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“ड्यूमारिए लाईट देना”, - स्वर
में अपरिपक्वता का आभास होते ही मैंने सर उठाया तो सामने मेकअप
की पर्तों की असफलता के पीछे से झाँकता बचपन दिखाई दिया। कोई
पंद्रह-सोलह बरस की लड़की अपनी उम्र से बड़ी लगने का भरपूर
प्रयास कर रही थी।
“तुम्हारे पास कोई प्रूफ़ ऑफ़ एज है?”
“क्या मतलब?” उसकी अनभिज्ञता भी उसके प्रयास की तरह ही झूठी
थी। मैं जानता था कि वह यही प्रश्न न जाने कितनी बार सुन चुकी
होगी।
“मतलब क्या? ड्राईवर लाईसेंस, बर्थ सर्टीफिकेट... कुछ भी...
तुम जानती तो होगी”,
मैंने उसके चेहरे को टटोला।
उसने कन्धे से लटके बड़े पर्स में ढूँढने का बहाना किया और फिर
से मेरे चेहरे पर नज़रें टिका कर भोलेपन से बोली, “मिल नहीं
रहा, मेरा विश्वास करो... कोई समस्या नहीं होगी, सब ठीक है”,
उसने मुझे झूठा आश्वासन दिया।
“कुछ भी ठीक नहीं, जानती हो तुम्हें सिगरेट बेचने से मेरा
लाईसेंस जाता रहेगा”, मैंने थोड़ी दृढ़ता से कहा।
उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। विवशता और दयनीयता टपकने लगी।
“दे दो न, मुझे बहुत तलब लग रही है, कोई भी नहीं है इस समय
दुकान में”, कहते-कहते उसने अपने पर्स से पैसे निकाल कर काउंटर
पर मेरी ओर सरका दिए। |