उसे
याद आया कि आज होली है और होली उसका मनपसंद त्योहार हुआ करता
था। सिर्फ इसलिए नहीं कि वह त्योहार था बल्कि इसलिए भी कि
रंगों से उसे अथाह प्यार था, वह कलाकार जो था। पिछले वर्ष से
उसने अपनी एक भी पेंटिंग्स को अंतिम रूप नहीं दिया, वे उसके
स्पर्श को तरसती स्टूडियो के कोने में बिना साज-शृंगार की
नायिका-सी बेतरतीब पड़ीं हैं।
वेनेसा के
साथ उसे अपनी पहली होली भी याद आई जब साथ की लैब से वह उसे
लगभग खींचती हुई बाहर ले आई थी और सफेद कुर्ता पायजामा पकड़ा कर
बोली थी- गेट रेडी, होली पार्टी में जाना है और वह यंत्रवत-सा
तैयार होने चला गया था। उसकी उर्जा वेनेसा के सामने निस्तेज हो
जाती है जैसे सुग्रीव की बाली के सामने होती थी। वह उसकी
सुन्दरता से अधिक उसके व्यक्तित्व से प्रभावित है। वह उससे
ज़्यादा भारतीय है, भारतीय दर्शन, मिथकों और संस्कृति पर घंटों
बोल सकती है। कई बार उसके तर्कों और गहन अध्ययन से उसका मुँह
खुला रह जाता, वह तो अपनी ही संस्कृति के बारे में इतना कुछ
नहीं जानता, जितना वह जानती है।
होली की वह
पार्टी वेनेसा की बचपन की सहेली ऋचा शुक्ला के यहाँ थी। ऋचा
की माँ ने रंगों की थाली से माथे पर टीका लगा कर उनका स्वागत
किया और बेसमेंट की तरफ इशारा कर दिया -सीढ़ियाँ उतर कर वे
नीचे बेसमेंट में आए, तो रंगों में पुते भारतीयों का जलूस-सा
उसे मिला। सब ने उन दोनों को रंगों से सराबोर कर दिया था। रंग
खेलने के बाद दोपहर के खाने का इंतज़ाम बेसमेंट से बाहर इनडोर
स्वीमिंग पूल के अहाते में था। वहाँ पकवानों की महक ने उसकी
भूख जगा दी थी...होली के गीत ऊँचे स्वर में लगे हुए थे और
बच्चे, बूढ़े सभी उनकी स्वर लहरियों पर थिरक रहे थे। ढोकला,
पात्रा, समोसे, कचौरियाँ, चाट पापड़ी, भेलपूरी, आलू टिक्की,
छोले-भटूरे, रसगुल्ले, गुलाबजामुन, इमरती, जलेबी, ठंडाई,
गुजिया इत्यादि देख कर उससे रहा नहीं गया और वह एक तरह से खाने
और ठंडाई पर टूट पड़ा। ऋचा खिलखिला कर हँस पड़ी थी। इस
खिलखिलाहट से कुछ असहज महसूस करते हुए उसने वेनेसा से पूछा था,
''क्या यहाँ सब आमंत्रित मेहमान हैं।''
वेनेसा ने
उसे सहज करते हुए कहा था, ''असहज होने की कोई बात नहीं होली पर
भारत से आए नए लोगों का हमेशा ही स्वागत होता है, चाहे उन्हें
कोई आमंत्रित मेहमान अपने साथ ले आए। बस यही चाहते हैं कि दिन
त्यौहार वाले दिन कोई अकेला ना रहे। तुम बिन बुलाए नहीं
हो...सहज हो कर मस्ती करो...'' और वह सचमुच में सहज हो गया था,
''रंग बरसे भीगे चुनर वाली'' गीत पर खूब नाचा था वह और उसकी
अदाएँ देख-देख कर वेनेसा मुग्ध होती रही... कई लोग रंगदार
स्वीमिंग पूल में डुबकियाँ लगा रहे थे, वेनेसा ने पिचकारी से
उसे रंग दिया तो किसी कलाकृति की तरह उसके सफ़ेद कपड़े भी
आकर्षक हो उठे थे।
ठंडाई के साथ
बार भी खुली हुई थी..जिन, टोनिक, ब्लैक लेबल, वोदका, व्हिस्की,
स्काच और बीयर की तो नदी बह रही थी। वह कुछ ज़्यादा ही गटक गया
था। वेनेसा उसे वहाँ से उसे अपने घर ले गई। उसे बाथरूम में
धकेल कर, वह स्वयं दूसरे बाथरूम में चली गई। उसे रंग छुटाने
में देर नहीं लगी। नहा धो कर वह बाहर लिविंग रूम में आया तो
विस्मित-सा खड़ा उसे देखता रहा...अपलक। उसके शरीर में एक लहर सी
दौड़ गई... भावनाओं से भीग गया था वह। आसमानी साटिन के नाईट
गाऊन में वह आकाश गंगा-सी धरा पर उतरी महसूस हुई, उज्ज्वल,
स्वच्छ..चमकती..! किसी परी लोक की मासूम-सी परी..उसे लगा, यह
तो वही परी है, जिसे वह ढूँढ रहा था...
