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“अब तुमने खा-पी लिया है तो घर क्यों नहीं लौट जाती, आज कोई नहीं आने वाला इधर”, मैंने उसे सलाह दी।
“नहीं, शायद कोई आ जाए”, शरारत से उसने अपनी आँख दबाते हुए कहा, “शायद कोई मेरी तरह ही मजबूर हो।“
मुझे जैनी की आशा पर हँसी आई।
“कोई ग्राहक इतनी ठंड में इतना मजबूर नहीं होगा। जाओ, घर जाओ। कोई नहीं मिलने वाला।“
“तुम तो हो यहाँ।“
“हाँ, पर मेरी तो दुकान है। मुझे तो धंधा चलाना है।“
“नहीं तुम समझे नहीं, तुम्हारे धंधे की बात नहीं कर रही। अपने धंधे की बात कर रही हूँ।“ उसके होंठों पर रहस्यमयी शरारत नाच रही थी।
“मैं समझा नहीं”, सच में उसकी बात अटपटी लग रही थी।
“इसमें समझने की नहीं करने की बात कह रही हूँ। सुनो, तुम्हारी मिसेज़ तो सो भी चुकी होगी।“ चलो तुम्हारे स्टोर रूम में चलते हैं। मजे करेंगे।“
मुझे उसकी बात थोड़ी-थोड़ी समझ आने लगी थी। मैं उसकी बात सुन कर सकते में था। अचानक क्या हो गया जैनी की शालीनता को? मुझे सोचते देख कर न जाने उसने क्या अनुमान लगाया, उसने दोहराया -
“चल, पिछले स्टोर-रूम में चलते हैं, मजे करेंगे।“
मैं अचानक उफन पड़ा, “क्या बक रही हो, भागो यहाँ से! शर्म नहीं आती तुम्हें! तुम्हारे बाप की उम्र का हूँ।“
मेरे इस गुस्से की शायद उसे आशा नहीं थी। उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगीं। शायद मुझे गुस्से में काँपते हुए देखकर वह भी घबरा गई थी। उसने अपनी कॉफ़ी का कप फ़्रीजर पर रख दिया। उसकी आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे –
“मुझे तो मेरे बाप ने नहीं छोड़ा तो तुम क्यों चिंता करते हो।“
“बकवास बन्द करो”, कहते कहते मैंने उसे कोहनी से पकड़ा और दुकान से बाहर धकेल दिया। ठंड में वह काँपने लगी। दो कदम चलने के बाद पलटी। वह फफक कर रो रही थी – “मेरी बात कोई भी नहीं मानता। मेरी माँ ने भी नहीं मानी थी।“ और वह पैर पटकती हुई रात के अँधेरे में गुम हो गई।

