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“नहीं, तुम अच्छी तरह से जानती हो कि मैं तुम्हें सिगरेट नहीं बेचूँगा। बेकार में मेरा समय बरबाद न करो। कुछ और खरीदना हो तो ठीक है वरना यहाँ पर बहाने लगाने का कोई फायदा नहीं।“
उसके का चेहरा क्रोध से तमतमाया और भड़कते हुए बोली, “बुड्ढे, सिगरेट तो तेरी दुकान की पीऊँगी।“ बड़बड़ाते और गालियाँ बकते हुए वह दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गई। हवा का ठण्डा झोंका मेरे चेहरे से आ टकराया। मैंने एक लम्बी साँस ले उस ताज़ी हवा को अन्दर तक भर लिया। सुबह से लेकर रात के ग्यारह बजे तक मैं अपनी ही बनाई हुई इस जेल में कैद रहता हूँ।

इस झोंके की ताज़गी ने मुझमें एक स्फूर्ति भर दी। पलट कर शेल्फ़ों पर सामान की गिनती करने लगा। आधे घंटे में मेरा काम पूरा हो गया तो मैंने बाहर की ओर देखा। पतझड़ के इस मौसम में अन्धेरा जल्दी होने लगता है। अभी पूरा अँधेरा नहीं था बाहर। रोज़ाना जो हलचल देखता हूँ वही उस दिन भी थी। मैंने मुस्कुराते हुए स्टॉक-रजिस्टर उठाया और लिस्ट बनाने लगा कि कौन सा माल शेल्फ़ों पर कम हो रहा है। कल ही ऑर्डर करने का दिन था। आँखें थक चुकी थीं। काऊँटर पर कुहनियाँ टिका कर हथेलियों से आँखों को ढाँप कर कुछ पल के लिए रुका।

यह कॉर्नर स्टोर चलाते हुए लगभग दस बरस बीत चुके हैं। जिस उम्र में इस देश में आया उस उम्र में एक बार फिर से नए सिरे से जीवन शुरू करना कठिन होता है। पर क्या करता, बेटियों की पढ़ाई भारत में रहते हुए मेरी जेब के बस में नहीं थी। उनके हाई स्कूल के दिनों में ही कैनेडा चला आया। दोस्तों ने ऐसा ही स्टोर खरीदने की सलाह दी। हालाँकि जानता था और दोस्तों ने आगाह भी किया था कि यह इलाका ठीक नहीं है पर क्या करता वही जेब की मजबूरी। जितने पैसे थे वैसा ही स्टोर मिला। खैर एक फ़ायदा था इस स्टोर में कि इसके ऊपर एक तीन कमरे का फ़्लैट भी था। बस यही बात मन को भा गई। काम करने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना पड़ेगा बस सीढ़ियाँ उतरो और काम शुरू। बेटियाँ पढ़ लिख गईं, शादी के बाद दोनों ने अपने घर बसा लिए – खुश हैं... हम दोनों भी खुश हैं। मन में सन्तोष है कि इस कीचड़ में रहते हुए भी मेरा सपना पूरा हो गया।

आँखों की जलन थोड़ी कम हो चुकी थी। बाहर देखा – सड़क के खंभों से प्रकाश झरने लगा था। मेपल के पीले-लाल होते पत्तों से रोशनी भी रंगीन होने लगती है। इस झरती रंगीन रोशनी के नीचे माँस का बाज़ार लगने लगा था। हाँ, ठीक ही तो है... माँस का बाज़ार... औरत के माँस का बाज़ार। शहर का यह विरान इलाका पिछली सदी की बन्द पड़ी, जर्जर होती इमारतों के बीच शाम के ढलते ढलते अपना चेहरा बदल लेता है। हर नुक्कड़ पर, इन खंडहर बनती ईमारतों के छज्जों के नीचे, हर उम्र, हर रंग की औरतें अपना माल सजा देती हैं। और फिर शुरू हो जाता है धीमी गति से चलती कारों के जलूस का सिलसिला। रोज़ का एक ही नियम है। कारें रुकती हैं, मोल भाव होता है और कुछ समय के लिए लड़कियाँ गायब होती हैं और फिर से अपने ठिकाने पर तैनात हो जाती हैं अगला शिकार फाँसने के लिए। दिन के समय आसपास की गलियों के पुराने सीलन से भरे घरों में रहने वाली औरतें अपने पीले से चेहरे लिए अक्सर बाहर बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हुए या फिर वापिस लाते हुए दिखाई देती हैं। कभी रुक कर मेरे स्टोर से दैनिक आवश्यकता की चीज़ें खरीदती हैं। स्कूल से लौटते बच्चे भी कैंडी खरीदने के लिए रुकते हैं पर शाम होते-होते इस इलाके की शक्ल ही बदल जाती है। बरसों से इस इलाके के व्यक्तित्व का अभ्यस्त हो गया हूँ, जानने पहचानने लगा हूँ। एक ही कॉर्नर-स्टोर है इस इलाके में – मेरा।