वह घुटनों के
बल बैठ गया और उसने अपना दायाँ हाथ उस की ओर बढ़ा दिया, ''इस
नाचीज़ के साथ प्रणय सूत्र में बँधना पसंद करोगी?'' वह कुछ
क्षण उसकी आँखों में देखती रही। फिर धीरे से अपना हाथ उसके हाथ
में रखती बोली, ''हाँ अभि... मुझे इस पल की प्रतीक्षा
थी।''
पानी की तरलता उसकी आँखों में अपनी छवि देने लगी...वह उछ्ल
पड़ी...आई लव यू अभि...आई लव यू और उसके साथ लिपट गई। सबसे पहले
उसने दादी को ही तो फ़ोन किया था।
फ़ोन दादा ने
उठाया था, ''दादा जी मेरी गर्ल फ्रैंड से कहिए, बचपन की जिस
परी की कहानी वह सुनाया करतीं थीं वह मैंने ढूँढ ली है। ठीक
वैसी ही जैसे वह वर्णन किया करती थीं।''
''किस कुल की है?'' दादा जी का रौबीला स्वर गूँजा था।
''दादा जी, हम तो आर्य समाजी हैं, यह सब मानते नहीं...'' अभिनव
ने बड़े स्नेह से कहा था।
''आर्य समाजी होने का मतलब यह तो नहीं कि कुछ देखा ही ना जाए।
शादी के बाद तुम्हारा ही नहीं हमारा भी पूरा जीवन उससे जुड़ने
वाला है। मेरा मतलब है कि गुजराती, बंगाली, मद्रासी... कौन है
वह? घर परिवार तो देखा ही होगा तुमने।'' दादा जी दृढ़ आवाज़ में
बोल रहे थे।
''दादा जी उसका नाम वेनेसा है...और वह यहूदी है...'' अभिनव के
मुँह से एक दम निकल गया..अभिनव को अपनी ही आवाज़ गूँजती महसूस
हुई।
''क्या...यहूदी लड़की को इस घर की बहू बनाएगा, भारतीय लड़कियाँ
मर गई हैं?'' वह चिल्ला पड़े थे।
वह सकपका गया था। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कट्टर आर्य समाजी
परिवार का बेटा है वह। दादा हाई कोर्ट के रिटायर जज हैं और
पिता आई. ए. एस आफिसर। सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध उन्हें
लड़ते देखा है उसने पर आज दादा जी क्या कह रहे हैं? क्या हो गया
है दादा जी को?
