिस टॉमस से साफ़ कहलवा दिया कि उन्होंने बेटी
बनाया है तो मुझे भी उनकी बेटी की तरह उनकी इच्छानुसार उनके
ढंग से रहना होगा।
मिस टॉमस? यह मेरी नई ट्यूटर थीं जो हर रोज़ मेरे साथ दो घंटे
लगाया करती थीं - मुझे हिन्दी, इंग्लिश और हिसाब पढ़ाती थीं।
पढ़ाई का तो मुझे पहले से ही बहुत शौक़ था। डैडी ने कह दिया कि
मेरे लिये दिन में और कोई काम नहीं है। मुझे सिर्फ़ पढ़ाई करनी
है। घर के कामकाज के लिये नौकर रख दिये गए थे।
डैडी के साथ रहते अब मुझे दो वर्ष हो चले थे। वाराणसी के स्कूल
में जो भी मैंने सीखा, वह कुछ बहुत नहीं था किन्तु मिस टॉमस की
सहायता और मेरा परिश्रम काम आए और मैं इन दो वर्षों में काफ़ी
होशियार हो गई।
मैं पन्द्रह पार कर चुकी
थी और अब सोलहवें वर्ष में आ गई थी। डैडी के साथ मेरा स्नेह
बढ़ता गया और वे भी एक सच्चे पिता की तरह मेरा पूरा ध्यान रखते
और हर समय हर प्रकार से मेरी रक्षा करते। कभी कोई मनचला मुझसे
छेड़ख़ानी करता, या कोई शरारत करता, तो वे हाथ धोकर उसके पीछे पड़
जाते। एक बार सामने वाले फ़्लैट से एक लड़के ने आँख मार कर मुझे
‘फ़्लाईंग किस्स’ दे डाली। डैडी ने देख लिया। उन्होंने आव देखा
न ताव और उसे उसके घर से घसीट कर बाहर सड़क पर लाकर पीट दिया।
मुझे उस बेचारे पर तरस तो आया मगर डैडी के लिये मेरी श्रद्धा
और भी बढ़ गई। क्योंकि उनके नाम के साथ ‘माऊँटजॉय’ जुड़ा हुआ था
- मतलब पर्वतीय आनन्द, मैंने उन्हें बना दिया पहाड़ों का पहाड़,
हिमालय! मैं उन्हें प्यार से ‘मिस्टर गिरिराज’ कहकर बुलाने
लगी। इस नाम से तो वे भी बहुत ख़ुश हुए।
मेरे लिये तो वे सचमुच
मेरे पहाड़ थे . . . मेरे हिमालय . . . मेरे भगवान!
डैडी की संस्था ने उन्हें
भारत में तीन साल के लिये भेजा था। वह अवधि पूरी हो चली थी और
अब उन्हें वापस इंग्लैंड लौटना था। मुझे इस बात का पता चला और
मैं परेशान हो गई . . . गुमसुम, उदास रहने लगी। किसी चीज़ में
मन नहीं लगता था। पढ़ाई में तो बिलकुल नहीं। एक रात अपने कमरे
में पड़ी सुबक रही थी। मेरा रोना डैडी ने सुन लिया। उन्होंने
मुझे सँभाला और अपने पास बुलाकर कहा, “मैंने तुम्हें यहाँ छोड़
जाने के लिये तो बेटी नहीं बनाया? तुम हर हालत में मेरे साथ
जाओगी।”
इस तरह से वाराणसी की इस तुच्छ वेश्या-पुत्री के सपनों में
इंग्लैंड समा गया।
एक दिन मिस टॉमस ने मेरे आगे एक फ़ॉर्म रख दिया जो वे चाहती थीं
मैं अपने हाथ से भरूँ। पासपोर्ट के लिये था यह फ़ॉर्म! मुझे
बताया गया कि पासपोर्ट के बिना कोई भी देश से बाहर नहीं जा
सकता। तब मैं इतनी भोली हुआ करती थी कि मुझे इन बातों का इल्म
ही नहीं था। उस फ़ॉर्म में पिता या पति का नाम भरना ज़रूरी था।
पति कोई था नहीं, पिता का नाम क्या लिखती? डैडी से पूछा।
वे हँस कर बोले-
“यह भी कोई पूछने की बात है? मैंने बेटी किस लिये बनाया है?
मेरा ही नाम लिख दो। लेकिन ध्यान रहे, मेरा अंग्रेज़ी नाम
लिखोगी तो शक के घेरे में आ जाओगी। तुम मुझे गिरिराज कहकर
बुलाती हो न? बस वही नाम लिख दो।”
उस फ़ॉर्म में डैडी का यह
नाम लिखकर मैं मन ही मन गर्वित भी हुई और प्रसन्न भी! अब तक तो
मैं उन्हें ‘डैडी’ कहकर बुलाया करती थी, अब तो एक सरकारी
पासपोर्ट में मेरे पिता की हैसियत से उनका नाम दर्ज होगा!
यह वह सम्मान है जो वेश्याओं की बेटियों को कभी नहीं मिल सकता!
मेरे पासपोर्ट के लिये कोई अच्छा सा फ़ोटो भी चाहिये था। डैडी
ने कह दिया कि फ़ोटो से पहले मुझे अपने बाल कटवाने होंगे। मिस
टॉमस मुझे अपने साथ ले गयीं और मेरे चेहरे की बनावट के अनुकूल
मेरे बाल कटवा दिये गए। तब मिस टॉमस ने मुझे याद दिलाया कि अब
मैं बड़ी हो गई हूँ। हलके मेकअप में अच्छी लगूँगी। मेरे लिये
लिप्स्टिक, पाऊडर भी आ गए। मिस टॉमस ने ही पहली बार मेरा मेकअप
किया। फिर जब उन्होंने मुझे आईना दिखलाया तो मैं लजा गई। इससे
पहले मुझे ज़रा भी अहसास नहीं था कि मैं इतनी सुन्दर हूँ! अपने
पासपोर्ट के फ़ोटो में तो मैं और भी सुन्दर लगती थी। मेरा गर्व
बढ़ गया!
मेरा पासपोर्ट बनकर आ
गया। अब तो बस विमान में सवारी की देर थी और डैडी के साथ
इंग्लैंड में होगा मेरा नया घर!
सहज बने सपने सहज ही टूट भी जाते हैं। डैडी ने बिजली गिरा दी –
“मेरे लिये तुम्हें अपने साथ इंग्लैंड ले जाना इतना आसान नहीं
है । जिस देश में जाकर रहना होता है, वहाँ की सरकार की मंज़ूरी
भी ज़रूरी होती है। पासपोर्ट पर मंज़ूरी का ठप्पा लगवाना पड़ता है
– इसे ‘वीज़ा’ कहते हैं और तुम्हारे लिये इंग्लैंड का वीज़ा
मिलना मुश्किल ही नहीं, असंभव है।”
मेरा चेहरा फ़क पड़ गया। तब डैडी ने ढाढ़स दी , “घबराती क्यों हो
. . .कोई तरकीब सोचेंगे, कोई रास्ता निकालेंगे।” |