साँझ होते ही एक कुछ समय के लिए एक वीरानी सी छा जाती है और फिर एक अजीब सा जीवन लिए हुए जी उठता है यह बाज़ार। इन लड़कियों को भी पहचानने लगा हूँ। सिगरेट, आईसक्रीम, कॉफ़ी या फिर रात गए सैण्डविच, सूप सभी कुछ तो बेचता हूँ इनको। यह लड़की नई थी।

अचानक दुकान का दरवाज़ा खुलने के घंटी ने मेरे विचारों की तंद्रा तोड़ी। मॉम थी... बाज़ार की सभी लड़कियाँ उसे इसी नाम से पुकारती हैं। सारी उम्र उसने इसी इलाके की दो ट्रैफिक लाईटों के बीच ही बिता दी है। उम्र शायद पचास के आस-पास होगी पर जीवन के निर्मम थेपेड़े और नशे ने समय का सफ़र उसकी चेहरे की झुर्रियों पर लिख दिया है। ग्राहक फँसाने के कई ढंग आते हैं उसे। अक्सर देखता हूँ के बड़ा हैट पहन कर उसे चेहरे पर आगे को इस तरह झुका कर खड़ी होती है कि खंभे की रोशनी में आने-जाने वाली कारों में चक्कर लगाते, इन लड़कियों को आँकते आदमियों को केवल उसके चेहरे की झलक मात्र ही मिले। आमतौर पर देखता हूँ कि कार रुकती है, खिड़की खुलते-खुलते यह झुकती है और अगले क्षण कार झटके से आगे बढ़ जाती है। मॉम हताश, ठगी सी फुटपाथ के किनारे खड़ी रह जाती है। उसे गुस्सा नहीं आता, बस सिगरेट का एक लम्बा कश खींच, धुँआ उड़ाती फिर अपने अड्डे पर जा खड़ी होती है। बाज़ार की सभी छोटी उम्र की लड़कियों ने कब इसे मॉम कहना शुरू कर दिया शायद उसे भी आभास नहीं हुआ। कहें भी क्यों न, इसने भी तो उन्हें एक माँ की तरह से सँभालना शुरू कर दिया है। उनके झगड़े निपटाने से लेकर उनके मेकअप तक का ख्याल रहता है इसे। नियमित आने वाले खरीददारों की पहचान है इसे, यह जानती है किसे क्या पसंद है क्या नहीं – लड़कियाँ भी इसीसे पूछती हैं। अगर इसे किसी ग्राहक पर शक हो तो उसकी कार का नम्बर भी इसे डायरी में लिखते देखा है। और लड़कियाँ भी इसकी देखभाल करती हैं, अक्सर मेरे स्टोर में इसके पैसे वही देती हैं।

“जैनी आई थी क्या?” उसने पूछा।
“कौन जैनी?” मैं समझा नहीं।
“वही छोटी सी, सुन्दर सी लड़की, सिगरेट लेने आई थी और तुमने उसे बेची नहीं।“
“अरे, हाँ आई थी”, मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “बेचारी को तो झूठ बोलना भी नहीं आता।“
“हाँ, जानती हूँ”, वह भी मुस्कुरा दी। सिगरेट और कॉफ़ी से भूरे हुए दाँत उसके चेहरे को और भी अनाकर्षक बना रहे थे – “बेच देते बेचारी को सिगरेट, क्या जाता तुम्हारा?” उसने जैनी की ओर से दलील दी।
“कितने बरस की है वो, तुम तो जानती ही होगी। कैसे बेचता उसे – मुझे अपनी दुकान बन्द तो नहीं करवानी सिगरेट के एक पैकट के लिए।“
“मुझे तो सिगरेट बेचने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है न?” वह फिर से मुस्कुराई, “चलो एक ड्यूमारिए लाईट का पैकट दो।“
“जानता हूँ किसके लिए खरीद रही हो”, मैंने सिगरेट का पैकट उसे थमाते हुए कहा, “क्यों उस बच्ची के फेफड़े जला रही हो। ख़त्म हो जाएगी बेचारी।“
उसने पैसे काउँटर पर रख दिये, फिर खोई सी बोली, “तुम क्या जानो, उस लड़की का क्या-क्या ख़त्म हो चुका है”, कहते-कहते बाहर निकल गई। अब इस बाज़ार की कोई बात मुझे चौंकाती नहीं है। अक्सर ऐसी कहानियाँ सुनता हूँ। मैं फिर से अपने काम में व्यस्त हो गया।