गुस्से में मैं उबल रहा था। यह सब लड़कियाँ दया के लायक हैं ही नहीं। अपने धँधे से समझौता करने के लिए क्या क्या कहानियाँ घढ़ लेती हैं। इन कहानियों में सदा दोष किसी और का होता है इनका नहीं। जैनी भी ऐसी ही निकली। इसे भी किसी रिश्ते का कोई आभास ही नहीं है। थोड़ा अपनापन क्या दिखा दिया की उल्टा की मतलब निकालने लगी। किसी तरह से मैंने स्वयं को संयत किया और स्टोर की लाईट बन्द कर ऊपर चला गया।
उस दिन की घटना के बाद कई दिन तक जैनी नहीं दिखी। शायद बाज़ार में आती भी हो, पर स्टोर में नहीं आई। अगर कहूँ कि इन दिनों उस दिन की घटना के बारे में नहीं सोचा तो ईमानदारी नहीं होगी। और फिर एक दिन वह अपनी झूठी सी मुस्कान लिए आई –
“पॉप्स, क्या आज तक नाराज़ हो”
यह संबोधन इस बाज़ार के लिए नया था। इस बाज़ार में रिश्ते नहीं साधे जाते बस सौदे किए जाते हैं। मैं भी मुस्कुराया –
“कहाँ रही इन दिनों?”
“बस ऐसे ही, सुनो! उस दिन के बाद बस यहाँ आने से घबराती थी।“
“खैर जाने दो, मैं भी उसे भुला चुका हूँ। अभी-अभी कॉफ़ी का नया जग बनाया है।“ मैंने बात को टालते हुए कहा। इस विषय का अन्त यहीं हो जाए तो अच्छा। वह चुपचाप कॉफ़ी की मशीन की और बढ़ी और काउंटर पर आकर उसने पर्स खोला। मैंने उसे टोका –
“रहने दो, बहुत दिनों के बाद आई हो।“
“नहीं, उस दिन की गलती के लिए शर्मिंदा हूँ, फिर नहीं दुहराऊँगी।“
“कहा न, भूल जाओ।“
मैं भी उससे नज़रें मिलाने से कतरा रहा था। सिर झुका कर काउँटर पर पड़े लॉटरी के पन्नों को सहेजने लगा। वह कॉफ़ी का कप लिए मैगज़ीन रैक तक चली गई। कुछ पन्ने पलटती रही और फिर अचानक पलट कर बोली –
“मैं तब दस बरस की थी।“
“क्या? मैं समझा नहीं।“ उसकी बात का छोर मेरे हाथ नहीं आया था।
उसकी दूर से आती आवाज़ ने कहा, “जब मेरे बाप ने पहली बार मुझे छुआ। मैं दस बरस की थी।“
एक ठंडी सिरहन मेरी रीढ़ पर दौड़ने लगी। इस छोटी सी लड़की की कड़वी सच्चाई को सहन करने की क्षमता शायद मुझ में नहीं थी। मैं सुन नहीं सकता था। उसका स्वर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा था। जब उसने अपने जीवन की इतनी गहरी पीड़ा को मेरे सामने रख दिया है तो कुछ कहना तो आवश्यक हो गया था –
“सच! अपनी माँ को नहीं बताया क्या?”
“बताया था। पर वह नशेड़ी औरत...”, उसकी आवाज़ में घृणा टपक रही थी, “उसे तो केवल बोतल और नशे की गोलियों से मतलब था। मेरा बाप भी उसे धुत्त रखता था ताकि उसका रास्ता साफ रहे।“
“पर तुम स्कूल, पुलिस किसी को भी बता सकती थी।“
“कैसे कहती, जब मेरी माँ ने ही विश्वास नहीं किया। पलट कर कभी मुझ पर ही दोष लगाती या फिर रो-रोकर दुहाई देती कि मैं किसी को न बताऊँ। शायद मेरी माँ को मेरी बजाय अपनी बोतल की अधिक चिंता थी।“
मैं उसके चेहरे को देख रहा था। उसका चेहरा एकदम सपाट था, उस दिन जैसी कोई भावुकता नहीं थी। उसने भी मेरे चेहरे पर उभरते प्रश्नचिन्हों को पहचान लिया था। अचानक वह झुकते हुए हँसी –
“कैसी लगी तुम्हें मेरी दर्द भरी कहानी।“

इससे पहले कि मैं कुछ उत्तर दे सकूँ वह हँसती हुई बाहर निकल गई। मुझे अपने भोलेपन पर झल्लाहट हुई। कितनी बार अपने आपको समझा चुका हूँ कि यह झूठ का बाज़ार है। किसी की बात का विश्वास मत करो। पर यह लड़की न जाने कब वह सब मेरी बनाई सीमाएँ तोड़ कर करीब आ गई थी और आज इसने एक बार फिर मुझे वास्तविकता के धरातल पर ला खड़ा किया था कि यह झूठ का बाज़ार है। मैंने सिर को झटका और दैनिक व्यस्तता में व्यस्त हो गया।
उस दिन के बाद जैनी सामान्य ढंग से खरीददारी करने के लिए आने लगी। लगा उस घटना ने जीवन के तलाब में जो कंकर फेंका था और उससे जो लहरें उठी थीं – अब समय में खो गई थीं। सतह फिर से शांत थी। अपनी गहराई के आँचल में ऐसी कई घटनाओं को सहेजे हुए।