उसने साहस बटोर कर कहा, ''दादा जी, वह बहुत सुलझी हुई लड़की है।
परिवार के महत्त्व को समझती है...यहूदियों की जीवन मीमांसा में
परिवार एक महत्त्वपूर्ण इकाई है...मैं उसे बहुत प्यार करता
हूँ।''
''अभि...इस उम्र का प्यार...'' दादाजी की आवाज़ गुस्से से
काँपने लगी थी। उनकी बात अधूरी रह गई थी।
''आप उसे एक बार मिल तो लें, वह भी मुझे बहुत प्यार करती है।''
उसने उन्हें समझाने की कोशिश की थी।
''यौवन का सूर्य एकान्त के अंधकारों से घिर जाए, तो प्यार नहीं
कहते। भारत आ जाओ, सब ठीक हो जाएगा।'' दादा जी उसी अंदाज़ में
बोलते गए।
अभिनव उखड़
गया। उसे अपने परिवार पर बहुत गर्व था। सोचता था कि वेनेसा के
बारे में बताने पर उसका परिवार ख़ुशी से झूम उठेगा। शैशव काल
से जिस जीवन दर्शन में वह पला था, आज उसके एक फैसले से वह उसे
बिखरता महसूस हुआ, उर्जा रहित हो गया था वह, फिर भी उसने अपने
आप को समेटते हुए कहा, ''दादी जी को फ़ोन दें।''
दादी ने फ़ोन सँभालते ही कहा था, ''अपनी गर्ल फ्रैंड से पूछे
बिना ही तुम ने फैसला ले लिया, अरे गर्ल फ्रैंड को मिलने तो आ
जा... ऐसी बातें फ़ोन पर नहीं होती। भारत आ कर बात कर, पर
अकेले आना। वेनेसा को लाएगा तो ढंग से बात नहीं हो पाएगी। बेटा
तुम तो बहुत समझदार हो। यह वही लड़की है, जो तुम्हें एयर पोर्ट
पर लेने आई थी। बस जो सामने पड़ गई, उसे प्यार समझ लिया। एक बार
अपने देश की परियों को देख ले। मैंने एक परी पसंद की हुई
है।'' अभि को कुछ पता नहीं चला दादी ने और क्या-क्या कहा और
उसने फ़ोन बंद कर दिया था। उसके बाद ईमेल और फ़ोन द्वारा एक ही सन्देश मिला, 'घर लौट आओ...अकेले
घर लौट आओ' और वह लौटा नहीं था। जानता था कि उसका परिवार
बहुत
सक्षम है। वह अभी स्टूडेंट वीज़ा पर है और भारत जा कर वह फिर
कभी अपनी वेनेसा के पास लौट नहीं पाएगा।
उसने फ्लाईट
मोनीटर पर फिर देखा, फ्लाइट को आधे घंटे की और देर हो गई है।
कोने से हट कर वह स्वागत कक्ष में बैठ गया। सामने टी.वी पर
एन.सी. स्टेट यूनिवर्सिटी और यू.एन.सी चैपल हिल की बास्केट बाल
की टीमें खेल रही हैं।
अभिनव को वह दिन
याद आया जब वह पहली बार इस कक्ष में आया था। वेनेसा इसी स्वागत
कक्ष में उसके नाम का बोर्ड लेकर खड़ी थी। वह एन.सी. स्टेट
यूनिवर्सिटी के एग्रीकल्चर विभाग में पीएच.डी. करने आया था..
विदेशी विद्यार्थिंयों के स्वागत कमेटी की वह सदस्य थी और उसकी
मेज़बान थी। वह उसे साधारण-सी अमेरिकी लड़की लगी थी। हालाँकि उसे
पहले बता दिया गया था कि वह उसे एअरपोर्ट पर मिलेगी।
एग्रीकल्चर विश्विविद्यालय लुधियाना का गोल्ड मेडलिस्ट था वह,
पर नए परिवेश में पग धरने तक वह बहुत अधीर था।
''मेरा नाम वेनेसा है...'' उसने अपना हाथ बढ़ा कर उसका स्वागत
किया था।
''आपसे मिलकर खुशी हुई, मैं अभिनव शर्मा हूँ...'' उसे सब कुछ
बहुत
अद्भुत लग रहा था।
वह उसे
विश्वविद्यालय के आवास भवन की ओर ले जा रही थी, जहाँ उसे
विश्वविद्यालय ने एक घर आवंटित किया था। कार में सारे रास्ते वह
चारों तरफ की भीड़, सड़कों और हरियाली को ही निहारता रहा।
सारे रास्ते वेनेसा ही बोलती गई। उसके उच्चारण को समझने में
उसे कठिनाई हो रही थी।
''तुम ब्राह्मण हो?''
''हाँ, पर तुम्हें कैसे मालूम हुआ?''
''मैं भारत के बारे में बहुत कुछ जानती हूँ, जिज्ञासु प्रवृति
की हूँ, खूब जानकारी रखती हूँ। दो बार भारत अपनी सहेली ऋचा के
साथ घूम भी आई हूँ। कई शहर देखे हैं- दिल्ली, आगरा, कानपुर,
राजस्थान एवं मुंबई। मुंबई में तो मैं शाहरुख़ से भी मिली। उसे
देख कर मैं रो पड़ी थी, आत्मविभोर हो गई थी। उसकी सब मूवी
देखती हूँ और तुम किसे पसंद करते हो?'' |