उस दिन के बाद लगभग हर रोज़ जैनी आने लगी। धीरे-धीरे वो थोड़ा खुलने लगी थी। मैं प्रायः अनुभव करता कि वह अपने कुछ ग्राहक निपटाने के बाद बहाने से मेरे स्टोर में ही घूमती। उसका वापिस बाहर जाने को मन नहीं करता था। कभी कॉफ़ी का कप भरने में और मुझे पैसे देने के बीच स्टोर के कई चक्कर लगा देती। उसकी बातों में कुछ शालीनता भी झलकने लगी थी – जो कि इस माहौल में कुछ अटपटी थी। कई बार वह मेरी सहायता करने की कोशिश भी करती। मैं प्रायः उसके बारे में सोचता कि यह बाज़ार उसके लिए नहीं है – और फिर इस उम्र में। बहुत कोशिश करता कि उसके बारे में न सोचूँ। इस बाज़ार के अनुभवों ने सिखला दिया था कि इन लड़कियों की किसी बात का भरोसा नहीं किया जा सकता है। हर समय एक नई कहानी इनके होंठों पर रहती है। इनके जीवन की तरह इनकी हर बात झूठी है। झूठ के साथ लगाव हमेशा पीड़ा ही देकर जाता है।

उस दिन कड़ाके की सर्दी थी। शून्य से दस डिग्री से भी कम के करीब तापमान था। बाहर खंभों से झरती हुई रोशनी भी ठिठुरी सी थी। आज तो बाज़ार भी सुनसान था। कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। सोच रहा था कि मैं आज जल्दी ही काम निपटा कर ऊपर जाकर रजाई में जा दुबकूँ। अचानक दरवाज़े पर लटकी घंटी ने चौंका दिया। सामने जैनी खड़ी थी ठिठुरती हुई। खरगोश की फ़र की छोटी सी जैकेट पहने हुए, सिर पर टोपी और कानों पर “इयर-मफ़”। अपने दस्तानों में ढंके हुए हाथों को फूँकते हुए गर्म करने का प्रयास कर रही थी।
“तुम... आज... इस ठंड में!”
“हाँ, कमाई तो करनी ही है न”, वह झूठी सी मुस्कुराई और कॉफ़ी मशीन की ओर बढ़ गई। दूर से ही चिल्ला कर बोली, “कल किराया देना है, और जेब खाली है।“ काउँटर पर आकर अपना पर्स टटोलने लगी। मैंने कहा –
“रहने दो, कोई ज़रूरत नहीं है। मैं तो वैसे ही हैरान हूँ। कोई भी नहीं बाहर, ऐसे में कौन मिलेगा तुम्हें?”
उसने अपने पर्स की ज़िप बन्द कर अपने कंधे पर लटका लिया। अपने दस्ताने उतारे और कप को अपने दोनों हाथों में पकड़ कर उससे उठती भाप से अपने ठंड से सफ़ेद होते गालों को गरम करने लगी। मुझे उस पर दया आ रही थी।
“सैण्डविच भी ले लो, वैसे भी आज कोई खरीदने वाला तो कोई है नहीं?”
“तभी दयालु हो रहे हो”, वह शरारत से मुस्कुराते हुए मैगज़ीन-रैक से उठा कर कॉस्मोपॉलिटन पढ़ने लगी। मैं भी पलट कर चीज़ें सँभालने लगा। आज देरे तक दुकान खोल कर रखने का कोई कारण नहीं था। कुछ समय में मेरा काम निपट गया था और मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि किस समय यह लड़की बाहर जाए। ठंड इतनी थी कि ज़बरदस्ती उसे बाहर भेजने को मन भी नहीं हो रहा था।

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