समय बीतता रहा। सर्दी के बाद वर्षा ऋतु बीती। वसन्त ने बीतते हुए ग्रीष्म ऋतु का स्वागत कर दिया था। इस बरस भरपूर गरमी पड़ रही थी। मेरा स्टोर एयरकंडीशन्ड था। इन दिनों मेरी आईसक्रीम और आइस-स्लश की बहुत बिक्री हो रही थी। एक दिन दरवाज़ा खुला तो देखा की जैनी दो छोटी उम्र की लड़कियों के कंधों पर बाँहे रखे स्टोर के पायदान पर खड़ी है। उसने हल्का सा फूलों वाला टॉप डाला हुआ था। आज वह बहुत खुश थी। उसकी खुशी छलक कर पूरे स्टोर में बिखर गई। मैं भी अछूता नहीं रहा। मुझे विस्मित देख कर वह चहकी –
“देखो, पॉप्स आज मुझे कौन मिलने आया है!” उसके चेहरे से गर्व झलक रहा था। मैंने उसकी बात को आगे बढ़ाने का अवसर देते हुए पूछा –
“कौन हैं यह सुन्दर गुड्डियाँ?”
“मेरी छोटी बहने हैं। बहुत प्यारी हैं न! देखो मुझे मिलने आई हैं।“ कहते कहते उसने उन्हें फिर बाँहों में भर लिया। वह बार-बार झुक कर उन्हें चूम रही थी। मैं उसका बहता वात्सल्य देख रहा था। उसने मेरी तरफ़ देखा –
“इन्हें आईसक्रीम दिलाने लाई हूँ”, फिर उसने दोनों तरफ़ देखते हुए कहा, “ जाओ लड़कियो फ़्रीजर में से आईसक्रीम कोन निकाल लो।“ कहते हुए वह अपना पर्स खोलते हुए काउंटर पर आई।
“रहने दो, मैं खिलाता हूँ इन्हें आज की आईसक्रीम”, मैंने कहा।
“नहीं, नहीं इनके पैसे आज मैं ज़रूर दूँगी। बड़ी बहन के पास आई हैं।“ आज वास्तव में वह बहुत खुश थी। मैंने उससे पैसे पकड़ते हुए कहा, “ बच्चियो, सबसे बड़ी कोन उठाना और अपनी बड़ी बहन के लिए भी लेना न भूलना।“
मेरी बात सुन वह मुस्कुराई। दोनों छोटी लड़कियों की ओर देखती हुई फिर बोली –
“दोनों प्यारी हैं न!”
“हाँ, बहुत प्यारी हैं।“
बस और कोई बात नहीं हुई। लड़कियाँ आईसक्रीम उठा चुकी थीं। शर्माती सी नज़र से मुझे उन्होंने देखा। जैनी के लिए अब बस वहाँ पर उसकी बहनों के सिवाय और कोई न था। कुछ देर के बाद बाहर जाते हुए उसने पलट कर मेरी तरफ़ देखा –
“थैंक्स!” कहते हुए वो तीनों बाहर चली गईं। मेरी निगाह उसका पीछा कर रही थी। वह तीनों दूर नहीं गईं। बस बाहर निकलते ही फुटपाथ पर पड़े, बड़े से गमले से पीठ सटाकर आईसक्रीम चाटने लगीं। बीच-बीच में वह रुक कर कभी एक बहन को और कभी दूसरी को अपने से सटा लेती। जब तक आईसक्रीम की कोन चलती रही यही सिलसिला चलता रहा। मैं भी दुकान के अन्य ग्राहकों में व्यस्त हो गया। अचानक बाहर से लगभग चीखता हुआ स्वर उभरा। जैनी ही थी – अपनी बहनों से थोड़ी दूर खड़ी चीख रही थी –
“तो तुम्हें माँ ने भेजा है! नहीं लौटूँगी घर, कह देना उस बुढ़िया से बात-बात में मुझे गश्ती कहती थी, अब बन गई हूँ मैं गश्ती। हो जाए खुश! मैं नहीं लौटूँगी।“
वह पीठ कर, पैर पटक-पटक जाते हुए तकरीबन दस कदमों के बाद ही लौट आई। वह फिर चीखी –
“वह बुड्ढा, तुम्हारा बाप कहीं तुम्हें गलत ढंग से छूता तो नहीं?” उसका प्रश्न बड़ी लड़की से था जो देखने में दस बरस के आस-पास की लग रही थी। वह लड़की बुरी तरह से डरी हुई थी। उसने अपना सिर नकारात्मक ढंग से हिला दिया। जैनी तन कर खड़ी हो गई –
“ठीक है, ख़्याल रखना। अगर उसने थोड़ी भी छेड़खानी की तो मुझे बताना!” - कहते हुए उसने अपने पर्स में से एक चाकू निकाल कर हवा में लहराते हुए चेतावनी दी, “हरामज़ादे को काट कर रख दूँगी! तुम्हारी बड़ी बहन अभी ज़िन्दा है!!“
अपनी दोनों बहनों को वहीं बैठा छोड़ जैनी चली गई।
उसके बाद वह कभी नहीं दिखाई दी। कुछ दिनों के बाद मॉम आई तो उससे पूछा, “जैनी नहीं दीखती आजकल।“
“घर लौट गई वह। कहती थी कि जो उसके साथ हुआ वह अपनी बहनों के साथ नहीं होने दूँगी।“
मैं धीरे बुदबुदाया – “उसने सच ही कहा था।“
“क्या?” मॉम ने प्रश्न किया। इस प्रश्न का उत्तर देना मैंने उचित नहीं समझा। मैं पलट कर शेल्फ़ों को ठीक करने लगा। मॉम की नज़र का प्रश्न मेरी पीठ पर दस्तक़ देता रहा।

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 २७ अप्रैल २००९

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